पुरी से लौटकर-1
नवम्बर माह में पुरी धाम की यात्रा का कार्यक्रम तय करने से लेकर 23 दिसम्बर को पुरी धाम रवाना होने और वहां पहुंचने तक बस इतनी ही जानकारी थी कि पुरी में जगन्नाथ जी का प्राचीन, ऐतिहासिक व भव्य मंदिर है और वह देश के चार धामों में से एक है। इसके अलावा वहां बंगाल की खाड़ी के किनारे बीच का विहंगम नजारा है, जहां पर्यटक मौज मस्ती एवं सैर सपाट के लिए आते हैं। वैसे भी रेल मार्ग से भिलाई से पुरी की दूरी करीब आठ सौ किलोमीटर है। पुरी रवाना होने से पहले वहां जा चुके कुछ साथियों ने अपने अनुभव के साथ-साथ वहां के प्रमुख स्थलों के बारे में बताया, लेकिन वहां की सबसे अहम बात बताना भूल गए। यह तो भला हो उन चार प्रगतिशील किसानों को जो पुरी जाते समय संयोग से मेरे ही डिब्बे में आकर बैठ गए थे। किसी प्रशिक्षण के चलते ये किसान कटक जा रहे थे। उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर देर तक चलता रहा। पुरी के बारे में कई बातें विस्तार से बताई, जो बाद में वाकई मददगार साबित हुई। मंदिर में दर्शन कैसे करने हैं? कहां ठहरना हैं? समुद्र कैसे जाना है? किस से बात करनी है और किससे नहीं. आदि-आदि..। खैर, प्रगतिशील किसानों का फीडबैक बहुत काम आया लेकिन किसी ने कहा है ना कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ (धक्के) खाने से आती है। अब तो मैं भी पुरी के बारे में काफी कुछ जान गया। होटल किराया, ऑटो किराया, भोजनालय, मंदिर दर्शन, रुट चार्ट आदि..। दो दिन के सफर और दो दिन वहां रुकने के बाद शुक्रवार दोपहर को मैं भिलाई लौट आया लेकिन पुरी की सूरत एवं सीरत से जुड़े कई संस्मरण ऐसे हैं, जो न केवल मेरे लिए बल्कि पुरी जाने वाले प्रत्येक पर्यटक/ यात्री के लिए न केवल रोचक बल्कि सच्चाई से पर्दा हटाकर वास्तविकता से रूबरू करवाने और आंख खोलने में बेहद कारगार साबित होंगे। वैसे तो संस्मरण का शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है लेकिन यकीन मानिए पुरी से लौटने वाले कमोबेश हर पर्यटक/ यात्री के जेहन में यह बात जरूर रहती है कि पुरी के जगन्नाथ, जग के नाथ ना होकर पैसों के नाथ हैं। नगद नारायण भी कहें तो भी चलेगा। यहां पर भगवान और भक्त के बीच में पुजारी मतलब पण्डा नामक एक ऐसा शख्स है जो कथित रूप से सेतु का काम करता है लेकिन कदम-कदम पर इसकी कीमत वसूलता है। धर्म के नाम पर, अनहोनी के नाम पर.. कुछ अनिष्ट का भय दिखाकर..। और भी कई तरह की औपचारिकताएं...साथ में यह चेतावनी भी कि अगर ऐसा नहीं किया तो यात्रा का प्रयोजन सफल नहीं होगा..। और धर्मभीरु लोग.. चुपचाप किसी अनुशासित बच्चे की तरह पण्डों की हां में हां मिलाते हुए अपनी जेबें ढीली करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।.... जारी है।
नवम्बर माह में पुरी धाम की यात्रा का कार्यक्रम तय करने से लेकर 23 दिसम्बर को पुरी धाम रवाना होने और वहां पहुंचने तक बस इतनी ही जानकारी थी कि पुरी में जगन्नाथ जी का प्राचीन, ऐतिहासिक व भव्य मंदिर है और वह देश के चार धामों में से एक है। इसके अलावा वहां बंगाल की खाड़ी के किनारे बीच का विहंगम नजारा है, जहां पर्यटक मौज मस्ती एवं सैर सपाट के लिए आते हैं। वैसे भी रेल मार्ग से भिलाई से पुरी की दूरी करीब आठ सौ किलोमीटर है। पुरी रवाना होने से पहले वहां जा चुके कुछ साथियों ने अपने अनुभव के साथ-साथ वहां के प्रमुख स्थलों के बारे में बताया, लेकिन वहां की सबसे अहम बात बताना भूल गए। यह तो भला हो उन चार प्रगतिशील किसानों को जो पुरी जाते समय संयोग से मेरे ही डिब्बे में आकर बैठ गए थे। किसी प्रशिक्षण के चलते ये किसान कटक जा रहे थे। उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर देर तक चलता रहा। पुरी के बारे में कई बातें विस्तार से बताई, जो बाद में वाकई मददगार साबित हुई। मंदिर में दर्शन कैसे करने हैं? कहां ठहरना हैं? समुद्र कैसे जाना है? किस से बात करनी है और किससे नहीं. आदि-आदि..। खैर, प्रगतिशील किसानों का फीडबैक बहुत काम आया लेकिन किसी ने कहा है ना कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ (धक्के) खाने से आती है। अब तो मैं भी पुरी के बारे में काफी कुछ जान गया। होटल किराया, ऑटो किराया, भोजनालय, मंदिर दर्शन, रुट चार्ट आदि..। दो दिन के सफर और दो दिन वहां रुकने के बाद शुक्रवार दोपहर को मैं भिलाई लौट आया लेकिन पुरी की सूरत एवं सीरत से जुड़े कई संस्मरण ऐसे हैं, जो न केवल मेरे लिए बल्कि पुरी जाने वाले प्रत्येक पर्यटक/ यात्री के लिए न केवल रोचक बल्कि सच्चाई से पर्दा हटाकर वास्तविकता से रूबरू करवाने और आंख खोलने में बेहद कारगार साबित होंगे। वैसे तो संस्मरण का शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है लेकिन यकीन मानिए पुरी से लौटने वाले कमोबेश हर पर्यटक/ यात्री के जेहन में यह बात जरूर रहती है कि पुरी के जगन्नाथ, जग के नाथ ना होकर पैसों के नाथ हैं। नगद नारायण भी कहें तो भी चलेगा। यहां पर भगवान और भक्त के बीच में पुजारी मतलब पण्डा नामक एक ऐसा शख्स है जो कथित रूप से सेतु का काम करता है लेकिन कदम-कदम पर इसकी कीमत वसूलता है। धर्म के नाम पर, अनहोनी के नाम पर.. कुछ अनिष्ट का भय दिखाकर..। और भी कई तरह की औपचारिकताएं...साथ में यह चेतावनी भी कि अगर ऐसा नहीं किया तो यात्रा का प्रयोजन सफल नहीं होगा..। और धर्मभीरु लोग.. चुपचाप किसी अनुशासित बच्चे की तरह पण्डों की हां में हां मिलाते हुए अपनी जेबें ढीली करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।.... जारी है।
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