Saturday, September 29, 2012

बंद हो आंकड़ों का खेल

प्रसंगवश 

छोटा परिवार सुखी परिवार की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार हर साल परिवार नियोजन पर करोड़ों रुपए खर्च करती हैं, लेकिन गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं दरपेश आती हैं, जो इस अभियान की सफलता पर सवालिया निशान लगाती हैं। मंगलवार को बालोद जिले के डौंडीलोहारा कस्बे के सामुदायिक स्

वास्थ्य केन्द्र में लगा नसबंदी शिविर इसका जीता जागता उदाहरण है। शिविर में शुरू से लेकर आखिर तक अव्यवथाएं हावी रहीं। हद तो उस वक्त हो गई जब सुबह दस बजे शुरू होने वाला शिविर शाम सात बजे बाद चिकित्सक के आने पर शुरू हुआ। इसके बाद आनन-फानन में ऑपरेशन शुरू किए गए तो बीच में बिजली गुल हो गई। करीब एक घंटे तक तो टॉर्च की रोशनी में ही ऑपरेशन होते रहे। बिजली आने के बाद रात 11 बजे तक ऑपरेशन हुए। ऑपरेशन का आंकड़ा तो वाकई चौंकाने वाला है। कुल 138 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन मात्र चार घंटे में एक चिकित्सक ने कर दिए। यकीन नहीं होता इस आंकड़े को देखकर। किसी चमत्कार के होने जैसा ही है यह सब। गंभीर बात तो यह है कि संबंधित चिकित्सक इसको सामान्य-सी बात मान रहे हैं। वैसे चिकित्सकों का मानना है कि नसबंदी ऑपरेशन करने में दस से पन्द्रह मिनट तक का समय लगना सामान्य-सी बात है।
शिविर में घोर लापरवाही के बावजूद प्रशासनिक अधिकारियों ने इस मामले में जरा भी गंभीरता नहीं दिखाई। एसडीएम ने तो बीएमओ को नोटिस देकर इतिश्री कर ली। इधर, राज्य सरकार के मुखिया एवं उसके नुमाइंदे अक्सर सभाओं में राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर खुद की पीठ थपथपाने से गुरेज नहीं करते। लेकिन, उनके बड़े-बड़े दावे उस वक्त बेमानी लगने लगते हैं, जब इस तरह के प्रकरण सामने आते हैं। नसबंदी शिविरों में अक्सर अव्यवस्थाएं उजागर होती रहती हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इन सब से अनजान है। सरकार को यह भी पता है दुर्ग-बेमेतरा एवं बालोद जिले में केवल एक ही सर्जन हैं, जो नसबंदी के ऑपरेशन करते हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं है, उस इकलौते चिकित्सक को कुछ भी करने की छूट मिल जाए। नेत्रकांड के बाद बालोद जिले में ही परिवार नियोजन अभियान की पोल खोलने वाला यह शर्मनाक मामला है। सोचनीय विषय यह भी है कि आमजन के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले लगातार इस प्रकार के कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं और राज्य सरकार नींद में गाफिल है। इससे तो यही समझा जाना चाहिए कि राज्य सरकार की कथनी और करनी में समानता तो कतई नहीं है। आखिर, इस तरह लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने से हासिल भी क्या होगा। सरकार अगर वाकई परिवार नियोजन के प्रति गंभीर है तो उसको नसबंदी शिविरों के लिए तत्काल नए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए। संबंधित चिकित्सक पर कार्रवाई तथा अव्यवस्थाओं को दुरुस्त करने के साथ-साथ शिविरों में चिकित्सकों के देर से आने तथा रात में ऑपरेशन करने पर तत्काल प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। वरना, यही समझा जाएगा कि राज्य सरकार भी लोगों के स्वास्थ्य को दरकिनार कर लक्ष्य पूर्ति के आंकड़ों के खेल में अपनी सहभागिता निभा रही है।
 
साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ के 29 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Monday, September 24, 2012

उम्मीदों को पंख...



