हमें पर्यावरण की याद अक्सर तभी आती है जब बात खुद से जुड़ जाती है। हाल में मनाया गया छठ पर्व इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसके लिए बड़े पैमाने पर तालाबों की सफाई भी की गई थी। इतना ही नहीं सफाई को लेकर कुछ संगठनों की ओर से तो बड़े-बड़े दावे भी किए गए थे, लेकिन पर्यावरण एवं तालाब की चिंता करने वाले इन तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों के दावों का दम छठ पूजा के दूसरे दिन ही निकल गया। दुर्ग व भिलाई के उन सभी तालाबों पर जहां छठ पूजा की गई थी, वहां यत्र तत्र सर्वत्र बिखरी पूजन सामग्री, फूलमालाएं एवं पॉलीथीन की थैलियां बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। दुर्ग-भिलाई जैसे शहरों में पर्यावरण को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है, ऐसे में इन शहरों में तालाबों की दुर्दशा सोचनीय एवं चिंतनीय विषय है। वैसे भी तालाब अकेले दुर्ग व भिलाई की ही नहीं, बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। इन तालाबों से अतीत की कई सुनहरी कहानियां व यादें जुड़ी हैं, लेकिन इनकी दुर्दशा को लेकर न तो निगम प्रशासन गंभीर है और ना ही आमजन। गणेश पूजन, नवरात्रि आदि आयोजन पर भी बड़े पैमाने पर तालाबों में प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है, लेकिन इसके बाद के हालात पर किसी को तरस नहीं आता है। अगले साल तक फिर अवसर विशेष आने पर ही इन तालाबों की याद आती है। दुर्ग-भिलाई में बीएसपी के टाउनशिप इलाके को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो दोनों निगमों में सफाई व्यवस्था के हालात कमोबेश एक जैसे ही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब टाउनशिप इलाके में पर्यावरण को लेकर जितने गंभीरता बरती जाती है, उतनी निगम क्षेत्रों में क्यों नहीं? निगम व शासन के स्कूलों में गठित इको क्लब भी महज कागजी ही साबित हो रहे हैं, जबकि बीएसपी के स्कूलों इको क्लब न केवल उल्लेखनीय काम कर रहे हैं, बल्कि लगातार पुरस्कार भी जीत रहे हैं। रविवार को पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाएगा। दोनों शहरों में निगमों की कार्यप्रणाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यहां के जागरूक, सेवाभावी एवं उत्साही लोग अगर प्रदूषित तालाबों की सुध लें एवं उनकी देखभाल का संकल्प कर लें तो निसंदेह वे पर्यावरण बचाने की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं।
साभार - पत्रिका भिलाई के 25 नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।
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