बस यूं ही
बच्चों का आग्रह था कि पापा दिवाली को तो आपका अवकाश है। आप आफिस नहीं जाओगे, प्लीज क्रिश-३ दिखा दो। मैं मासूमों के प्यार भरे आग्रह का नकार नहीं सका। रविवार को दोपहर 2.30 बजे वाला शो देखने का समय तय किया गया लेकिन बच्चों में उत्सुकता इतनी थी कि दस बजे ही नहा धोकर तैयार हो गए। दो बजने से पहले से मेरे से कम से दर्जन बार पूछ बैठे कि पापा कितना टाइम और बचा है। वैसे शुरू में तो कार्यक्रम बच्चों को लेकर जाने का ही था, लेकिन बाद में धर्मपत्नी ने कहा कि मैं भी चलूं क्या.? मैंने कहा, आपको को किसने रोका है, आप भी चलो। वह भी तैयार हो गई। मकान मालिक का बच्चा भी बच्चों का हमउम्र ही है। उसको भी साथ ले लिया। इसके अलावा साढू जी की बिटिया भी इन दिनों सास-ससुर जी के साथ भिलाई आई हुई है। इस प्रकार कुल चार बच्चे और दो हम मियां बीवी कुल छह लोग हो गए। निर्धारित समय से करीब 20 मिनट पहले ही सिनेमाघर पहुंच गए। बच्चों की उत्सुकता एवं उत्साह देखते ही बन रहा था। आखिर सिनेमाघर का दरवाजा खुला और हम अंदर प्रवेश कर गए। दर्शक उतने नहीं थे, जितने किसी बड़े बैनर की फिल्म के शुरुआती सप्ताह में होते हैं। कम दर्शक होने के दो ही कारण मेरे समझ में आए.. या तो दिवाली का दिन होने के कारण लोगों ने फिल्म देखने में दिलचस्पी कम दिखाई या फिर दो दिन में ही फिल्म लोगों के मन से उतर गई। समीक्षक फिल्म के फिल्मांकन, हैरतअंगेज एक्शन, स्पेशल इफेक्ट्स एवं ऋतिक की सुपरमैन की छवि को लेकर कशीदे गढ़ रहे हैं लेकिन फिल्म मेरे को बच्चों के मुकाबले कम ही जमी। इतना ही नहीं फिल्म के आखिरी सीन में ऋतिक के बेटे का जन्म तथा उसका अचानक अस्पताल से गायब होना यह बताता है कि फिल्म की अगली किश्त बनना तय है। फिल्म में इतने शीशे टूटे और फूटे हैं, यकीन मानिए आज तक ऐसा किसी फिल्म में नहीं हुआ होगा।
तकनीकी प्रेमी जरूर फिल्म देखकर ताज्जुब कर सकते हैं, हैरान हो सकते हैं। फिल्म में नायक का हवा में उडऩा मेरे को किसी कॉमिक्स के पात्र की तरह नजर आया। वैज्ञानिक प्रयोगों से तैयार किए गए पात्र बेहद ही अजीबोगरीब लगे। यह बात दीगर है कि बच्चे इन सबको देखकर अन्य दर्शकों की तरह जोर-जोर से हल्ला कर रहे थे, चिल्ला रहे थे। फिल्म में एक जानकारी मिली सूरप्रथा की। इसके माध्यम से कंगना रानौत किसी की भी शक्ल धारण कर लेती है। कभी वह पुरुष बन जाती है तो कभी महिला..। बड़ी-बड़ी इमारते गिरती हैं और सुपरमैन ऋतिक उनसे जनहानि नहीं होने देता। गाडिय़ां हवा में उड़ती हैं, हेलीकॉप्टर इशारे भर से भस्म हो जाते हैं। पुलिस की राइफल की दिशा घूम जाती हैं। विलेन का किला भी बेहद रहस्यमयी नजर आया। भला विज्ञान के इस युग में इस तरह या ऐसा हो सकता है, मैं तो नहीं मानता। फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। इस तरह के फिल्मांकन से फिल्म को प्रयोगवादी व फंतासी की श्रेणी में रखा जा सकता है। इतना कुछ कहने के बाद भी मैं किसी को यह नहीं कह रहा कि फिल्म देखने योग्य नहीं है... समय बर्बाद ना करें। यह मेरी व्यक्तिगत राय है, क्योंकि बच्चे तो घर लौटने तक फिल्म में ही डूबे थे। उनकी जुबान पर फिल्म के ही किस्से थे। दो तीन बार तो पास आकर थैक्यूं भी बोल दिया। कारण पूछा तो बोले आपने इतनी अच्छी फिल्म दिखाई। मैं इतना जरूर सोच रहा था कि वही एक नायक और विलेन की कहानी.. दोनों के बीच अदावत.. थोड़ा सा सस्पेंस और थ्रिलर..और आखिर में विलेन का अंत। आखिर ऐसी कहानी तो लगभग हर भारतीय फिल्म में होती है। बस अंतर इतना है कि इस कहानी को इस अंदाज में फिल्माया गया जो दर्शकों को कुछ नएपन का अहसास जरूर करवाती है।
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