Monday, September 30, 2013

17 साल बाद


बस यूं ही


शीर्षक पढ़कर हो सकता है जेहन में कई तरह के ख्याल आए, दरअसल, यह सारी कवायद उस फोटो के लिए है, जो कल फेसबुक वॉल पर चस्पा की थी। फोटो के बारे में लिखने का विचार उस पर आए कमेंटस को पढ़कर आया। एक से बढ़कर एक कमेंट्स। मैंने हल्का सा उल्लेख भी किया था कि हर कमेंट्स किसी धरोहर से कम नहीं है और कमेंट्स के पीछे कोई ना कोई कहानी जुड़ी है। खैर, कमेंट्स आने का सिलसिला बदस्तूर जारी है, लेकिन आज थोड़ा फुरसत में था तो सोच लिया क्यों ना इस पर कुछ लिखा जाए...। वैसे कमेंट्स की कहानी भी कम रोचक नहीं है। कौन कैसे एवं किस अंदाज में सोचता है, इससे यह भी पता चलता है। किसी कमेंट्स को देखकर चेहरे पर मुस्कान आई तो किसी को देखकर अतीत जिंदा हो गया। कुछ तो ऐसे थे कि पढ़कर अकेला ही हंसने लगा। सबसे पहले बात हंसी वाले कमेंट्स से करता हूं..। झुंझुनू से लोकेन्द्र सिंह ने कहा 'दादा बटुआ दो तीन साल में बदल ही लिया करो। ' कुछ तरह का कमेंट्स श्रीगंगानगर के साथी संदीप शर्मा ने किया। वो लिखते हैं ' 17 साल से एक ही पर्स। बड़ी नाइंसाफी है। वैसे फोटो में 'कच्चा कला' लग रहे हो।' यकीन मानिए इन दोनों कमेंट्स को लिखते-लिखते हंसी छूट रही है। दोनों साथियों की पर्स के बारे में जिज्ञासा स्वभाविक है, जबकि हकीकत यह है कि पर्स समय के साथ बदलते रहे हैं। लेकिन उनमें कुछ कागजात और कुछ फोटो भी हैं, जो नया पर्स लेते ही सबसे पहले डाल लेता हूं। यह बात दीगर है कि बाद में विजिटिंग कार्ड वगैरह से पर्स मोटा हो जाता है और फोटो नेपथ्य में चली जाती है। कल वो सामने आई तो सोचा क्यों ना इसको फेसबुक पर सभी के साथ साझा कर लूं। बस यही सोचकर लगाई थी। वैसे पर्स 17 साल पुराना नहीं है। हंसी तो 'कच्चा कला' को लेकर भी है। कच्ची कली के बारे में तो सुना था। आज नया नामकरण हो गया। खैर, संदीप भाई का यह प्रयोगवादी नामकरण बेहद रोचक लगा। सर्वाधिक खुशी तो छात्र जीवन के साथियों के कमेंट्स को देखकर हुई, सचमुच अतीत जिंदा हो गया। कमेंट्स पढ़ते-पढ़ते फ्लेश बैक में चला गया।
बगड़ के राजसिंह जी राठौड़ लिखते हैं. 'तब तो हमारी याद जरूर आई होगी..।' इसके बाद बगड़ के साथी अजय कानोडिया कहते 'बगड़ के बिना महेन्द्र जी की स्टोरी अधूरी है।' इसके बाद बगड़ के ही अशोक राठौड़, जिनका ननिहाल मेरे गांव में है लिखते हैं 'वाह मामाश्री, पुरानी याद ताजा हो गई।' बगड़ के साथी संजय दाधीच कहते हैं 'द क्रिकेटर ऑफ पटवारी कॉलेज 1995-1999' इसी से मिलते जुलते कमेंट्स दो और साथियों के आए। बगड़ के भानजे और चिड़ावा के पास अडू्का गांव के रहने वाले और मेरे अजीज नीरज शेखावत ने दो बार कमेंट्स किया है। पहली बार उन्होंने लिखा 'दादोभाई आपका वो चैलेंज याद आ गया।' दूसरी बार कहा कि 'मेरे दादोभाई एक शानदार प्रतिभा के धनी, जो हमेशा से मेरे मार्गदर्शक रहे हैं। आई मिस यू महेन्द्र जी।' कुछ इसी अंदाज में एडवोकेट अर्जुनसिंह जी नरुका लिखते हैं 'यह फोटो देखकर आपकी पुरानी याद ताजा हो गई है' नरुका जी भी मूल रूप से चिड़ावा के पास बामनवास के रहने वाले हैं और हनुमानगढ़ जिले के पीलीबंगा कस्बे में वकालत के पेशे से जुड़े हुए हैं। वैसे तो आप सभी साथियों से फेसबुक और फोन के माध्यम से लगातार सम्पर्क में हूं लेकिन वो जमाना याद आ गया, जिसकी कल्पना मात्र से ही शरीर में रोमांच भर उठता है। वैसे बगड़ तो मेरे लिए वो जगह है जो मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहेगा। बगड़ के बारे में मैं अपने ब्लॉग http://khabarnavish.blogspot.in/2011/06/blog-post.html में पहले भी लिख चुका हूं।
पत्रकार साथी रमेश जी सरार्फ ने लिखा है.. 'फूल खिलता है, खिलकर बिखर जाता है, यादें रह जाती हैं लेकिन वक्त गुजर जाता है।' सचमुच वक्त का पता ही नहीं चलता। वह कितनी जल्दी गुजर जाता है। हम चाह कर भी न तो उसको रोक पाते हैं और ना ही उसकी रफ्तार धीमी कर पाते हैं। वक्त के आगे के हम सब बेबस हैं, लाचार हैं। उसके आगे कोई जोर नहीं चलता है। सिवाय पुरानी यादों को ताजा करने के। इसी तरह की भावना साथी राज जी बिजारणिया ने व्यक्त की। वे कहते हैं 'बचपन, जवानी, बुढापा गुजर जाएगा, यादगार के लिए सिर्फ फोटो ही रह जाएगा।'यकीनन यह फोटो ही हैं, जो हमारे हंसने और मुस्कुराने का माध्यम बन पाती हैं। उनको देखना और अतीत को याद करना कितना सुकून देता है, उसे शब्दों में बांधना मुश्किल है। इसके बाद भिलाई के साथी साहित्यकार शिवनाथ जी शुक्ला ने तो तीन शब्दों में गागर में सागर भर दिया। वे कहते हैं 'मनमोहक रंगरुट सा।' मनमोहक हूं या नहीं यह तो शुक्ला जी जानें लेकिन सेना मेंजाने की हसरत तो बचपन से ही थी। लेकिन उसी जोश एवं जज्बे के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में डटा हुआ हूं, लिहाजा रंगरुट से तुलना करना न्यायसंगत नजर आता है।
पत्रकार साथी सिकंदर पारीक लिखते हैं 'केरपुरा को होनहार टाबर।' सच में मुझे मेरे गांव पर गर्व है। http://khabarnavish.blogspot.in/2011/06/blog-post_16.html.मेरा गांव संभवत: .जिले का इकलौता गांव है जहां के लोग हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। वैसे गांव का नाम केरपुरा नहीं केहरपुरा कलां है पारीक जी। मेरे ही गांव के बड़े भाई जो सेना में सूबेदार हैं राजेन्द्रसिंह जी कहते हैं ' भाई इस फोटो को तो मैं भी पहचान जाता बट अभी वाली फोटो काफी चेंजिंग हो गया, इसलिए नहीं पहचानता था।'अब देखिए, करीब दस दिन पहले ही राजेन्द्रसिंह जी मेरे से फेसबुक पर जुड़े लेकिन जुडऩे के बाद कहा कि वो मेरे को जानते नहीं हैं। बाद में परिचय देने पर जान गए थे। संभवत: उन्होंने तभी ऐसा लिखा। भिलाई के अमित सोनी 'स्मार्ट बॉय' की संज्ञा देते हैं तो फिजी की रेनुका जी जिज्ञाववश 'इज देट यू ब्रॉदर' पूछ बैठती हैं। झुंझुनू के अशोक जी शर्मा 'यंग मैन' से नवाजते हैं तो साथी रामनिवास सोनी जी 'कलरफुल दुनिया है जी' कहकर शायद श्वेत-श्याम फोटो लगाने पर उलहाना दे रहे हैं। फोटोग्राफर जो हैं। इसी प्रकार के हनुमानगढ़ के महेन्द्र चौधरी, श्रीगंगानगर के लक्ष्मीकांत शर्मा, हनुमानगढ़ के सुनील गिल्होत्रा, झुंझुनू के तरुण भारतीय, हनुमानगढ़ के तुषार लालवानी ने भी फोटो पर कमेंट्स किए हैं। मैं उन सबका भी आभारी हूं। बहरहाल, लाइक का आंकड़ा तो 60 से ऊपर पहुंच चुका हैं, उन सभी का भी तहेदिल से शुक्रिया। आखिर में एक बात और अगर उनका जिक्र नहीं किया तो जितने भी शादीशुदा साथी हैं वो बखूबी जानते हैं। मतलब मेरी धर्मपत्नी निर्मल राठौड़। उन्होंने भी अंग्रेजी में कुछ लिखा है। मेरे से ज्यादा पढ़ी लिखी जो ठहरीं।
आप सभी के स्नेह का मैं बेहद कायल हूं। मुझे आप सब के स्नेह पर फख्र है। आपका साथ मेरे लिए अनमोल है। पुन: सभी का धन्यवाद। दिल से आभार।