पत्रिका को टि्‌वनसिटी में दो साल पूरे हो गए। इन दो वर्षों में पत्रिका ने बेबाक, निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के नए आयाम गढ़े हैं, यह बात पत्रिका का पाठक बखूबी जानता है। दो वर्षों में पत्रिका ने जनहित से जुड़े अनेक मुद्‌दों को अपनी आवाज दी और अंजाम तक पहुंचाया। मुद्‌दे उठाना और परिणाम तक पहुंचाना ही पत्रिका की खासियत है। हाल ही में पत्रिका के अमृतम्‌ जलम्‌ अभियान को टि्‌वनसिटी के पाठकों ने जो समर्थन एवं सहयोग दिया, वह अभूतपूर्व है। पाठकों के इसी साथ ने एक और एक दो नहीं बल्कि ग्यारह होने की अवधारणा को पुष्ट किया। टि्‌वनसिटी में ऐसे मुद्‌दों की फेहरिस्त लम्बी है, जिनको पत्रिका ने बड़ी शिद्‌दत के साथ उठाया और मुहिम का ऐसा रंग दिया कि आखिकार शासन-प्रशासन को ध्यान देना पड़ा।
टि्‌वनसिटी के दोनों शहरों दुर्ग-भिलाई के बीच भौगोलिक दूरी आज भले ही मिट गई हो, लेकिन दोनों की अलग-अलग खासियतें एवं खूबियां हैं। पत्रिका ने टि्‌वनसिटी की इन खासियतों से रूबरू कराया तो विकास की विसंगतियों को भी लगातार उजागर किया। बीएसपी आयुध भंडार के पास अवैध बस्ती के खिलाफ  पत्रिका की मुहिम को तो पाठक आज भी याद करते हैं। बीएसपी प्रबंधन को आखिरकार उस बस्ती को वहां से हटवाना पड़ा। इतना ही नहीं, शहर में बाइपास या फोरलेन के मामले में भी पत्रिका की मुहिम पर निगम प्रशासन ने मुहर लगाई। फोरलेन की विसंगतियों को भी पत्रिका ने बेबाकी के साथ उठाया। शहर में खस्ताहाल चिकित्सा व्यवस्था से लेकर सेक्टर एरिया की समस्याओं तक जनहित से जुड़े हर मुद्‌दे पर पत्रिका की पैनी निगाह रही।
यह तो शुरुआत है। टि्‌वनसिटी में विकास की भरपूर गुंजाइश है। उम्मीदों का आकाश पंख फैलाने को बेताब है। जरूरत है तो बस इच्छाशक्ति जगाने व सोच बदलने की। पत्रिका ने दोनों ही कामों में अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाने का प्रयास किया है। पाठकों के विश्वास और उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए कलम यूं ही बेबाक, निष्पक्ष एवं निर्भीक बनी रहेगी, लगातार... अनवरत...।

साभार - पत्रिका भिलाई के 24 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, September 22, 2012

गंभीर है यह मर्ज

प्रसंगवश

भले ही समस्याओं का निराकरण हो या ना हो लेकिन वैशालीनगर विधायक भजनसिंह निरंकारी इससे कोई सरोकार नहीं रखते हैं। वे जनसमस्याओं के निराकरण के लिए लगातार चिटि्‌ठयां लिखते रहते हैं। कभी जिला प्रशासन को तो कभी राज्य सरकार को। हाल ही में उन्होंने भिलाई निगम आयुक्त को चिट्‌ठी लिखी है। चिट्‌ठी में उन्होंने जिस मामले को उठाया है, वह वाकई आम आदमी से जुड़ा है और समय की मांग भी है। चिट्‌ठी में उन्होंने निगम आयुक्त को अवगत कराया है किभिलाई निगम क्षेत्र में भवन निर्माण के लिए अनुमति लेने की प्रकिया बेहद जटिल है। इससे लोगों को परेशानी होती है। जब तक अनुमति मिलती है, तब तक निर्माण कार्य ही पूर्ण हो जाता है। ऐसे में इस प्रक्रिया का सरलीकरण किया जाना बेहद जरूरी है। इसी पत्र में विधायक ने कुछ गंभीर बातें भी कही हैं। उन्होंने कहा कि निगम क्षेत्र में अवैध कब्जों एवं अवैध निर्माण की बाढ़ आई हुई है और इन पर निगम प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है। विधायक यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने इसके लिए अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया है। अवैध निर्माण के लिए उन्होंने निगम के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराते हुए आयुक्त से इन पर शिकंजा कसने की मांग भी की है। खैर, भवन निर्माण की अनुमति प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिल होना तो अपने आप में बड़ी समस्या है ही लेकिन अधिकारियों की भूमिका को लेकर जो सवाल उठाए गए हैं, वे वाकई ही गंभीर हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। कोई सामान्य या अदना सा आदमी अगर यही आरोप लगाता तो हो सकता है, उसे अनसुना कर दिया जाता लेकिन लम्बा राजनीतिक अनुभव तथा जनप्रतिनिधि होने के नाते निरंकारी की बातों में दम नजर आता है। उनके आरोप सच्चाई के नजदीक इसलिए भी दिखाई देते हैं, क्योंकि निगम और उसके अधिकारी उनके लिए अजनबी नहीं हैं। हालांकि कांग्रेसी महापौर वाले निगम में आयुक्त को चिट्‌ठी लिखना ही अपने आप में बड़ी बात है। राजनीतिक हलकों में इस चिट्‌ठी के कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, फिर भी आरोप तो आरोप ही हैं।
दरअसल, निगम क्षेत्र में अवैध कब्जे व अवैध निर्माण तो गंभीर विषय है ही, इनके अलावा भी बहुत सी ऐसी समस्याएं हैं, जो लम्बे समय से निराकरण की बाट जोह रही हैं। इधर निगम अधिकारियों का हाल यह है कि वे समस्याओं को लेकर जरा सी भी गंभीरता नहीं दिखाते। अपने आप से तो उनको कोई काम कभी सूझता ही नहीं है। वैसे अधिकारियों की इस तरह की उदासीनता एवं मनमर्जी कमोबेश हर सरकारी विभाग में दिखाई दे जाएगी। सरकारी कार्यालयों के कामकाज का ढर्रा ही ऐसा है कि बिना सेवा शुल्क दिए तो कोई काम होता ही नहीं है। आलम यह है कि छोटे-छोटे कामों के लिए भी भेंट पूजा करनी पड़ती है। निगम के तो हाल और भी बुरे हैं। नल कनेक्शन जैसी बुनियादी सुविधा पाने के लिए भी अधिकारियों का मुंह ताकना पड़ता है। बहरहाल, निगम आयुक्त को विधायक की चिट्‌ठी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। अगर अधिकारियों के के संरक्षण (जैसा कि विधायक ने आरोप लगाया है) में अवैध कब्जे या अवैध निर्माण इसी प्रकार होते रहे तो फिर निगम प्रशासन के होने या न होने में कोई खास फर्क नहीं रह जाता।
 
साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 22 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।
 

Wednesday, September 19, 2012

स्वरूप भी हैं जुदा-जुदा


 प्रथम पूज्य देव गणेश के वैसे तो कई नाम हैं लेकिन अब उनके स्वरूप भी भिन्न-भिन्न दिखाई देने लगे हैं। यकीन नहीं होता है तो बाजार जाकर देखिए। गणेश जी विविध स्वरूपों में विद्यमान हैं। गणेश चतुर्थी को देखते हुए इस बार एक से बढ़कर प्रतिमाएं तैयार की गई हैं। कुछेक के लिए तो बाकायदा ऑर्डर दिए गए हैं जबकि अधिकतर प्रतिमाओं की परिकल्पना कलाकारों ने स्वयं ही की है। आकर्षक एवं चटकीले रंगों के माध्यम से बनाई गए मिट्‌टी की प्रतिमाएं श्रद्धालुओं को खासी पसंद आ रही हैं। प्रतिमाओं पर किए जाने वाले रंग में भी इस बार बदलाव किया गया है। देव प्रतिमाओं पर किए जाने वाले परम्परागत रंग के अलावा इस पार नीला, गुलाबी, काला सहित कई रंगों का प्रयोग किया है। खास बात यह है कि गहरे रंगों की प्रतिमाएं भी बाजार में हैं लेकिन इस बार हल्के रंगों को प्राथमिकता दी गई है। इसके अलावा  प्रतिमाओं के साथ खास बात यह जुड़ी है कि इनको दूसरे देवताओं के साथ मर्ज कर दिया है। इस कारण गणेश की प्रतिमा में दूसरे देवता का आभास होता दिखाई देता है।












अकेले गणेश की प्रतिमा बनाने की अब पुरानी हो गई है। कुछ नया करने के प्रयास में इस बार गणेश को दूसरे देवताओं के साथ जोड़ कर प्रतिमाएं तैयार की गई हैं। मसलन श्रद्धालु अभी तक श्री कृष्ण को मुरली बजाते हुए ही देखते आए हैं लेकिन इस बार यह काम गणेश भी बखूबी कर रहे हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है रंग-रूप श्रीकृष्ण जैसा ही है। शिव के अलावा भला ताण्डव नृत्य और कौन कर सकता है, लेकिन इस बार गणेश नृत्य भी कर रहे हैं। वेशभूषा भी शिव वाली है। रंग भी एकदम काला। इसी तरह गणेश के माथे पर बड़ा चांद बनाया गया है। कलाकारों की मानें तो चांद लगे गणेश जी श्रद्धालुओं को खासा लुभा रहे हैं। कुछ ने तो आर्डर देकर भी बनवाया है। टीवी धारावाहिक बाल हनुमान की तर्ज पर भी गणेश प्रतिमाएं तैयार की गई हैं। गणेश गदा लेकर खड़े हैं। उनको एकबार सरसरी नजर से देखें तो बाल हनुमान का ही आभास होता है। और भी ऐसी कई प्रतिमाएं हैं, जिनको देखकर दूसरे देवताओं का ख्याल जेहन में यकायक आ जाता है। इसके अलावा मोर की सवारी करते गणेश भी काफी आकर्षक बन पड़े हैं। तीन मुखी एवं पंच मुखी गणेश की प्रतिमाएं भी श्रद्धालुओं को चौंकाने के साथ लुभाती भी हैं। इसके अलावा कहीं हनुमान अपने हाथ पर गणेश को उठाए हुए हैं तो कहीं गणेश शेषनाग के साथ दिखाई दे रहे हैं। गणेश का मुनीम का स्वरूप भी दिया गया है। बिलकुल उसी अंदाज में पगड़ी पहने बही-खातों में हिसाब-किताब करने में तल्लीन दिखाई देते हैं। मौसम क्रिकेट का है, लिहाजा इससे भी गणेश अछूते नहीं है। क्रिकेट विश्व कप के साथ मर्ज करके भी गणेश की प्रतिमा तैयार की गई है।

