बस यूं ही
कल भावनाओं पर काबू नहीं था। यह सब लाजिमी भी था। ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा। ना ऐसा संन्यास और ना ही ऐसी विदाई। सचमुच कल मेरे लिए सब कुछ अविस्मरणीय था। वैसे क्रिकेट के प्रति मेरा जुनून बचपन से ही रहा है। अब भी गांव जाता हूं तो बच्चों के साथ खेलने से खुद को रोक नहीं पाता हूं। यह अलग बात है कि इसके बाद तीन चार दिन तक सारा शरीर अकड़ा रहता हैं, दर्द होता है सो अलग। न जाने कितनी ही बार दर्द निवारक गोलियां खाकर काम चलाया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब नियमित अभ्यास नहीं हो पाता है। जुलाई 2000 तक तो क्रिकेट खेला हूं। उस वक्त बिना क्रिकेट खेले शायद ही कोई दिन नहीं बीतता था। जिले की शायद ही ऐसी कोई बड़ी क्रिकेट प्रतियोगिता रही होगी, जिसमें मैं नहीं खेला ..। इतना ही नहीं गांव में भी लगातार तीन साल तक बड़े पैमाने पर क्रिकेट प्रतियोगिता करवाई। कमरे की अलमारियों में सजे क्रिकेट प्रतियोगिताओं में जीते इनाम व स्मृति चिन्ह देखकर मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं। वैसे विश्वविद्यालय टीम के लिए ट्रायल देने से पहले की बात का जिक्र तो भूल ही गया था। बीए द्वितीय वर्ष के दौरान लगातार तीन माह तक अलसभोर गांव से बगड़ आया। उस वक्त मां घर के कामों में व्यस्त रहती है, इस कारण बस चाय पीकर चुपके से निकल लेता। दिन भर भूखा ही क्रिकेट खेलता। बीच-बीच में चाय एवं कुछ बिस्किट्स का दौर जरूर हो जाता, नहीं तो क्रिकेट के जुनून में भूख महसूस ही नहीं होती थी। यह क्रिकेट के प्रति समर्पण था, प्यार था, दीवानगी थी। उस दौरान खाई चोटों के निशान आज भी अतीत को जिंदा कर देते हैं। सिर से लेकर पैर तक शरीर का कोई भी अंग चोट से अछूता नहीं बचा। नाक भी टूटी, सिर भी फूटा, और तो और दोनों हाथों की लगभग सभी अंगुलियां भी टूटी हैं। क्रिकेट के दौरान लगी यह सभी चोट आज तक राज ही हैं, किसी को नहीं बताया। चुपचाप दर्द सह लेता लेकिन बताता नहीं था। मन में यही डर रहता था कि अगर बता दूंगा कि तो फिर वाले घर क्रिकेट खेलने ही नहीं देंगे। एक बार जरूर चोट ऐसी लगी थी जो छुपाई नहीं जा सकी। विकेटकीपिंग करते वक्त स्टम्पस से टकराकर गेंद सीधी नाक पर आकर लगी थी। नाक से खून बहने लगा था। कई देर तक ग्राउंड पर ही लेटा रहा। खून जब रुका उस वक्त नाक पर काफी सूजन आ चुकी थी। यूं समझ लीजिए कि नाक की साइज सामान्य से दुगुनी हो गई थी। रुमाल से नाक छिपाने का बहुत प्रयास किया लेकिन घर पर पता चल ही गया। लेकिन झूठ बोलकर अपना बचाव किया। यह कहकर कि कैच लेने के प्रयास में दौड़ रहा था और दूसरे खिलाड़ी से भिड़ गया। इसीलिए चोट लग गई।
खैर, चोट लगने के इस प्रकार के वाकये तो बहुत हैं। बात तो भावुक होने की चल रही थी। एक वह भी दौर था जब सोते-उठते-बैठते बस क्रिकेट के अलावा कुछ नहीं सूझता था। पता नहीं क्यों, उस दौरान किसी भी मैच में भारत के हारने के बाद मैं खुद को सामान्य नहीं रखा पाता था। बड़ी तकलीफ होती थी। और बिना खाना खाए ही सो जाता था। कमोबेश ऐसा ही हाल भारत की रोमांचक जीत के दौरान भी होता था। जीत की खुशी से इतना उत्साहित हो जाता कि बस कुछ खाने की इच्छा ही नहीं होती थी। इसको पागलपन कहा जाए या दीवानापन लेकिन भारत की हार-जीत के साथ यह दोनों संयोग मेरे साथ लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं। बड़ी मुश्किल से इस अनूठी आदत पर काबू पाया है फिर भी कभी-कभी भावुकता हावी हो ही जाती है। 1996 के विश्व कप के सेमीफाइनल में भारत की शर्मनाक हार तो जेहन में आज भी जिंदा है। उस मैच का एक एक-एक लम्हा याद करता हूं तो साथ में एक रोचक वाकया भी याद आता है। 13 मार्च को खेले गए उस मैच के ही दिन गांव में एक शादी थी..। बारात भी जाना था और मैच भी था। दोनों काम जरूरी थे। अब क्या किया जाए.. बारात की बस में रेडिया लेकर बैठ गया। डे-नाइट मैच था। बारात दोपहर बाद ही रवाना हुई थी, उस वक्त मैच शुरू हो चुका था। भारत ने टॉस जीतकर पहले क्षेत्ररक्षण करने का निर्णय लिया था.। क्रमश...।
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