पुरी से लौटकर-6
वैसे पुरी का बीच साफ सुथरा है। दूर तलक देखने पर पानी नीले की बजाय हरे रंग का आभास देता है। लहरें उठती है तो पानी एकदम दूधिया नजर आता है, एकदम सफेद। अद्भुत नजारा होता है। जी करता है कि बस देखते ही रहो.. अपलक, बिना थके, बिना रुके, लेकिन इस बीच बच्चे कपड़े बदल कर आ चुके थे। इसके बाद हम सब टीले पर बनी एक चाय की दुकान पर जाकर बैठ गए..। चाय की चुस्कियों के साथ बंगाल की खाड़ी और उसमें उठने वाली लहरों को निहारने का आनंद ही कुछ और है। हां, एक बात और सागर में न केवल लहरों की आवाज का शोर है, बल्कि मछुआरों की नाव भी खूब आवाज करती हैं। बहुत पहले भोपाल के ताल में नौका विहार किया था, तब ऐसी नाव नहीं देखी थी। मतलब जनरेटर से चलने वाली। उस वक्त तो लगभग नावें चप्पू से ही चलती थी, लेकिन आजकल नाव के एक तरफ जनरेटर लगा दिया जाता है। उसके पीछे एक अगजेस्ट फेन लगाया जाता है, जो पानी के अंदर डूबा रहता है। पंखें के तेजी से घूमने से नाव अपने आप ही चलती है। वैसे यह एक तरह का जुगाड़ है। नाव जैसे ही किनारे पर आती है, जरनेटर के पंखें को घुमाकर अंदर कर लिया जाता है,क्योंकि उसके रेत में लगकर टूटने या खराब होने का भय रहता है। इस बीच चाय खत्म हो चुकी थी। लेकिन दोनों पैर गड्ढ़ा बनाने में लगे थे। ऊपर से सूखी दिखाई देने वाली मिट्टी हटाने के बाद नीचे गीली मिट्टी दिखाई देने लगी। एक जुनून सा सवार था कि जल्दी से पानी निकले। इस बीच एक सीप के घर्षण के पैर के अंगुली पर खरोंच भी आई लेकिन उसको नजरअंदाज करते हुए लगा रहा, इसी उम्मीद के साथ शायद पानी आ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चे एवं धर्मपत्नी जिद करने लगे थे, शाम को मंदिर जाना था। आखिरकार उनके आग्रह को स्वीकार कर गड्ढे से पानी निकालने के प्रयास पर विराम लगा दिया। शरीर पर चिपकी मिट्टी जैसे-जैसे सूख रही थी, वैसे-वैसे अपने आप झाड़ भी रही थी। होटल लौटने तक हल्का सा अंधेरा हो चुका था। होटल आने के बाद धर्मपत्नी बाथरूप में घुस गई थी लेकिन मैं यह सोच कर और यह देखने के लिए नहीं नहाया कि सागर के पानी से त्वचा फटती है या नहीं? मेरा सोचना सही साबित हुआ। ना तो किसी तरह की खुजली हुई और ना ही त्वचा फटी। खैर, देर शाम होटल से बाहर खड़े ऑटो वाले मंदिर तक जाने के लिए मोलभाव तय करने में जुट गया। होटल से मंदिर की यही कोई चार या पांच किलोमीटर की दूरी थी, ऑटोवाले ने 70 रुपए सिर्फ ले जाने के मांगे। राजू नाम था ऑटो वाले का। कह रहा था, साहब आते वक्त भी मैं भी आपको ले आऊंगा। आप दर्शन करने के बाद फोन कर देना। देखने में बिलकुल सीधा एवं भोला सा था राजू। उसकी सूरत भी कुछ ऐसी थी कि ना चाहते हुए भी उस पर यकीन करना पड़ा। इतना ही नहीं राजू से अगले दिन के बुकिंग भी फाइनल कर दी। यह शायद उसके व्यवहार का ही नतीजा था। खैर, हम सब ऑटो में बैठकर जगन्नाथ मंदिर के दर्शन के लिए रवाना हुए। ..... जारी है।
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