साभार - पत्रिका भिलाई के 19 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Monday, September 17, 2012

मैं मर रहा हूं! प्लीज, मुझे बचा लो


रहनुमाओ मुझे पहचानो। मैं कोई गैर नहीं बल्कि आपका अपना ही हूं। थोड़ा गौर से देखो मुझे, शायद कुछ याद आ जाए। नहीं पहचाना। अरे, मैं स्टेडियम हूं। याद करो कुछ। पंडित रविशंकर स्टेडियम नाम है मेरा। फिलहाल मैं अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा हूं। बदहाली पर आंसू बहा रहा हूं। मैं राज्य सरकार के नुमाइंदों एवं नीति नियंताओं के उदासीन व उपेक्षित रवैये से अर्श से फर्श पर आ गया हूं। आप भी जानते हैं कितना गौरवशाली इतिहास रहा है मेरा। तभी तो अतीत मुझे रह-रहकर याद आता है। रुस्तम-ए- हिन्द दारासिंह के चरण कमल जिस दिन यहां पड़े थे मैं धन्य हो गया था। ब्लड बैंक के लिए खेला गया वह सहायतार्थ मैच तो मेरी सबसे बड़ी थाती है। बड़े-बड़े खिलाड़ी आए थे उस दिन। न जाने कितने ही रणजी मैच खेले गए हैं यहां। दुर्ग की बेटी सबा अंजुम ने भी मेरे ही आगोश में खेल के गुर सीखे हैं। यकीन मानिए, उस दिन खुशी मुझे भी हुई थी, जिस दिन मध्यप्रदेश से अलग होकर नया
प्रदेश छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आया। पता नहीं क्या-क्या सोच बैठा था मैं। उस वक्त प्रदेश में सबसे बड़ा स्टेडियम भी तो मैं ही था, लेकिन सियासत करने वालों ने मेरे साथ ही सियासत कर दी। मेरे सपने पूरे होने से पहले ही टूट गए। नया राज्य बनना मेरे लिए घाटे का सौदा रहा। मेरी बदकिस्मती रही कि उसी दिन से ही मेरे दुर्दिन शुरू हो गए। मेरी हालत दिनोदिन खराब होती गई और एक दिन ऐसा भी आ गया जब मैं किसी काम का नहीं रहा। देखरेख के अभाव में मैं जंगल में तब्दील हो गया। लम्बे समय से पानी का जमाव होने के कारण कई तरह की वनस्पति उग आई हैं यहां। मेरी दीवारें रखरखाव के अभाव में दरक रही हैं। आज भी मेरा नाम सुनकर बच्चे दौड़े चले आते हैं, लेकिन यहां आकर उनको निराशा ही हाथ लगती है। मायूस होकर लौट जाते हैं वे। हां, एक काम तो बखूबी होता है यहां। गणतंत्र दिवस एवं स्वतंत्रता दिवस बड़े धूमधाम से मनाए जाते है यहां। राज्य सरकार के नुमाइंदे तथा प्रशासनिक अधिकारी सभी तो आते हैं यहां। बड़ा दुख होता है अतिथियों का भाषण सुनकर। मैं रोने लगता हूं उनके श्रीमुख से विकास की लम्बी-चौड़ी गाथा सुनकर। हां, दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन भी तो यहीं किया जाता है। भला मेरे से मुफीद जगह और मिलेगी भी कहां। सोचनीय विषय तो यह है जिला कलेक्टर ही मेरी देखरेख करने वाली क्रीड़ांगन समिति के पदेन अध्यक्ष हैं लेकिन उधर से भी अभी तक कुछ राहत नहीं मिली है। कलेक्टर साहब आप तो नए हैं और बड़े रहमदिल भी। सुना है आप मौके पर जाकर वस्तुस्थिति देखते हैं। लगे हाथ मेरा भी कुछ भला कर दीजिए ना। दुर्ग के लोगों की तो नहंीं कह सकता लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से आपका ऋणी रहूंगा, जिदंगी भर। मैं नहीं बोलना चाहता था कि यह सब कहूं लेकिन क्या करूं, अब उपेक्षा की अति हो गई है और मेरे इंतजार की इंतहा। इतना कुछ होने के बाद भी मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। किसी का दिल नहीं पसीज रहा है। मेरी हालत पर कुछ तो तरस खाओ। मैं किश्तों में मर रहा हूं। मुझे बचा लो, प्लीज मुझे बचा लो। मैं आपका अपना ही हूं। मैं अब भी सबा अंजुम जैसी कई प्रतिभाओं को निखार सकता हूं। बस, मेरी खैर-खबर ले लीजिए। प्लीज मुझे बचा लीजिए। मुझे बचा लीजिए।
 