Monday, September 23, 2013

बच्चों की बात


बस यूं ही

 
अभी दो दिन पहले की ही बात है। सुबह घर से कार्यालय पहुंचा ही था कि श्रीमती का फोन आ गया। मोबाइल पर श्रीमती के नम्बर देखकर चौंक गया। रिसीव करने से पहले ख्याल आया कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया, अभी तो घर से आया था और पीछे-पीछे फोन आ गया। खैर,फोन अटेण्ड किया तो श्रीमती की आवाज सुनकर लगा कि वह बड़ी उत्साहित है। मैंने पूछा बोलो, क्या काम आ गया, तो बोली मैंने वो अखबार की रद्दी बेच दी है। मैंने कहा ठीक है लेकिन इसमें बताने की बात क्या है। इस वह बोली बात तो बताने वाली ही है, इसलिए तो फोन किया है। मैंने कहा कि अब बता दो कि आखिर ऐसा क्या है। उसने कहा कि आपने रद्दी आठ रुपए किलो के हिसाब से बेची थी जबकि उसने दस रुपए किलो के हिसाब से बेची है। मैंने उसको धन्यवाद दिया और अच्छा किया कहकर फोन काट दिया।
इसके बाद कार्यालय से दैनिक काम निबटाकर बच्चों को लेकर घर पहुंचा। बस्ता सोफे पर फेंकने के बाद योगराज कमरे की ओर दौड़ा। अंदर जाते ही वह जोर से बोला, 'अरे, मम्मा, अपने कमरे के अखबार कौन ले गया।' श्रीमती रसोई में व्यस्त थी, लिहाजा योगराज ने यही सवाल मेरे से पूछा। चूंकि मैं तो समूचे घटनाक्रम से वाकिफ था, इसलिए जानबूझाकर अनजान बना रहा है। जवाब ना पाकर योगराज की बेचैनी स्वाभाविक थी। वह मेरे पास आया और फिर बोला, 'अरे पापा कब से पूछ रहा हूं, बताओ ना, अखबार कहां गए? ' मैंने कहा बेटे अखबार तो आज चोरी हो गए। जवाब सुनकर वह छोटे भाई एकलव्य (चीकू) के पास गया और बोला 'चीकू, देख अपने अखबार चोरी हो गए।'
चीकू ने यह सुना तो वह भी दौड़कर कमरे में गया। इसके बाद दोनों भाई सोचने वाले अंदाज में बाहर आए। दोनों सोच में डूबे थे कि आखिर यह सब कैसे हो गया। अचानक योगराज बोला 'अरे, पापा अखबार चोरी हो गए,यह तो ठीक है लेकिन चोरों ने अपने को बताया क्यों नहीं?' मैं योगराज के भोलेपन पर मंद मंद मुस्कुरा ही रहा था कि हाजिरजवाब चीकू जल्दी से बोला.. 'अरे भाई, चोर कोई बताकर चोरी थोड़े ही करेगा।' चीकू का जवाब सुनते ही मैं हंस पड़ा। श्रीमती भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी। सचमुच बच्चों का अपना संसार है। वे बड़े ही जिज्ञासु होते हैं। उनके सवाल जितने अजीब व रोचक होते हैं तो जवाब उतने ही दिलचस्प। और एक बात और पोस्ट के साथ लगाई यह गई इस फोटो की कहानी भी बड़ी रोचक है। एक दिन स्कूल से आने के बाद दोनों भाई बाथरुम में जाकर खेलने लगे। इसी दौरान श्रीमती ने चुपके से आकर मेरे कान में कहा कि देखो बच्चे क्या कर रहे हैं। मैंने जाकर देखा तो हंसे बिना नहीं रह सका। दोनों अपने स्कूल के सफेद जूतों को धोने में जूटे थे। दोनों की यह गतिविधि मैंने मोबाइल मैं कैद कर ली। आज बच्चों के बारे में लिखने का ख्याल आया तो इस फोटो की भी याद आ गई।

