बस यूं ही
सियासत में इसी तरह के सपने दिखाए जाते हैं। आजादी से लेकर आज तक न जाने कितने ही सपने दिखाए गए। कोई हिसाब नहीं है। बिलकुल बेहिसाब। सपने दिखाते-दिखाते हालत यह हो गई है कि अब बात सपने देखें जाए या नहीं, इस विषय पर होने लगी है। तभी तो आजकल सपने पर बहस चल रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाल ही में दिए गए सपनों से संबंधित बयानों की जोरदार समीक्षा हो रही है। मोदी कहते हैं, वे सपने नहीं देखते। सपना देखने वाला बर्बाद हो जाता है। राहुल कहते हैं, आपके (जनता के) सपनों को मैं अपना सपना बनाना चाहता हूं.। मैं जनता के हर सपने को पूरा करना चाहता हूं। दोनों बयान कितने विरोधाभासी हैं। दोनों में कहीं कोई समानता नजर नहीं आती है। बिलकुल एक दूसरे के उलट हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, दोनों परस्पर विरोधी दलों के नेता जो ठहरे। इसके बावजूद मेरे को दोनों नेताओं के बयान में एक समानता दिखाई देती है। समानता इस बात की कि दोनों नेताओं के बयान पार्टी लाइन की बजाय व्यक्तिगत ज्यादा नजर आते हैं। यह बात अलग है कि दोनों ही दलों ने बयानों पर न तो कोई प्रतिक्रिया जाहिर है की और ना ही इनको व्यक्तिगत मामला बताकर अपना पल्ला झाड़ा है। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि इन दोनों दिग्गज नेताओं के बयानों को चुनौती देने का काम कौन करे। यही बयान कोई छुटभैया दे देता तो यकीन मानिए, उससे स्पष्टीकरण मांग लिया जाता। भविष्य में इस तरह के बयान देने पर पाबंदी तक भी लग सकती थी। खैर, मोदी का ना हो लेकिन उनकी पार्टी का सपना है कि मोदी प्रधानमंत्री बने। इधर राहुल हर आदमी का सपना सच करने की कह रहे हैं कि जबकि उनकी पार्टी ने न जाने आज तक कितनों के सपनों को तोड़ा है। इसलिए मेरी नजर में तो दोनों बयान व्यक्तिगत ही हैं और इधर दोनों दल मजबूर हैं। बयानों के समर्थन हां में हां मिलाने या मौन रहने पर। चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते। कोई चारा भी नहीं है।
बहरहाल, देश में सपना आज भी प्रासंगिक है। सपना हमारे देश का एक तरह से यथार्थ बन गया है। देश में सपने का कारोबार है। यहां सपने बिकते हैं। यहां सपनों के सौदागर हैं। साहित्य से लेकर फिल्म तक हर जगह सपना मौजूं हैं। कॅरियर बनाने तक में सपना देखा जाता है। हर आम से लेकर खास तक सपना जुड़ा है लेकिन इसके हर वर्ग के हिसाब से मायने अलग हैं। दरअसल, सपना हमारे देश में एक बहुत बड़ा मुद्दा है। भ्रष्टाचार, महंगाई, साम्प्रदायिकता, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि इन सबसे दीगर लेकिन सबसे कारगर। जिस प्रकार धर्म का राजनीति से घालमेल करके फायदा उठाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा मुफीद तो सपना है। इसलिए सपना सियासत का सबसे कारगर हथियार है। सफलता पाने की पहली कड़ी ही सपना है। बिना सपने के सफलता मिलना संभव भी नहीं है। जारी है..
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