पुरी से लौटकर-7
चार किलोमीटर चलने के बाद ऑटो वाले ने हमको मंदिर से करीब आधा किलोमीटर दूर उतार दिया। यहां से आगे भीड़ ज्यादा रहती है, इस कारण चौपहिया वाहनों का प्रवेश बंद है, हालांकि मंदिर के आगे से रास्ता है, जिस पर दुपहिया वाहन निकलते रहते हैं। ऑटो से उतरने के बाद हम दस कदम ही चले होंगे कि सफेद धोती बनने एक युवा पण्डा साथ-साथ चलने लगा। हम चुपचाप मंदिर की और बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ दुकानें सजी थी। अधिकतर पर तो शंख, पूजा सामग्री, फोटोज आदि ही रखे थे। महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की दुकानों की भी भरमार थी। चूंकि हमारी पहली प्राथमिकता मंदिर में जाकर दर्शन करना था, लिहाजा हम दुकानों पर बस सरसरी नजर भर मारते हुए ही चल रहे थे। रोशनी की चकाचौन्ध में ऐसा महसूस हो रहा था मानो दिन ही हो। पान की जुगाली करते-करते अचानक खामोशी तोड़ते हुए पण्डे ने पूछा.. पूजा करोगे..। पांच सौ रुपए में सभी पूजा करवा दूंगा। हम उसकी बात को अनसुना करते हुए बढ़े जा रहे थे। वह पांच सौ से पचास रुपए तक आ गया लेकिन हम चुप ही रहे। वह फिर भी पूछने से बाज नहीं आ रहा था।
आखिरकार कहना ही पड़ा कि हमको पूजा वूजा नहीं केवल दर्शन करने हैं और वो हम अकेले ही कर लेंगे। चलते-चलते हम मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे। मंदिर के आजू-बाजू में कई दुकानें खुली हैं, जूते व अन्य सामान रखने के लिए। पॉलिथीन की थैली में जूते डाल कर दुकान वाले को जमा करवाए। यह थैली दुकान वाला ही देता है। बदले में उसने एक टोकन थमा दिया। दुकान पर लिखी हिन्दी पढ़कर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका..। उस पर लिखा था 'जोता ष्टाण्ड'। वैसे पुरी में मैंने एक दो जगह और लिखा देखा तो यकीन हुआ कि यहां 'स' को 'ष' लिखा जाता है। रेलवे स्टेशन को भी ष्टेशन लिखा था।
खैर, जूते को जमा कराने के काम से फारिग होने के बाद प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े। मुख्य दरवाजे के बार्इं और चार नल हैं, जो निरंतर बहते रहते हैं। श्रद्धालु यहां हाथ मुंह धोते हैं। कुछ कुल्ला वगैरह करने से भी नहीं चूकते। हाथ धोने एवं कुल्ले करने का यही पानी बगल में बहता है। श्रद्धालु इसी पानी से होकर ही मंदिर की तरफ बढ़ते हैं। इस बहाने पैर भी धुल जाते हैं। श्रद्धा और आस्था का सवाल है, वरना हाथों के धोने और कुल्ले के पानी में पैर कौन देना चाहेगा। प्रवेश द्वार पर सुरक्षाकर्मियों का मजमा सा लगा था। प्रवेश द्वार के ऊपर सूचना पट्ट टंगा है। जिस पर तीन भाषाओं में निर्देश लिखे हुए हैं। उडिय़ा, हिन्दी और अंग्रेजी में। सूचना पट्ट पर निर्देशों के साथ मोटे अक्षरों में लिखा है 'हिन्दु श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर सकते हें।' यह पढ़ते ही मुझे रेल में मिले प्रगतिशील किसानों की बातें फिर याद आ गई। उन्होंने कहा था कि मंदिर में विदेशी लोग नहीं जा सकते हैं। किसानों ने बताया था कि एक बार तो इंदिरा गांधी को भी मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया था। मुझे यहां भी हिन्दी की अहिन्दी होते देख तरस आया.. हिन्दू को हिन्दु व हैं को हें जो लिखा था..। .......................जारी है।