कमाल का धमाल


बस यूं ही

लालों का कमाल,
मचा रहे धमाल,
पार्टी है बदहाल,
विपक्ष तो खुशहाल।

जी का जंजाल,
सब कुछ निढाल,
बुरा हुआ हाल,
चुनावी है साल।

हो गए हलाल,
रह गया मलाल,
समय का काल,
छोड़ गया सवाल।

थमता नहीं बवाल,
सियासत में उबाल,
तोड़ कोई निकाल,
काली लगती दाल।

Tuesday, September 17, 2013

सपनों की सियासत...4


बस यूं ही

 
सपनों की सियायत कम होने का नाम नहीं ले रही है। गाहे-बगाहे सपनों से जुड़ा कोई न कोई बयान आ ही जाता है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जाएंगे, वैसे-वैसे सपनों की फेहरिस्त और भी लम्बी होती जाएगी। ऐसे-ऐसे सपने जो आजादी के बाद से लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में दिखाए जाते रहे हैं। सपनों की इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए मंगलवार को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी राजस्थान के बारां में सपने दिखाए। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा कि वे चाहते हैं कि देश का सबसे बड़ा सपना देश के गरीब को देखना चाहिए। वे चाहते हैं कि मजूदर का बेटा हवाई जहाज में चढऩे का सपना देखे। वैसे, सपना तो हर कोई देखता है, उस पर न तो कोई टैक्स लगता है और ना ही किसी तरह की पाबंदी है, लेकिन सपने गरीब ही देखे और वह भी सबसे बड़ा सपना.. यह तो सोचने वाली बात है। उनका यह बड़ा सपना पूरा होगा या नहीं यह तो बाद की बात है, लेकिन मेरा अनुभव तो यही कहता है कि मजदूर या गरीब व्यक्ति के हवाई जहाज में चढऩे से उन पर कर्जा जरूर चढ़ जाता है। यकीन नहीं है तो शेखावाटी के उन लोगों से पूछिए जिनके परिजन रोजगार की तलाश में अरब देशों में गए हुए हैं। अगर हवाई जहाज में चढऩे व उतरने मात्र से ही सपना साकार हो जाता तो फिर क्यों वे अपने वतन से दूर जाने को मजबूर होते। क्या यहीं पर कमा खा नहीं लेते? हां इतना जरूर है कि केवल हवाई जहाज में चढ़कर, उतरने का ही सपना है तो, मेरे हिसाब से उसे पूरा करना कोई मुश्किल काम नहीं है। वैसे भी देश में कई जगह संग्रहालयों में पुराने हवाई जहाज खड़े हैं। राहुल के निर्देश पर पार्टी गरीबों को यह सुअवसर उपलब्ध करवा सकती है। दरअसल, यहां हवाई जहाज में चढऩे से तात्पर्य प्रत्येक आदमी को रोजगार मिलने से है। रोजगार से आदमी इतना सक्षम और समर्थ हो जाएगा कि हवाई जहाज में बैठना उसके लिए मुश्किल काम नहीं होगा। तभी तो राहुल ने कहा भी कि उनकी पार्टी हर आदमी को रोजगार मुहैया करानी चाहती है। अरे भई, करवाओ ना.. किसने रोका है। स्वागत है। लेकिन सिर्फ कह भर देने से ही रोजगार नहीं मिलने वाला। यह देश आजादी से लेकर आज तक कई तरह के संकटों से जूझता रहा है। उनमें बेरोजगारी भी बड़ी समस्या है। हर साल शिक्षित व प्रशिक्षित बेरोजगारी की फौज बढ़ती ही जा रही है। यह सब सपने दिखाने का कमाल नहीं तो क्या है? आजादी के समय से ही रोजगार देने और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में सोच लिया जाता तो आज ऐसे हालात शायद पैदा ही नहीं होते। बहरहाल, किसी गरीब और मजबूर का सपना पूरा होता है तो हम सब के लिए इससे बड़ी गर्व और गौरव की बात कोई और हो ही नहीं सकती। लेकिन सपने पूरे होने में संशय इसलिए है, क्योंकि देश में अगर गरीब और मजूदर रहेंगे ही नहीं तो फिर सपने देखेगा कौन? देश में वो ही तो एकमात्र ऐसा वर्ग है, जिसको सर्वाधिक सपने आज तक दिखाए गए हैं। भले ही इस वर्ग को दो जून की रोटी ठीक से मय्यसर ना हो लेकिन सपने तो देखे ही जा सकते हैं ना।                                                                                           जारी है..।

Monday, September 16, 2013

सपनों की सियासत...3


बस यूं ही

 
'मैं सपने नहीं देखता, क्योंकि सपने देखने वाला बर्बाद हो जाता है।' 'हमें सशक्त सरकार और सशक्त नेता के सपने को पूरा करना है।' पढऩे में यह दो साधारण वाक्य ही हैं लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। याद कीजिए यह दोनों बयान एक ही व्यक्ति के हैं। अंतर महज इतना सा है कि पहला बयान पखवाड़े भर पहले का है जबकि दूसरा एकदम ताजातरीन है और रविवार को ही आया है। दोनों बयानों में विरोधाभास है या समानता, यह आम आदमी भी आसानी से समझ सकता है। एक तरफ जनता को सपना दिखाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ सपना देखने से होने वाले संभावित खतरे से आगाह भी किया जा रहा है। हां, इतना जरूर है कि दोनों बयान जारी हुए तब हालात जुदा-जुदा थे। एक बयान उस वक्त का है जब तस्वीर साफ होने में कुछ संशय था। उस पर विरोध के बादल मंडरा रहे थे। दूसरा बयान तस्वीर साफ होने के बाद का है। भले ही विरोध को दरकिनार कर दिया गया हो। इससे इतना तो तय हो गया कि परिस्थितियों के हिसाब से सपने की परिभाषा भी बदल जाती है। सपना अब व्यक्तिगत नहीं सामूहिक हो गया है, मतलब सब मिलकर सपना देखेंगे और फिर...सपने देखने वाला...हो गया.. तो, राम-राम, भगवान सलामत रखे। खैर, मेरे को तो दोनों बयान विरोधाभासी लगे। बयानों का इस तरह यू टर्न देखकर अब पक्का यकीन हो गया कि राजनीति में सब कुछ स्थायी क्यों नहीं होता है। महोब्बत और जंग की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज क्यों है। यह इसलिए क्योंकि यहां न तो कोई स्थायी मित्र होता है और ना ही स्थायी दुश्मन। परिस्थितियों के हिसाब से सब कुछ बदलता रहता है। तभी तो राजनीति करने वाले या इसमें रुचि रखने वाले अवसरवादिता से परहेज नहीं करते। बहरहाल, बयानों के इस तरह बाल की खाल निकालने की तर्ज पर भावार्थ तलाशने के कारण मेरे पर किसी विचारधारा विशेष का समर्थन करने जैसे गंभीर आरोप लगने लाजिमी हैं। वैसे भी मेरे विचारों से सभी संतुष्ट हों यह भी तो जरूरी नहीं है और हो भी नहीं सकते। हाथ की पांचों अंगुलियां ही बराबर नहीं होती तो फिर विचारधारा में समानता की कल्पना करना ही बेमानी है। खैर, यहां पर आलोचना किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होकर उन दो बयानों की है, जो देश में खासे चर्चित हो गए हैं। वैसे मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि हमारे देश में सपनों का कारोबार है, यहां सपने बिकते हैं। इसलिए सियासत में सपने देखे या दिखाए नहीं जाएंगे तो फिर सत्ता रूपी सफलता की सीढ़ी चढऩा असंभव ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा। बस देखने की बात यह है कि सपने पूरे किस तरह से होते हैं। क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मेहनत जरूरी है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि, जिसने कल्पना के महल नहीं बनाए उसे वास्तविक महल भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। स्वामी जी के कहने का आशय यही था कि सपने देखने चाहिए लेकिन उनको पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत भी जरूरी है। लेकिन गौर करने लायक बात यह भी है कि सपने टूटने का ग्राफ सियासत में ही ज्यादा है। सपने जब टूटते हैं तो फिर गोपालदास नीरज याद आते हैं। और याद आता है उनका वह कालजयी गीत, जिसमें उन्होंने कहा है...
स्वपन झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।
वाकई सियासत में जब सपने टूट जाते हैं तो गुबार ही हिस्से में आता है.। जारी है...