साभार - पत्रिका भिलाई के 17 सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Sunday, September 16, 2012

आठ साल बाद बरफी !






 बस यूं ही


लम्बे समय के बाद आज सिनेमाघर गया था। मुद्‌दत हो गई थी सिनेमाघर में फिल्म देखे। दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि आठ साल पहले जोधपुर में फिल्म देखी थी। मुझसे शादी करोगी नाम था उसका। धर्मपत्नी के साथ वह मेरी पहली फिल्म थी और शादी के करीब दो माह बाद देखी थी। हंसना मत शादी के बाद ऐसे टाइटल वाली फिल्म जो देखी थी। खैर, उसके बाद पारिवारिक एवं पेशेगत जिम्मेदारियां इतनी बढ़ी कि कभी फिल्म का ख्याल ही नहीं आया। अब भी नहीं आता लेकिन कुछ योगदान तो टीवी का रहा, जिस पर आजकल रिलीज होने वाली फिल्मों के बारे में खूब दिखाया जाता है। दूसरी भूमिका धर्मपत्नी की रही। उसने बच्चों को मानसिक रूप से तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। यह तो पता नहीं है कि धर्मपत्नी एवं बच्चों के बीच इस मामले में सहमति कैसे एवं क्यों बनी, लेकिन दोनों बच्चे सप्ताह भर से 16 सितम्बर का इंतजार कर रहे थे। इस दिन रविवार होता है यानि कि मेरे साप्ताहिक अवकाश का दिन। साप्ताहिक अवकाश लिए भी तो जमाना बीत गया था। भिलाई आने के बाद ही शुरू किया है। बच्चे सिनेमाघर जाने की जिद करते रहे लेकिन मैंने उनकी बातों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। शनिवार रात को आफिस से घर पहुंचा तब तक बच्चे सो चुके थे। धर्मपत्नी के सामने भी मैंने जानबूझकर चर्चा नहीं की। शायद वह मेरा मिजाज भांप चुकी थी, क्योंकि दो दिन पहले ही मैंने फिल्म के लिए बजट न होने की कह दी थी। भिलाई आने के बाद हाथ इन दिनों कुछ तंग ही चल रहा है। खैर, रविवार का दिन होने के कारण किसी तरह का अलार्म नहीं भरा गया, लिहाजा सुबह सभी देर से उठे। इधर मैं फिल्म शो का टाइम एवं टिकट की व्यवस्था पहले ही कर चुका था। सुबह करीब नौ बजे मैंने कहा कि जल्दी तैयार हो जाओ, फिल्म देखने चलेंगे। मेरा इतना कहते ही दोनों बच्चे खुशी से चहक उठे। धर्मपत्नी के चेहरे पर भी प्रसन्नता के भाव दिखाई देने लगे। वह इतना ही बोली आप भी सरप्राइज देना सीख गए हो।
फिल्म शो का टाइम 11.30 बजे का था। हम चारों निर्धारित समय पर सिनेमाघर पहुंच गए। फिल्म के बारे में हल्की सी जानकारी थी कि इसके नायक का नाम मरफी होता है लेकिन उसको सब बरफी कहकर ही बुलाते हैं। दूसरा कल परसों अखबारों में पढ़ा था कि मरफी रेडियो कम्पनी ने फिल्म निर्माता को नोटिस भेजा है। नोटिस की वजह बिना पूछे मरफी के नाम का उपयोग करना बताया गया था। शायद आप समझ गए होंगे। यहां बात णवीर कपूर की हिन्दी दिवस पर प्रदर्शित फिल्म बरफी की हो रही है। टीवी पर ट्रेलर देखकर बच्चों ने इसे कॉमेडी फिल्म मान रखा था। मुझे भी फिल्म के कथानक के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। इतनी भी नहीं थी कि नायक मूक-बधिर है और नायिका अल्प विकसित दिमाग वाली। शायद इसकी जानकारी पहले होती तो मैं यह फिल्म देखता ही नहीं। लेकिन जो तय हो चुका होता है वह अक्सर होकर रहता है। फिल्म देखने के बाद लगा कि वाकई कई दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखने को मिली और ढाई घंटे बेकार नहीं गए। जब इतनी भूमिका बांध ही दी है तो लगे हाथ कुछ बातें फिल्म की भी बताता चलूं। 
