साल भर आते हैं प्रेम की दुआ मांगने वाले
श्रीगंगानगर. यहां प्रेम फलता-फूलता है। यहां प्रेम की सलामती की दुआएं मांगी जाती हैं। खास बात यह है कि यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों को नफरत भरी नजरों से नहीं देखा जाता। तभी तो यहां प्रेमी साल भर आते हैं। मत्था टेकते हैं और प्रेम की खुशहाली की मन्नते मांगते हैं। मान्यता है कि सच्चे दिल से मांगी गई मुराद यहां पूरी होती है। यह जगह भारत-पाक सरहद से बिलकुल सटी है। श्रीगंगानगर जिले की अनूपगढ़ तहसील का छोटा सा गांव बिंजौर प्रेेम की भाषा समझने वालों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। हो भी कैसे नहीं आखिर, अमर प्रेम के प्रतीक एेतिहासिक प्रेमी युगल लैला-मजनूं की मजार जो यहां हैं। हालांकि इस मजार के कोई एेतिहासिक दस्तावेज तो नहीं मिलते हैं लेकिन कई तरह की किवदंतियों में इस बात का दावा किया जाता है कि यह हकीकत वाले लैला मजनूं ही हैं। इस मजार पर वैसे तो साल भर ही आने जाने वालों का क्रम लगता रहता है लेकिन प्रत्येक वर्ष 10 से 15 जून तक लगने वाले मेले में सैकड़ों श्रद्धालु उमड़ते हैं। इनमें प्रेमी युगल व नवविवाहित जोड़ों की संख्या ही अधिक होती है। मान्यता यह भी है कि जिनके संतान नहीं होती है वे भी इस मजार पर आकर मन्नतें मांगते हैं तो वह पूरी होती है।
हिन्दू ही करते हैं मजार की देखरेख
बिंजौर गांव के पास घग्घर नदी के मुहाने पर बनी लैला-मजनूं की मजार की देखरेख हिन्दू करते हैं। बिंजौर गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है। खास बात यह है कि मजार के रखरखाव तथा वार्षिक मेले के लिए गठित कमेटी में भी कोई मुस्लिम नहीं है। मजार पर सभी धर्मों के लोग आते हैं। कमेटी के मुखिया भागसिंह बताते हैं कि गांव में कोई मुस्लिम परिवार नहीं है लेकिन मजार की देखरेख हिन्दू ही करते हैं। मजार पहले खुले में थी, अब इसके ऊपर गुम्बद बना दिया गया है। प्रवेश द्वार पर घंटी लगी है। अमूनन इस तरह की घंटियां मंदिरों के प्रवेश द्वार पर होती हैं। गुम्बद की छत में भी चार रोशनदान बनाए गए हैं। बताया जाता है कि रोशनदान छोडने के बाद ही गुम्बद तैयार हुआ अन्यथा इसके बनाने में दिक्कत आ रही थी।
अलग-अलग कहानियां
लैला-मजनूं की मजार को लेकर कई तरह के किस्से व कहानियां प्रचलन में हैं। लोग बताते हैं लैला-मजनूं पाकिस्तान के सिंध प्रांत के रहने वाले थे और दोनों की इसी जगह पर मौत हुई थी। लैला-मजनूं की मौत को लेकर भी लोग एकमत नहीं है। किसी का कहना है कि दोनों के प्रेम की जानकारी होने पर लैला के भाई ने मजनूं की हत्या करवा दी। बाद में मजनूं की तलाश में भटकती लैला उसके शव के पास पहुंंची और खुदकुशी कर ली। कुछ लोगों का कहना है कि दोनों घर से भाग थे। बाद में दर-दर की खाक छानते हुए दोनों ने भूख व प्यास के कारण साथ-साथ ही प्राण त्याग दिए। इधर लैला-मजनूं कमेटी के मुखिया भागसिंह का कहना है कि लैला-मजनूं यहां आए थे और उम्र पूरी होने के बाद सामान्य तरीके से इनकी मौत हुई। उनकी याद में ही यह मजार बनी है। मजार किसने बनवाई तथा कब बनवाई इस बात का जवाब भागसिंह के पास नहीं है लेकिन उनका कहना है कि मजार चार सौ साल पुरानी है।
पहले खुले में थी मजार
लैला मजनूं की मजार पहले घग्घर नदी के बीच में खुले में ही थी। कालांतर में इसके चार दीवारी बनी और अब गुम्बद बन चुका है। चारदिवारी के दरवाजे से मजार तक शैड भी बनाया गया है ताकि दर्शनों के लिए कतार में खड़े श्रद्धालुओं को धूप न लगे। मजार के बारे में कहा जाता है कि जब-जब घग्घर नदी में पानी आता था तो मजार को छूता नहीं था। यह मजार के दोनों तरफ से निकल जाता था। इस बात पर भी भागसिंह कहते हैं कि नदी काफी चौड़ी होती थी। पानी तीन-तीन फुट तक आता लेकिन मजार नहीं डूबी। वैसे अब तो घग्घर में पानी आना भी कम हो गया है और मजार के चारदिवारी बनने से उसके पास पानी आ भी नहीं सकता। भागसिंह ने बताया कि पहले रात को यहां अंधेरे में दिया जलता दिखाई देता था। सबसे पहले इस बात की जानकारी सेना को हुई और उसके बाद लोगों को पता चला।