सपनों की सियासत...2


बस यूं ही

 
सियासत में इसी तरह के सपने दिखाए जाते हैं। आजादी से लेकर आज तक न जाने कितने ही सपने दिखाए गए। कोई हिसाब नहीं है। बिलकुल बेहिसाब। सपने दिखाते-दिखाते हालत यह हो गई है कि अब बात सपने देखें जाए या नहीं, इस विषय पर होने लगी है। तभी तो आजकल सपने पर बहस चल रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाल ही में दिए गए सपनों से संबंधित बयानों की जोरदार समीक्षा हो रही है। मोदी कहते हैं, वे सपने नहीं देखते। सपना देखने वाला बर्बाद हो जाता है। राहुल कहते हैं, आपके (जनता के) सपनों को मैं अपना सपना बनाना चाहता हूं.। मैं जनता के हर सपने को पूरा करना चाहता हूं। दोनों बयान कितने विरोधाभासी हैं। दोनों में कहीं कोई समानता नजर नहीं आती है। बिलकुल एक दूसरे के उलट हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, दोनों परस्पर विरोधी दलों के नेता जो ठहरे। इसके बावजूद मेरे को दोनों नेताओं के बयान में एक समानता दिखाई देती है। समानता इस बात की कि दोनों नेताओं के बयान पार्टी लाइन की बजाय व्यक्तिगत ज्यादा नजर आते हैं। यह बात अलग है कि दोनों ही दलों ने बयानों पर न तो कोई प्रतिक्रिया जाहिर है की और ना ही इनको व्यक्तिगत मामला बताकर अपना पल्ला झाड़ा है। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि इन दोनों दिग्गज नेताओं के बयानों को चुनौती देने का काम कौन करे। यही बयान कोई छुटभैया दे देता तो यकीन मानिए, उससे स्पष्टीकरण मांग लिया जाता। भविष्य में इस तरह के बयान देने पर पाबंदी तक भी लग सकती थी। खैर, मोदी का ना हो लेकिन उनकी पार्टी का सपना है कि मोदी प्रधानमंत्री बने। इधर राहुल हर आदमी का सपना सच करने की कह रहे हैं कि जबकि उनकी पार्टी ने न जाने आज तक कितनों के सपनों को तोड़ा है। इसलिए मेरी नजर में तो दोनों बयान व्यक्तिगत ही हैं और इधर दोनों दल मजबूर हैं। बयानों के समर्थन हां में हां मिलाने या मौन रहने पर। चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते। कोई चारा भी नहीं है।
बहरहाल, देश में सपना आज भी प्रासंगिक है। सपना हमारे देश का एक तरह से यथार्थ बन गया है। देश में सपने का कारोबार है। यहां सपने बिकते हैं। यहां सपनों के सौदागर हैं। साहित्य से लेकर फिल्म तक हर जगह सपना मौजूं हैं। कॅरियर बनाने तक में सपना देखा जाता है। हर आम से लेकर खास तक सपना जुड़ा है लेकिन इसके हर वर्ग के हिसाब से मायने अलग हैं। दरअसल, सपना हमारे देश में एक बहुत बड़ा मुद्दा है। भ्रष्टाचार, महंगाई, साम्प्रदायिकता, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि इन सबसे दीगर लेकिन सबसे कारगर। जिस प्रकार धर्म का राजनीति से घालमेल करके फायदा उठाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा मुफीद तो सपना है। इसलिए सपना सियासत का सबसे कारगर हथियार है। सफलता पाने की पहली कड़ी ही सपना है। बिना सपने के सफलता मिलना संभव भी नहीं है। जारी है..

सपनों की सियासत...1


बस यूं ही

 
आजकल बेहद उधेड़बुन में हूं और असमंजस में भी। सोते-उठते जेहन में एक ही सवाल कौंधता है... सपने देखने चाहिए या नहीं...। बहुत दिमाग खपा लिया लेकिन फिलहाल किसी फैसले पर नहीं पहुंचा हूं..। कई बार तो मन ही मन प्रण ले लेता हूं कि कल से सपने के बारे में नहीं सोचूंगा, लेकिन कोई न कोई बात ऐसी निकल ही जाती है कि सपने का सवाल फिर उठ खड़ा होता है। अंदर ही अंदर विचारों का प्रवाह दौड़ता है। कभी कभी तो यह प्रवाह इतना उग्र हो जाता है कि विचारों में द्वंद्व होने लगता है। वैसे भी मौजूदा दौर में सपने पर कुछ बोलना या कहना खतरे से खाली नहीं है। सपनों के साथ आजकल सियासत जो जुड़ गई है। सपने का समर्थन करने या विरोध करने का सीधा सा मतलब खुद पर किसी दल की विचारधारा का ठप्पा लगवाने से कम नहीं है। राजनीतिक गलियारों में बयानों के भावार्थ न चाहते हुए भी निकाल ही लिए जाते हैं। बस यही सोचकर कई दिनों से चुप था लेकिन जब सपनों की बात बढ़ ही गई है तो फिर जोखिम उठाने की हिम्मत जुटा ही ली। वैसे भी हमारी जमात के प्रति नेक विचार होते ही कितनों के हैं। ऐसे संक्रमण के काल में जब जमात के कुछ साथी बिना कुछ किए व कहे नाहक ही बदनाम हो रहे हैं, उससे तो बेहतर है कि चुप्पी तोड़ ही दी जाए। खैर, मुद्दे की बात यह है कि मेरा सपने देखने और दिखाने के दर्शन में विश्वास मिलाजुला सा ही है। यह मेरी बेहद निहायत और निजी राय है। सपने देख भी लेता हूं और नहीं भी। यह बात दीगर है कि रात को सपने अपने आप जरूर आ जाते हैं। न चाहते हुए भी। कभी सुहावने तो भी डरावने। उन पर किसी की कोई बंदिश नहीं है.. कोई रोक नहीं है। मेरा मानना है कि इस प्रकार से सपने तो सभी को ही आते होंगे। फितरन कुछ लोग अपने सपनों को साझा भी करते हैं। कुछ तो सपने का फल जानने के लिए बड़े बेताब नजर आते हैं। यह तो हुई ना चाहते हुए भी सपने देखने की बात। अब मेरा तजुर्बा तो यह कहता है कि सपने देखने के साथ दिखाने भी पड़ते हैं। बात को आजमाना हो तो इसके लिए खुद के परिवार से बड़ा उदाहरण कोई नहीं है। किसी चीज को लेकर बच्चे जब जिद करते हैं.. रोते हैं.. रुठते हैं... तो हम या तो उनकी जिद पूरी कर देते हैं या फिर उनको भरोसा दिलाते हैं, उनसे वादा करते हैं... आश्वासन देते हैं। यह सब करना एक तरह का लॉलीपाप या सपना ही तो है। यही कहानी बच्चों की मां से जुड़ी होती है। उसकी कई मांगें तो तत्काल पूर्ण करने वाली ही होती हैं। कुछ हाथोहाथ पूरी नहीं भी हो पाती हैं, जिनको दूरगामी मांगें भी कह सकते हैं, उनके लिए सब्जबाग दिखाने की कलाकारी करनी पड़ती है। यह एक सपना ही तो है। भले ही आपने नहीं देखा लेकिन आपके आश्वासन से किसी ने तो देख लिया..। जारी है..