सबसे पहले तो बात फिल्म निर्देशक अनुराग बसु की ही करते हैं। एक सामान्य से विषय को बड़ी शिद्‌दत के साथ पेश किया है उन्होंने। फिल्म आखिर तक दर्शकों को बांधे रखती है। मूक-बधिर नायक की भूमिका में रणवीर कपूर से बसु ने वह काम करवाया है तो संभवतः अभिनेता बोल कर भी नहीं कर पाते। नायक के कुछ इशारे तो इतने जीवंत हैं कि युवाओं के जेहन में लम्बे समय तक जिंदा रहेंगे। मुस्कुराहट तथा प्रेम का इजहार करने के उनके इशारे से एक नया शगल शुरू हो जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं। यकीन मानिए उनके अंदाज आज के युवा अपनाते दिखाई भी दे जाएंगे। जिंदादिल युवक की भूमिका में रणवीर कपूर बिना कुछ कहे ही काफी कुछ कह जाते हैं। निर्देशक ने उनको फिल्म में भले ही मूक-बधिर का किरदार अदा करवाया हो लेकिन उनका अभिनय फिल्म के बाकी कलाकारों पर भारी पड़ा है। वह मूक-बधिर होकर भी दर्शकों से सहानुभूति नहीं बटोरता। वह चंचल है, चपल है, हंसमुख है, बिलकुल मस्तमौला एवं खिलंदड स्वभाव का। वह लापरवाह भी है लेकिन संवेदनशील भी गजब का है। और चालक एवं चतुर कितना है यह बात भला फिल्म में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाने वाले सौरभ शुक्ला से बेहतर कौन जान सकता है। शुक्ला फिल्म के एक दृश्य में कहते भी हैं बरफी उनकी जिंदगी में ना आता तो शायद वे भी एसपी की रैंक तक पहुंच जाते। फिल्म में एक चीज खटकती है, नायक जिंदादिल होने के बाद भी सच्चे प्रेम को समझने में नाकाम हो जाता है। प्रेम का मापने का तरीका भी अजीब सा है उसका। लकड़ी के ऊपर लैम्प बांधकर नीचे बोतल रख देना और उसके बाद लैम्प को बोतल पर गिराता है। नायक के साथ इस दृश्य में अभिनेत्री एलिना डी क्रूज कुछ असहज हो जाती है लेकिन अल्प विकसित दिमाग वाली प्रियंका चौपड़ा यही दृश्य देखकर कुछ नहीं करती। बस इसी पैमाने से नायक यह समझ लेता है कि सच्चा प्यार तो उसे प्रियंका ही करती है। इधर शादी होने के बाद भी एलिना के दिलोदिमाग पर बरफी ही छाया रहता है, लेकिन उसको अपने प्यार का एहसास उस वक्त होता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। 
प्यार बलिदान चाहता है, के फलसफे को एलिना ने फिल्म में बखूबी जिया है। फिल्म के आखिर में प्यार के खातिर वह अपने पति का घर बिना कुछ सोचे एवं झिझके एक झटके के साथ छोड़ कर चली आती है। फिल्म का यह दृश्य भी तो प्रेम को कितना महान बना देता है। यादगार दृश्य है यह। पति कहता है कहां जा रही हो? लेकिन वह रुकती नहीं है और तेजी से घर की दहलीज तक पहुंच जाती है। तभी पति पुनः कहता है कि जहां जा रही है, वहीं रहना, वापस मत आना। लेकिन साहस जुटाते हुए वह पति की इस धमकी को भी अनसुना कर देती है। एलिना एक पल सोचे बिना घर से निकल पड़ती है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। अपने प्रेम की खातिर वह इतना बड़ा बलिदान देती है। इतना ही नहीं बरफी और प्रियंका के बीच के रिश्ते को देखकर वह तत्काल ही हालात से समझौता भी कर लेती है। इतना कुछ होने के बाद भी वह अपना गम जाहिर नहीं होने देती। वह बरफी से इतना प्रेम करती है कि उसको हर पल खुश देखना चाहती है तभी तो वह दोनों की शादी भी करवाती है। फिल्म की शुरुआत भी एलिना से होती है और समापन भी उसी पर होता है। फिल्म दर्शकों को बीच-बीच में कई बार गुदगुदाती है तो कई बार सोचने पर मजबूर भी करती है। फिल्म का अंत दुखद है लेकिन इससे बेहतर एवं दर्शकों की संवेदना पाने का दूसरा कोई विकल्प शायद हो नहीं सकता था। फिल्म में सभी कलाकारों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। प्रियंका ने भी अल्प विकसित दिमाग वाली लड़की की भूमिका में जान डाल दी है। सबसे ज्यादा प्रभावित तो सौरभ शुक्ला ने किया। जो बिना हंसे भी दर्शकों को हंसा देते हैं। हां इतना जरूर है फिल्म के आखिरी दृश्यों में उनका धीर-गंभीर अभिनय एक पल के लिए सोचने पर मजबूर करता है। 