चार किलोमीटर चलने के बाद ऑटो वाले ने हमको मंदिर से करीब आधा किलोमीटर दूर उतार दिया। यहां से आगे भीड़ ज्यादा रहती है, इस कारण चौपहिया वाहनों का प्रवेश बंद है, हालांकि मंदिर के आगे से रास्ता है, जिस पर दुपहिया वाहन निकलते रहते हैं। ऑटो से उतरने के बाद हम दस कदम ही चले होंगे कि सफेद धोती बनने एक युवा पण्डा साथ-साथ चलने लगा। हम चुपचाप मंदिर की और बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ दुकानें सजी थी। अधिकतर पर तो शंख, पूजा सामग्री, फोटोज आदि ही रखे थे। महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की दुकानों की भी भरमार थी। चूंकि हमारी पहली प्राथमिकता मंदिर में जाकर दर्शन करना था, लिहाजा हम दुकानों पर बस सरसरी नजर भर मारते हुए ही चल रहे थे। रोशनी की चकाचौन्ध में ऐसा महसूस हो रहा था मानो दिन ही हो। पान की जुगाली करते-करते अचानक खामोशी तोड़ते हुए पण्डे ने पूछा.. पूजा करोगे..। पांच सौ रुपए में सभी पूजा करवा दूंगा। हम उसकी बात को अनसुना करते हुए बढ़े जा रहे थे। वह पांच सौ से पचास रुपए तक आ गया लेकिन हम चुप ही रहे। वह फिर भी पूछने से बाज नहीं आ रहा था।
आखिरकार कहना ही पड़ा कि हमको पूजा वूजा नहीं केवल दर्शन करने हैं और वो हम अकेले ही कर लेंगे। चलते-चलते हम मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे। मंदिर के आजू-बाजू में कई दुकानें खुली हैं, जूते व अन्य सामान रखने के लिए। पॉलिथीन की थैली में जूते डाल कर दुकान वाले को जमा करवाए। यह थैली दुकान वाला ही देता है। बदले में उसने एक टोकन थमा दिया। दुकान पर लिखी हिन्दी पढ़कर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका..। उस पर लिखा था 'जोता ष्टाण्ड'। वैसे पुरी में मैंने एक दो जगह और लिखा देखा तो यकीन हुआ कि यहां 'स' को 'ष' लिखा जाता है। रेलवे स्टेशन को भी ष्टेशन लिखा था।
खैर, जूते को जमा कराने के काम से फारिग होने के बाद प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े। मुख्य दरवाजे के बार्इं और चार नल हैं, जो निरंतर बहते रहते हैं। श्रद्धालु यहां हाथ मुंह धोते हैं। कुछ कुल्ला वगैरह करने से भी नहीं चूकते। हाथ धोने एवं कुल्ले करने का यही पानी बगल में बहता है। श्रद्धालु इसी पानी से होकर ही मंदिर की तरफ बढ़ते हैं। इस बहाने पैर भी धुल जाते हैं। श्रद्धा और आस्था का सवाल है, वरना हाथों के धोने और कुल्ले के पानी में पैर कौन देना चाहेगा। प्रवेश द्वार पर सुरक्षाकर्मियों का मजमा सा लगा था। प्रवेश द्वार के ऊपर सूचना पट्ट टंगा है। जिस पर तीन भाषाओं में निर्देश लिखे हुए हैं। उडिय़ा, हिन्दी और अंग्रेजी में। सूचना पट्ट पर निर्देशों के साथ मोटे अक्षरों में लिखा है 'हिन्दु श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर सकते हें।' यह पढ़ते ही मुझे रेल में मिले प्रगतिशील किसानों की बातें फिर याद आ गई। उन्होंने कहा था कि मंदिर में विदेशी लोग नहीं जा सकते हैं। किसानों ने बताया था कि एक बार तो इंदिरा गांधी को भी मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया था। मुझे यहां भी हिन्दी की अहिन्दी होते देख तरस आया.. हिन्दू को हिन्दु व हैं को हें जो लिखा था..। .......................जारी है।
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