सूर्यनगरी जोधपुर-3


बस यूं ही

 
कार्य संबंधी तमाम औपचारिकताएं पूर्ण कर उसी दिन शाम को हम दोनों भाई-बहन गांव के लिए रवाना हो गए। ऐसे में जोधपुर देखने की हसरत पूरी नहीं हो सकी। मजे की बात तो यह है कि उस काम का परिणाम केवल एक हां पर ही टिका था। आखिरकार हां हो ही गई और इसके बाद रिश्तों की डोर कुछ कदर बंधी, कि मैं जिंदगी भर के लिए जोधपुर का होकर रह गया। इसके बाद तो जोधपुर पहले के बरक्स और भी अच्छा लगने लगा था। यह बात दीगर है कि व्यस्तता और पेशगत मजबूरियों के चलते जोधपुर जाना कम ही हो पाता है। कभी कारण विशेष के लिए जाना भी पड़ा तो कार्यक्रम इतना व्यस्त रहा कि बस वो कार्य ही बड़ी मुश्किल से हो पाया। घूमने-फिरने की हसरत फिलहाल भी अधूरी है। खैर, हालिया दो घटनाक्रमों के चलते जोधपुर की जो छवि देश-दुनिया में बनी है, उसको लेकर मैं बेहद व्यथित हूं। इसलिए नहीं कि मैं जोधपुर से जुड़ा हूं, मेरा उससे संबंध है, बल्कि इसलिए कि समृद्ध इतिहास और संस्कृति के धनी इस शहर की वर्तमान में जो तस्वीर बना दी गई है वह डराती है। झकझोरती है। कचोटती है। और शर्मसार भी करती है। आलम यह है कि चंद लोगों की कारगुजारियों की सजा न केवल जोधपुर के लोग बल्कि यहां का इतिहास, संस्कृति और सद्भाव भी भोग रहे हैं। यकीन मानिए आजकल जोधपुर का नाम लेने के बाद लोगों के चेहरे पर जो कुटिल मुस्कान दिखाई देती है, वो अपने आप में काफी कुछ कह देती है। बहुत दुख देती है यह मुस्कान। सच कहता हूं., अंदर ही अंदर बहुत दर्द होता है। एक चोट सी लगती है। पहले तो भंवरीदेवी और अब आसाराम प्रकरणों का प्रस्तुतिकरण नई पीढ़ी में एक अजीब सी जिज्ञासा पैदा कर रहा है। मैं टीवी पर अक्सर खेल या समाचार चैनल ही देखता हूं..। लेकिन आजकल वह देखने की भी इच्छा नहीं होती। इसलिए नहीं कि जोधपुर का नाम, बदनाम हो रहा है, उसकी छवि को बट्टा लग रहा है, बल्कि बच्चों के कारण मैंने यह सब बंद कर रखा है। कोई भी समाचार चैनल लगा लो.. सब पर जोधपुर ही जोधपुर है। बच्चे जब बार-बार जोधपुर दिखाने और बोलने का सबब पूछते हैं तो मैं निशब्द हो जाता हूं..।       
क्रमश: ...

सूर्यनगरी जोधपुर-2

बस यूं ही
 
उस वक्त जोधपुर की खूबियों और खासियतों की बारे में इतनी जानकारी भी नहीं थी। वैसे भी बचपन में इन सब का ध्यान रहता भी कहां है। खैर, समय के साथ जोधपुर के बारे में और जानकारी मिलती गई। गांव के काफी लोग भी काम के सिलसिले में जोधपुर रहते हैं। उनके मुंह से भी सूर्यनगरी की काफी तारीफ सुन चुका था। सेना में रहते हुए पापा भी जोधपुर जा चुके हैं। इतना कुछ सुनने और जानने के बाद जोधपुर के प्रति जेहन में अलग छवि बनना लाजिमी था। जोधपुर का इतिहास, वहां के ऐतिहासिक स्थल, मेहरानगढ़, मंडोर, वायुसेना स्टेशन, पत्थरों की नक्काशी व उम्मेद पैलेस आदि के बारे में जानने के बाद मेरी जोधपुर देखने की जिज्ञासा और भी बढ़ गई। बीच-बीच में जोधपुर से जुड़े समाचार लगातार मिलते रहे। कभी क्रिकेट मैच के आयोजन को लेकर तो कभी फिल्मों की शूटिंग के बारे में। 1998 में जोधपुर उस वक्त अचानक सुर्खियों में आया था जब फिल्म स्टार सलमान खान, सैफ अली खान, तब्बू और नीलम हिरण शिकार के मामले में फंस गए। यह सब चलता रहा लेकिन कभी जोधपुर जाना नहीं हो पाया। आखिरकार 2003 में पहली बार जोधपुर जाने का मौका मिला। आज भी याद है बड़ी बहन के साथ जयपुर से रात को जोधपुर के लिए बस पकड़ी थी। तारीख तो याद नहीं है लेकिन शायद अगस्त या सितम्बर में से कोई महीना रहा होगा। रात भर का सफर करने के बाद अलसभोर हम दोनों बुआजी के घर पहुंचे थे। दोनों को देखकर बुआजी भी विस्मित थी कि आखिर बिना सूचना के सुबह-सुबह ही अचानक यह लोग किस प्रयोजन से आ गए। मैं नित्यक्रम से निवृत्त होता तब तक बुआ-भतीजी दोनों बातों में ही मशगूल हो चुकी थी। इसी बीच हमारे जोधपुर आने का मकसद भी बुआजी जान चुकी थी। उस वक्त मैं श्रीगंगानगर में कार्यरत था, लिहाजा अवकाश मुश्किल से तीन या चार दिन का ही मिला था। अखबार का काम ही ऐसा है, लम्बे अवकाश की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जोधपुर घूमने-फिरने की बात गौण हो चुकी थी, पहली प्राथमिकता तो वह काम ही था, जिसके लिए जोधपुर गए थे। क्रमश: ...