कुल मिलाकर बरफी मौजूदा दौर से बिलकुल अलग फिल्म है। मारधाड़, अश्लीलता, फूहड़ता, द्विअर्थी संवाद तथा आइटम सांग आदि किसी भी चासनी को अपनाए बिना फिल्म अपना संदेश देने में सफल रहती है। कई दिनों बाद आज प्रत्यक्ष देखा कि आज भी ऐसे निर्देशक हैं जो पूरे परिवार के साथ बिना किसी शर्म शंका के देखने वाली फिल्म बनाने का माद्‌दा रखते हैं। इस तरह का प्रयोग करने की हिम्मत रखते हैं। कम डायलॉग होने के बाद भी बरफी हंसाती भी है और रुलाती भी है। प्रेम त्रिकोण के कारण फिल्मों में अक्सर लात व घूंसे चलते हैं लेकिन बरफी में बिना मारधाड़ के इस त्रिकोण को मंजिल तक पहुंचाना अपने-आप में अजूबा है। नायक-नायिका के निशक्त होने के बावजूद उनका भावपूर्ण एवं अर्थपूर्ण अभिनय उनके लिए मील का पत्थर साबित होगा। आखिर में एक बात और। फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु लीक से हटकर विषय का चयन करने और अपनी बात बड़ी असानी के साथ कहने में सफल रहे। आप लोग शायद न जानते हो लेकिन बताता चलूं कि अनुराग बसु का बचपन भिलाई में ही बीता है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी भिलाई में ही हुई है। उनके पिता भिलाई में इप्टा के संस्थापकों में से एक थे। पिता जब मुम्बई गए तो अनुराग भी वहीं चले गए लेकिन बसु भिलाई को भूले नहीं है। वे अब भी भिलाई आते रहते हैं। अगर फिल्म गौर से देखी है या देखना है तो इस बात पर गौर करना कि शुरुआती दृश्य में जब मरफी रेडिया की चर्चा चलती है तो फरमाइश करने वाले लोगों के नाम के साथ भिलाई एवं रायपुर के नाम भी सुनाई देते हैं। कल को फिल्म सफलता के आयाम तय करती है तो यकीन मानिए उससे न केवल फिल्म कलाकारों, निर्देशक बल्कि भिलाई का नाम भी ऊंचा होगा। फिल्म की विषय वस्तु भी भिलाई के ही एक निशक्त स्कूल से ली गई बताई है।  
कुल मिलाकर आठ साल बाद फिल्म देखना सार्थक हो गया। इसके लिए मैं अपनी धर्मपत्नी एवं बच्चों का आभारी हूं, जिन्होंने इस फिल्म के लिए मुझे तैयार किया। संयोग यह भी है कि आठ साल पहले देखी गई फिल्म मुझसे शादी करोगी मैं भी नायिका प्रियंका चौपड़ा ही थी और बरफी में भी वही नजर आई। इतना ही नहीं, उस फिल्म में अक्षय-सलमान व प्रियंका का त्रिकोण था जबकि इसमें रणवीर-एलिना व प्रियंका की कहानी है। फर्क इतना है कि उसमें पूरी तरह कॉमेडी थी जबकि बरफी में बीच-बीच में। मैं अपनी विचारधारा से मेल खाने वाले साथियों से कह सकता हूं कि अगर वे फिल्म देखने की सोच रहे हैं तो देख ही डालिए। एक अलग ही तरह का सुकून एवं आनंद मिलेगा। बिलासपुर के साथी नरेश भगोरिया एवं रणधीर कुमार ने फिल्म देखकर यह रसास्वादन कर लिया। मेरी तरह नरेश भगोरिया भी फिल्म से बेहद प्रभावित हुए। संयोग देखिए मैं जब फिल्म के बारे में लिखने बैठा, ठीक उसी वक्त उनका मेल मिला। अटैच फाइल देखी जो चौंक गया। उन्होंने भी बरफी की समीक्षा लिख कर ही भेजी थी। शीर्षक था शुगर फ्री बरफी। सच ही तो कहा है उन्होंने, जब आज फिल्म हिट करवाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। शुगर रूपी चासनी डाली जाती है फिर भी फिल्में बॉक्स आफिस पर दम तोड़ जाती है। बरफी में किसी तरह की चासनी नहीं है फिर भी वह लोकप्रिय हो रही है। समाज को इसी तरह की फिल्मों एवं निर्देशकों की जरूरत है। साफ-सुथरी एवं प्रेरणादायी फिल्में मौजूदा समय की मांग है। अक्सर सामाजिक प्रताड़ना झेलने वाले निशक्तों के लिए भी यह फिल्म संजीवनी बूटी का काम करेगी। यह फिल्म न केवल उनका मनोबल बढाएगी बल्कि उनको संबल भी प्रदान करेगी।

