प्रसंगवश
अक्सर देखा गया है कि लोकप्रियता एवं वाहवाही बटोरने के चक्कर में प्रदेश की राज्य सरकार लोक लुभावन योजनाएं तो शुरू कर देती हैं, लेकिन उन योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीरता नहीं बरती जाती। प्रदेश में ऐसी योजनाओं की फेहरिस्त लम्बी हैं, जो तात्कालिक लाभ लेने के लिए जोरशोर से शुरू तो
कर
दी गई, लेकिन वे जल्द ही अपने उद्देश्यों से भटकती नजर आई। बालिका शिक्षा
को प्रोत्साहित करने के नाम पर शुरू की गई सरस्वती नि:शुल्क साइकिल वितरण
योजना का हश्र भी कुछ ऐसा ही है। सबसे पहले 2004 में यह योजना अनुसूचित
जाति एवं अनुसूचित जनजाति की कक्षा नवमी में अध्ययन करने वाली छात्राओं के
लिए शुरू की गई थी। इसके बाद 2008 में इस योजना का लाभ गरीबी रेखा से नीचे
जीवन यापन करने वाले परिवारों की छात्राओं को भी दिया जाने लगा। इस योजना
के प्रति छात्राओं ने खासा उत्साह दिखाया, लेकिन साइकिल को पाने की
प्रक्रिया छात्राओं एवं उनके अभिभावकों का मनोबल तोडऩे का काम ज्यादा कर
रही है। चयन से लेकर आवंटन तक की प्रकिया जटिल व लम्बी है। प्रवेश
प्रक्रिया में ही एक-दो माह गुजर जाता है। इसके बाद चयनित छात्राओं की
रिपोर्ट जिला शिक्षा अधिकारी के पास तथा वहां से पूरे जिले की रिपोर्ट
मंत्रालय को भेजी जाती है। इस प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है और लगभग
पूरा सत्र इंतजार में ही बीत जाता है। साइकिल देरी से मिलने की समस्या
समूचे प्रदेश में है और सभी स्कूलों में हालात एक जैसे हैं। साइकिल लेने के
प्रति छात्राओं की कितनी दिलचस्पी है, इस बात की पुष्टि साल दर साल
आंकड़ों में होने वाली बढ़ोतरी ही बयां कर देती है। अविभाजित दुर्ग जिले
में सत्र 2011-12 में साइकिल पाने वाली छात्राओं की संख्या 12091 थी। इसके
बाद दुर्ग से अलग होकर बालोद एवं बेमेतरा जिले में अस्तित्व में आ गए। सत्र
2012-13 में तीनों जिलों से करीब 14501 छात्राओं को साइकिल मिलने का
अनुमान है। बहरहाल, राज्य सरकार को इस योजना पर पुनर्विचार कर इसमें संशोधन
करना चाहिए और ऐसी व्यवस्था हो कि छात्राओं को नवमी कक्षा में प्रवेश के
दौरान ही साइकिल मिल जाए। ऐसा हो तभी इस योजना का फायदा है, वरना तो यह,
'का वर्षा जब कृषि सुखाने' वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है। मामला
बेटियों से जुड़ा है, लिहाजा राज्य सरकार को तत्काल सोचना चाहिए।
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 28 नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।
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