सूर्यनगरी जोधपुर-1


बस यूं ही

 
फेसबुक पर इन दिनों फिल्म अभिनेता सलमान खान और आसाराम बापू की फोटो खूब शेयर की जा रही है। इसी फोटो के नीचे लिखा है, 'पचास बार मना किया था, जोधपुर मत जाना।' इस फोटो को खूब लाइक मिल रहे हैं और टिप्पणियां भी की जा रही हैं। भले ही यह बात सलमान ने ना कही हो लेकिन जाहिर सी बात है, सलमान का भी जोधपुर को लेकर अनुभव अच्छा नहीं रहा है। आज से करीब पन्द्रह साल पहले 1998 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'हम साथ-साथ हैं' की शूटिंग के दौरान सलमान, हिरण शिकार के मामले में ऐसे फंसे थे कि अभी तक पीछा नहीं छूट पाया है। संभवत: सलमान का आसाराम के साथ फेसबुक पर यह लिंक तभी जोड़ा जा रहा है। खैर, करीब पखवाड़े भर से जोधपुर फिर चर्चा में है। गूगल पर भी जोधपुर के नाम से सर्च करने पर आसाराम प्रकरण ही ज्यादा दिखाई दे रहा है। जोधपुर चर्चित शहर है, इसमें दो कोई दो राय है ही नहीं। न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी। सूर्यनगरी के नाम से विख्यात इस शहर की पहचान केवल विशेष प्रकार के पत्थरों से ही नहीं बल्कि यहां की अपणायत से है, जिसका कायल हर वो शख्स है जो जोधपुर से परिचित है या यहां आ चुका है। यहां की संस्कृति को समझ चुका है। यहां के लोगों स्वभाव में न तो शहर के नाम (सूर्यनगरी) से हिसाब से गर्मी है और ना ही यहां लोग पत्थरों का शहर होने के बावजूद पत्थर जैसे कठोर हैं। हां, मान-सम्मान एवं स्वाभिमान तो यहां रहने वालों की नस-नस में है। गौर करने की बात यह है कि जोधपुर की यह विशेषताएं या खूबियां मैंने नहीं गढ़ी हैं, बल्कि इस शहर के साथ सदियों से जुड़ी हुई हैं। बचपन में एक जुमला सुना था कि जोधपुर के लोग जब गुस्से में कुछ कहते हैं तो भी उनका गुस्सा, आम गुस्से जैसे नजर नहीं आता। कहने का मतलब यह है कि जोधपुर की बोली इतनी मीठी है कि वो किसी पराये को भी अपना बनाने पर मजबूर कर देती है। खैर, मैं तो इस शहर से वाबस्ता बचपन से ही हूं..। हल्की सी याद है कि बचपन में एक बारात में जोधपुर आया था। चौपासनी स्कूल में बारात ठहराई गई थी। करीब 28-29 साल पहले की बात है...। क्रमश:

13/13 का राज


बस यूं ही

 
आज 13 सितम्बर है और साल भी 2013 का। मतलब आज का दिन लिखा जाए तो दो बार 13 का उल्लेख होगा। आज के दिन ने किसी के अरमानों के पंख लगा दिए तो किसी की उम्मीदों का दिया बुझा दिया। वैसे भी तेरह के अंक के साथ कई तरह के किस्से एवं कहानियां जुड़े हुए हैं और अंधविश्वास भी। विशेषकर क्रिकेट की दुनिया में 13 का अंक बेहद ही अशुभ माना जाता है। शायद ही कोई खिलाड़ी होगा जो 13 नम्बर की टीशर्ट पहनता है। इसके अलावा 13 पर आउट होने वालों की फेहरिस्त भी खासी लम्बी है। 13 पर आउट होने के पीछे एक बहुत बड़ा मनोविज्ञान है। खिलाड़ी इस स्कोर पर पहुंचते खुद को असुरक्षित महसूस करता है और जल्दी से इसे पार पाने के प्रयास में आउट हो जाता है। खैर, क्रिकेट की दुनिया से इतर काफी जगह 13 को अशुभ और मनहूस माना जाता है। पश्चिमी देशों में 13 तारीख के अंक को इतना अशुभ व दुर्भाग्यशाली माना जाता है कि इर साल 13 सितम्बर को अंधविश्वास को नकारने के लिए डिफाय सुपरस्टिशन डे मनाते हैं। तेरह के अंक को विज्ञान में भी एक फोबिया का नाम दिया गया है। इतना ही नहीं पश्चिम देशों में होटलों में तेरहवीं मंजिल नहीं होती है। होटलों में तेरह नम्बर का कमरा भी नहीं होता। इतना ही नहीं हवाई जहाज में तेरह नम्बर की पंक्ति भी नहीं होती।
बहरहाल, आज 13 सितम्बर के दिन देश में दो ऐसे फैसले हुए, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए हैं। दोपहर बाद जहां दिल्ली के दामिनी सामूहिक अनाचार प्रकरण के दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई, वहीं शाम होते-होते भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावेदार घोषित कर दिया। हो सकता है, जिनको फांसी की सजा मिली है वे और उनके परिजन आज के दिन को कोस रहे हों, लेकिन पूरा देश इस इस फैसले पर झूम रहा है। इधर मोदी की ताजपोशी से आडवाणी और उनके समर्थकों को छोड़कर शेष भाजपा में दीवाली का सा माहौल है। पटाखे फूट रहे हैं। मिठाई बंट रही है। ढोल-ढमकों और गाजे-बाजे के साथ खुशियां मनाई जा रही हैं। ऐसा लग रहा है कि मोदी कोई उम्मीदवार न हुए गोया प्रधानमंत्री ही बन गए हैं। खैर, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन मोदी समर्थकों की खुशी और जोश आज देखते ही बन रहा है।
अपने व्यस्त समय के बीच से जब 13 के अंक के बारे में कुछ जानकारी जुटाई तो इस दिन वैसे तो कोई खास उपलब्धि नजर नहीं आई, हालांकि रचनाकार रांगेय राघव, साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी और संगीतकार जयकिशन की पुण्यतिथि 13 सितम्बर को ही आती है। वीर दुर्गादास का जन्म 13 तारीख को ही हुआ था। प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार का निधन भी तेरह तारीख को ही हुआ था। वैसे 13 को अपशकुनी मानने का प्रचलन भारत में भी है। 13 का डर यहां भी कम नहीं है। किसी वर्ष 13 मास अर्थात अधिमास हो जाए तो उसे भी शुभ नहीं माना जाता है। तिथि क्षरण के कारण चंद्रपक्ष में तेरह दिन रह जाएं उसे भी अशुभ माना जाता है। मुम्बई में दो प्रमुख आतंकी हमलों के लिए भी 13 तारीख का ही चयन किया गया था।
वैसे तेरह से जुड़ी कुछ कहावतें भी हमारे देश में प्रचलन में है। मसलन, नौ नकद तेरह उधार, तीन बुलाए तेरह आए दे दाल में पानी, तीन में न तेरह में। इसके अलावा एक और राजस्थानी कहावत है कि तीन का तेरह कर देना, अर्थात बिगाड़ देना। संयोग की बात यह भी यह है कि ताश के पत्तों में एक रंग के तेरह ही पत्ते होते हैं। अगर इक्के से गिना जाए तो तेरहवां पत्ता बादशाह और दुग्गी से गिना तो तेरहवां पत्ता इक्का होता है। 13 के अंक के सभी के लिए अपने-अपने मायने हैं। भाजपा के लिए तो 13 खास महत्त्व रखता है। तभी तो मोदी का नाम तय करने में इतनी जल्दबाजी दिखाई गई है, वरना लोकसभा चुनाव में तो अभी छह-सात माह बाकी हैं। भाजपा के लिए 13 का अंक वैसे मिलाजुला ही रहा है। फिर भी पार्टी इसका मोह नहीं त्याग नहीं पा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी 1996 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उनका कार्यकाल मात्र 13 दिन का ही रहा था। इसके बाद 1998 में जब वे दोबारा प्रधानमंत्री बने तो 13 तारीख को ही शपथ ली। दूसरा कार्यकाल भी तेरह माह का रहा। यह भी संयोग है कि सहयोगी दलों की संख्या भी तेरह ही थी। और उनके सहयोग से उन्होंने तेरहवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। इतना ही नहीं उनको पराजय भी तेरह तारीख को झेलनी पड़ी। इस तरह उनका चौथी बार प्रधानमंत्री बनने का सपना भी तेरह तारीख को ही टूटा था। इतना ही नहीं वाजपेयी के कार्यकाल में तथा भाजपा के समर्थन में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी।
बहरहाल, मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की घोषणा जिस अंदाज में हुई है। उसके मायने तो हैं। कहीं मोदी भी वाजपेयी के नक्शे कदम पर तो नहीं हैं? उनका तेरह के प्रति प्रेम देखते हुए लगता तो यही है, वह भी एक नहीं बल्कि डबल तेरह। अब यह 13/13 का अंक उनके लिए कैसा साबित होता है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि वे वाजपेयी की तरह कोई करिश्मा दिखाएंगे या आडवाणी की तरह पीएम इन वेटिंग के नाम से ही जाने जाएंगे।

