बस यूं ही
कार्य संबंधी तमाम औपचारिकताएं पूर्ण कर उसी दिन शाम को हम दोनों भाई-बहन गांव के लिए रवाना हो गए। ऐसे में जोधपुर देखने की हसरत पूरी नहीं हो सकी। मजे की बात तो यह है कि उस काम का परिणाम केवल एक हां पर ही टिका था। आखिरकार हां हो ही गई और इसके बाद रिश्तों की डोर कुछ कदर बंधी, कि मैं जिंदगी भर के लिए जोधपुर का होकर रह गया। इसके बाद तो जोधपुर पहले के बरक्स और भी अच्छा लगने लगा था। यह बात दीगर है कि व्यस्तता और पेशगत मजबूरियों के चलते जोधपुर जाना कम ही हो पाता है। कभी कारण विशेष के लिए जाना भी पड़ा तो कार्यक्रम इतना व्यस्त रहा कि बस वो कार्य ही बड़ी मुश्किल से हो पाया। घूमने-फिरने की हसरत फिलहाल भी अधूरी है। खैर, हालिया दो घटनाक्रमों के चलते जोधपुर की जो छवि देश-दुनिया में बनी है, उसको लेकर मैं बेहद व्यथित हूं। इसलिए नहीं कि मैं जोधपुर से जुड़ा हूं, मेरा उससे संबंध है, बल्कि इसलिए कि समृद्ध इतिहास और संस्कृति के धनी इस शहर की वर्तमान में जो तस्वीर बना दी गई है वह डराती है। झकझोरती है। कचोटती है। और शर्मसार भी करती है। आलम यह है कि चंद लोगों की कारगुजारियों की सजा न केवल जोधपुर के लोग बल्कि यहां का इतिहास, संस्कृति और सद्भाव भी भोग रहे हैं। यकीन मानिए आजकल जोधपुर का नाम लेने के बाद लोगों के चेहरे पर जो कुटिल मुस्कान दिखाई देती है, वो अपने आप में काफी कुछ कह देती है। बहुत दुख देती है यह मुस्कान। सच कहता हूं., अंदर ही अंदर बहुत दर्द होता है। एक चोट सी लगती है। पहले तो भंवरीदेवी और अब आसाराम प्रकरणों का प्रस्तुतिकरण नई पीढ़ी में एक अजीब सी जिज्ञासा पैदा कर रहा है। मैं टीवी पर अक्सर खेल या समाचार चैनल ही देखता हूं..। लेकिन आजकल वह देखने की भी इच्छा नहीं होती। इसलिए नहीं कि जोधपुर का नाम, बदनाम हो रहा है, उसकी छवि को बट्टा लग रहा है, बल्कि बच्चों के कारण मैंने यह सब बंद कर रखा है। कोई भी समाचार चैनल लगा लो.. सब पर जोधपुर ही जोधपुर है। बच्चे जब बार-बार जोधपुर दिखाने और बोलने का सबब पूछते हैं तो मैं निशब्द हो जाता हूं..। क्रमश: ...
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