श्रीगंगानगर. यहां प्रेम फलता-फूलता है। यहां प्रेम की सलामती की दुआएं मांगी जाती हैं। खास बात यह है कि यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों को नफरत भरी नजरों से नहीं देखा जाता। तभी तो यहां प्रेमी साल भर आते हैं। मत्था टेकते हैं और प्रेम की खुशहाली की मन्नते मांगते हैं। मान्यता है कि सच्चे दिल से मांगी गई मुराद यहां पूरी होती है। यह जगह भारत-पाक सरहद से बिलकुल सटी है। श्रीगंगानगर जिले की अनूपगढ़ तहसील का छोटा सा गांव बिंजौर प्रेेम की भाषा समझने वालों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। हो भी कैसे नहीं आखिर, अमर प्रेम के प्रतीक एेतिहासिक प्रेमी युगल लैला-मजनूं की मजार जो यहां हैं। हालांकि इस मजार के कोई एेतिहासिक दस्तावेज तो नहीं मिलते हैं लेकिन कई तरह की किवदंतियों में इस बात का दावा किया जाता है कि यह हकीकत वाले लैला मजनूं ही हैं। इस मजार पर वैसे तो साल भर ही आने जाने वालों का क्रम लगता रहता है लेकिन प्रत्येक वर्ष 10 से 15 जून तक लगने वाले मेले में सैकड़ों श्रद्धालु उमड़ते हैं। इनमें प्रेमी युगल व नवविवाहित जोड़ों की संख्या ही अधिक होती है। मान्यता यह भी है कि जिनके संतान नहीं होती है वे भी इस मजार पर आकर मन्नतें मांगते हैं तो वह पूरी होती है।
हिन्दू ही करते हैं मजार की देखरेख
बिंजौर गांव के पास घग्घर नदी के मुहाने पर बनी लैला-मजनूं की मजार की देखरेख हिन्दू करते हैं। बिंजौर गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है। खास बात यह है कि मजार के रखरखाव तथा वार्षिक मेले के लिए गठित कमेटी में भी कोई मुस्लिम नहीं है। मजार पर सभी धर्मों के लोग आते हैं। कमेटी के मुखिया भागसिंह बताते हैं कि गांव में कोई मुस्लिम परिवार नहीं है लेकिन मजार की देखरेख हिन्दू ही करते हैं। मजार पहले खुले में थी, अब इसके ऊपर गुम्बद बना दिया गया है। प्रवेश द्वार पर घंटी लगी है। अमूनन इस तरह की घंटियां मंदिरों के प्रवेश द्वार पर होती हैं। गुम्बद की छत में भी चार रोशनदान बनाए गए हैं। बताया जाता है कि रोशनदान छोडने के बाद ही गुम्बद तैयार हुआ अन्यथा इसके बनाने में दिक्कत आ रही थी।
अलग-अलग कहानियां
लैला-मजनूं की मजार को लेकर कई तरह के किस्से व कहानियां प्रचलन में हैं। लोग बताते हैं लैला-मजनूं पाकिस्तान के सिंध प्रांत के रहने वाले थे और दोनों की इसी जगह पर मौत हुई थी। लैला-मजनूं की मौत को लेकर भी लोग एकमत नहीं है। किसी का कहना है कि दोनों के प्रेम की जानकारी होने पर लैला के भाई ने मजनूं की हत्या करवा दी। बाद में मजनूं की तलाश में भटकती लैला उसके शव के पास पहुंंची और खुदकुशी कर ली। कुछ लोगों का कहना है कि दोनों घर से भाग थे। बाद में दर-दर की खाक छानते हुए दोनों ने भूख व प्यास के कारण साथ-साथ ही प्राण त्याग दिए। इधर लैला-मजनूं कमेटी के मुखिया भागसिंह का कहना है कि लैला-मजनूं यहां आए थे और उम्र पूरी होने के बाद सामान्य तरीके से इनकी मौत हुई। उनकी याद में ही यह मजार बनी है। मजार किसने बनवाई तथा कब बनवाई इस बात का जवाब भागसिंह के पास नहीं है लेकिन उनका कहना है कि मजार चार सौ साल पुरानी है।
पहले खुले में थी मजार
लैला मजनूं की मजार पहले घग्घर नदी के बीच में खुले में ही थी। कालांतर में इसके चार दीवारी बनी और अब गुम्बद बन चुका है। चारदिवारी के दरवाजे से मजार तक शैड भी बनाया गया है ताकि दर्शनों के लिए कतार में खड़े श्रद्धालुओं को धूप न लगे। मजार के बारे में कहा जाता है कि जब-जब घग्घर नदी में पानी आता था तो मजार को छूता नहीं था। यह मजार के दोनों तरफ से निकल जाता था। इस बात पर भी भागसिंह कहते हैं कि नदी काफी चौड़ी होती थी। पानी तीन-तीन फुट तक आता लेकिन मजार नहीं डूबी। वैसे अब तो घग्घर में पानी आना भी कम हो गया है और मजार के चारदिवारी बनने से उसके पास पानी आ भी नहीं सकता। भागसिंह ने बताया कि पहले रात को यहां अंधेरे में दिया जलता दिखाई देता था। सबसे पहले इस बात की जानकारी सेना को हुई और उसके बाद लोगों को पता चला।
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