सच कहां है...


बस यूं ही

सच कहने का साहस... सच सुनने का साहस...
सच लिखने का साहस...सच स्वीकारने का साहस...
सच के साथ रहने का साहस...सच के साथ काम करने का साहस..
सच के साथ जीने का साहस...सच के साथ मरने का साहस...
यह सब अब कहां है,

क्योंकि आजकल,
सच आपस में लड़ाता है..बेवजह गुस्सा दिलाता है...
सच से रिश्ते टूटते है...सच से दोस्त रुठते हैं...
सच से बात बिगड़ती है...सच से दुनिया अकड़ती है...
सच बोरिंग कहानी है...पागलपन की निशानी है...
यह हालत इसलिए है,

क्योंकि आजकल,
सांच को आंच है... झूठ की नहीं जांच है..
झूठ का बोलबाला है... सच का मुंह काला है..
झूठ से बात बनती है... झूठ से राह निकलती है..
झूठ बोलना शान है.. झूठ ही पहचान है...
तभी तो यह हो रहा है,

क्योंकि आजकल
सच बेचारा बीमार है... आदत से लाचार है...
सच प्रताडि़त है... सच पराजित है...
झूठ को अपना लिया.. सच को बिसरा दिया...
सच बुरी तरह घायल है... झूठ के सब कायल हैं..
यह हालत तब तक रहेगी..

जब तक हम,
अहसानों से दबते रहेंगे... जुल्म के प्रति चुप रहेंगे..
मुफ्त उपहार पाते रहेंगे... बदले में गुण गाते रहेंगे..
झूठ को अपनाते रहेंगे. सच को ठेंगा दिखाते रहेंगे..
आत्ममंथन करेंगे नहीं... भगवान से कभी डरेंगे नहीं..

इसलिए अब,
मजबूर हम होंगे नहीं... तो सच से दूर होंगे नहीं..
सोए जमीर को जगाना होगा.. झूठ को दूर भगाना होगा..
माध्यम हम बनें नहीं... बुरा किसी से सुनें नहीं...
सब कुछ सच के साथ करेंगे... प्रलोभन से नहीं डिगेंगे..

आज मैं ऊपर...

बस यूं ही
 
हो सकता है शीर्षक पढ़कर आप चौंक जाएं लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। दरअसल आज मेरी एक बहुप्रतीक्षित मुराद पूरी हो गई। बस उसी खुशी में यह गीत गुनगुना रहा था, अच्छा लगा तो शीर्षक दे दिया। खुशी इस बात की, कि कॉलेज लाइफ से दूर होने के करीब १६ साल बाद एक और डिग्री हासिल करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। परिणाम भी मंगलवार को ही जारी हुआ है। परिणाम जानने की बेताबी का आलम ऐसा था कि पिछले दो माह से राजस्थान विश्वविद्यालय की वेबसाइट को कोई सौ बार से ज्यादा देख चुका हूं। कई बार ऐसा भी हुआ कि साइट खुल ही नहीं पाई। कई बार खुली तो रिजल्ट का विवरण नहीं देख पाया। आज भी शाम चार बजे के करीब बड़ी उम्मीद के साथ वेबसाइट खोली थी। रिजल्ट पर जैसे ही क्लिक किया तो खुशी से उछल पड़ा। उस पर एमजेएमसी फाइनल का परिणाम शो हो रहा था। धड़कन तेज हो गई थी। परिणाम की साइट खुली तो रोल नम्बर मांगे गए। नम्बर भूल चुका था। प्रवेश पत्र भी घर पर रखा हुआ था। परीक्षा भी तो अप्रेल में हो चुकी थी, इतना लम्बे समय तक रोल नम्बर भला याद कैसे रख पाता। घर पर श्रीमती को फोन करने ही वाला था कि अचानक दूसरे विकल्प पर पड़ी। उसमें नाम लिखने को कहा गया था। जैसे ही नाम लिखकर की बोर्ड पर इंटर मारा। मार्कशीट खुल गई थी। परिणाम उम्मीद से बेहतर आया। परीक्षा देते समय जितने अंक का अनुमान लगाया था उससे कहीं ज्यादा अंक देखकर खुशी दोगुनी हो गई। मेरा प्रयास था कि किसी तरह 55 प्रतिशत अंक बन जाए ताकि आगे कोई और डिग्री लेने में दिक्कत ना हो। पूर्वाद्ध और उतराद्र्ध दोनों के अंक जोडऩे के लिए श्रीमती की मदद लेनी पड़ी। उसने फोन पर मार्कशीट देखकर नम्बर बताए तो प्रतिशत 59.44 के करीब आए। डिग्री हासिल करने की खुशी इसलिए ज्यादा है क्योंकि इसको मैंने चार साल की मेहनत के बाद हासिल किया है। वैसे तो यह दो साल में ही मिल जाती है। मैं यहां बात मास्टर इन जर्नलिज्म एंड मास कम्प्युनिकेशन (एमजेएमसी) की कर रहा हूं। इस डिग्री को हासिल करने की कहानी बड़ी ही दिलचस्प व रोचक है, इसलिए तो सभी के साथ साझाा कर रहा हूं। एमजेएमसी पूर्वाद्ध तो मैंने 2010में ही उत्तीर्ण कर ली थी। इसके बाद 2011 में जैसे ही एमजेएमसी उतराद्र्ध का परीक्षा टाइम टेबल घोषित हुआ मेरा तबादला झुंझुनू से छत्तीसगढ़ हो गया। छत्तीसगढ़ में ज्वाइनिंग 13 अप्रेल तक देनी थी। इसी चक्कर में मैं पहला एवं दूसरा पेपर नहीं दे पाया। बाद में बॉस से आग्रह किया तो शेष दो पेपरों की अनुमति मिल गई। जल्दबाजी में किसी तरह मैंने दो पेपरों की परीक्षा दे दी। स्थानांतरण के वक्त मैं केवल उतराद्र्ध का प्रेक्टिकल का पेपर ही दे पाया था, और दो पेपर लिखित के दिए। परिणाम तो जैसा पता था वैसा ही आया। खुशी इस बात की थी कि पे्रक्टिकल सहित बाकी दोनों विषयों में 60 प्रतिशत से ज्यादा अंक आए थे। लेकिन प्रथम एवं द्वितीय विषय के आगे डबल ए यानी अनुपस्थित (अबसेंट) लिखा गया था।
इसके बाद मैंने दोनों विषयों की परीक्षा अगले साल देने का निर्णय किया। परीक्षा फार्म व फीस आदि की औपचारिकता बीच में अवकाश लेकर पूरी कर गया था। परीक्षा तिथि घोषित हुई तो उसी के हिसाब से मैंने रेल टिकट का आरक्षित करवा लिए थे। दोनों पेपरों में सात दिन का गेप था लेकिन इतना लम्बा अवकाश एक साथ स्वीकृत नहीं हुआ, लिहाजा दो बार बिलासपुर से जयपुर आने एवं जाने का आरक्षण करवाया गया।
मैं परीक्षा देने के लिए जिस दिन रवाना होने वाला था कि ठीक उसी रात्रि को अचानक श्रीमती का फोन आया कि उसके पेट में तेज दर्द है। उस वक्त में कार्यालय में ही था। जैसा कि अक्सर करता आया हूं मैं खुद घर नहीं गया और एक स्टाफर के हाथों दवा घर भिजवा दी। दवा देने के बाद भी श्रीमती को आराम नहीं मिला और उसने फिर फोन लगाया और घर जल्दी आने का आग्रह किया। उसके आग्रह को अनसुना करते हुए काम पूर्ण होने के बाद रात करीब डेढ़ बजे मैं घर पहुंचा तो उसकी हालत देखकर दंग रह गया। मेरे होश फाख्ता हो गए। मुझो खुद पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं फोन पर उसके दर्द को इतने हल्के में लेता रहा। वह दर्द के मारे बुरी तरह से छटपटा रही थी। पेट पकड़े हुए वह बार-बार करवट बदल रही थी लेकिन ऐसा करने से भी उसे राहत नहीं मिल रही थी। अंतत: रात ढाई बजे हिम्मत करके मैंने पड़ोसी डाक्टर को उठाया। उन्होंने दर्द निवारक इंजेक्शन लगा दिया, बोले इससे आराम मिल जाएगा और नींद भी आ जाएगी। इंजेक्शन लगाने के बाद बामुश्किल आधा घंटा ही बीता होगा श्रीमती फिर उसी तरह से करने लगी। रात के तीन बज चुके थे। समझा में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। आखिरकार एक स्टाफ सदस्य को फोन लगाया और अलसुबह करीब चार बजे के करीब श्रीमती को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।
मैं घर पर बच्चों के साथ था। बच्चों की भी उस वक्त परीक्षा चल रही थी। मैंने सुबह उठकर उनको नहलाया। नाश्ते के लिए फल रखे थे वो ही टिफिन में डाल दिए। तब तक नीचे बच्चों का रिक्शा आ चुका था। उनको स्कूल के लिए रवाना करने के बाद में मैं अस्पताल पहुंचा। वहां देखा तो श्रीमती के ग्लूकोज चढ़ रहा था। चिकित्सकों ने अपेन्डिस की आशंका जताते हुए सोनाग्राफी करवाने की सलाह दे दी थी। आशंका सही निकली। स्टाफ सदस्यों की सलाह पर श्रीमती को उस अस्पताल से अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया। वह वहां पर तीन दिन तक भर्ती रही है। मैं तो दो पाटों के बीच फंसा था। एक तरफ घर पर बच्चे तो दूसरी तरफ श्रीमती। इस आपाधापी के बीच मैं परीक्षा कहां व कैसे दे पाता। रेल टिकट भी जैसे-तैसे रद़्द करवाए। इस तरह यह एक और साल भी यूं ही चला गया।
आखिरकार इस शैक्षणिक सत्र में तीसरी बार फिर फार्म भरकर परीक्षा के लिए आवेदन किया। अवकाश न मिलने के कारण फार्म भरने का काम परिचित के माध्यम से ऑनलाइन ही करवाया। फीस के पैसे भी उन्होंने ही दिए। फिर किसी प्रकार का व्यवधान ना हो, भगवान से इसी स्मरण के साथ मैं परीक्षा का इंतजार करने लगा। आखिरकार अप्रेल में परीक्षा की तिथि घोषित हुई। किसी तरह अवकाश मंजूर करवाकर नियत तिथि को परीक्षा देने पहुंचा। उसी वक्त परिचित के द्वारा दिए गए वो फीस के पैसे भी चुकाए। इसके बाद भिलाई लौट आया। परीक्षा की तैयारी कैसी थी, अब यह मत पूछना लेना। केवल टे्रन में जो वक्त मिला उसी दौरान कुछ नोट्स को पढ़ पाया। बाकी सब भगवान भरोसे था। पहला पेपर देने के बाद फिर बीमार पड़ गया, लेकिन गनीमत यह थी कि दोनों पेपरों के बीच सात दिन का गेप था और इस बार अवकाश भी आठ दिन का लिया था। इस प्रकार परीक्षा पूर्ण हुई। अब परिणाम के इंतजार में चार माह से अधिक का समय कैसे बीता मैं ही जानता हूं। बहरहाल, आज परिणाम आ गया है और खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। फिलहाल ऑफिस में हूं लेकिन अपनी भावनाएं व्यक्त करने से खुद को रोक नहीं पाया। आखिर चार साल बाद एमजेएमसी उत्तीर्ण जो की है। तभी तो गा रहा हूं आज मैं ऊपर...