Saturday, September 15, 2012

समझें मितानिनों का दर्द

प्रसंगवश 

प्रदेश की मितानिनें अपनी मांगों के समर्थन में वैसे तो समय-समय पर आवाज उठाती रही हैं, लेकिन बुधवार को दुर्ग में जो हुआ उससे मान लेना चाहिए कि उनका सब्र अब जवाब देने लगा है। उनके आक्रोश को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य सचिव एवं संचालक मितानिन नोडल अधिकारी के खिलाफ जुर्म दर्ज कराने का निर्णय ले लिया, बल्कि थाने के समक्ष प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार भी किया। मितानिनों का कहना था कि सरकार उनसे बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार कर रही है। वे लम्बे समय से कार्यरत हैं। इस काम का उनको प्रशिक्षण भी दिया गया है, लेकिन मानदेय नहीं मिल रहा है। भले ही मितानिनें समझाइश के बाद लौट गईं, लेकिन यह मामला अब इस तरह से शांत होने वाला नहीं है। दुर्ग से शुरू हुआ विरोध कल को समूचे प्रदेश में फैल जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। देखा जाए तो प्रदेशभर में मितानिनों का बड़ा नेटवर्क है। करीब ६० हजार मितानिनें स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी में अपना योगदान दे रही हैं। मातृ-मृत्युदर एवं शिशु-मृत्युदर को कम करने की राज्य सरकार की महती योजना को अमलीजामा पहनाने की दिशा में मितानिन अंतिम कड़ी के रूप में गिनी जाती हैं। ग्रामीण महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने में मितानिनों का प्रमुख योगदान है। उनकी मदद के बिना मातृ-मृत्यदर एवं शिशु-मृत्युदर में सुधार शायद संभव भी नहीं है। गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण करवाने तथा प्रसूताओं को अस्पताल तक लाने का काम भी उनके ही जिम्मे है। कहने को सरकार ने टीकाकरण एवं प्रसव के लिए उनके लिए पारिश्रमिक तय कर रखा है, लेकिन मेहनत एवं समय को देखते हुए न केवल पारिश्रमिक कम है, बल्कि उसको पाने की प्रक्रिया भी बेहद जटिल है। इन विरोधाभासी नियमों के चलते प्रायः मितानिनों को कुछ नहीं मिल पाता। मानदेय के लिए संघर्षरत मितानिनों की यह दलील भी तर्कसंगत है कि दूसरे प्रदेशों में यही काम एवं जिम्मेदारी निभानी वाली महिलाओं को बाकायदा मानदेय मिल रहा है। 
राज्य सरकार की मितानिनों के प्रति सोच इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि एक तरफ मितानिनों को ग्रामीण इलाकों में होने वाली राजनीतिक सभाओं में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है जबकि दूसरी तरफ उनके लिए हर २३ नवम्बर को मितानिन दिवस मनाया जाता है। यह विरोधाभास क्यों? अगर सरकार को लगता है कि मितानिनें कोई बड़ा काम नहीं रही हैं तो फिर उनको जिम्मेदारी से मुक्त क्यों नहीं कर देती? अगर, उनकी महत्ता को जानती है तो फिर कुछ जिम्मेदारियां बढ़ाकर उनका मानेदय तय करने में हर्ज ही क्या है? स्वास्थ्य मिशन में मितानिनों के योगदान को नजरअंदाज करना या उनको मानदेय न देना एक तरह से सरकार की हठधर्मिता को ही उजागर करता है।
बहरहाल, महिला सशक्तीकरण का नारा देने वाली राज्य सरकार का मितानिनों के प्रति इस प्रकार का सौतेला व्यवहार कतई उचित नहीं है। बिना काम किए ही लोगों को सस्ता चावल देकर वाहवाही बटोरने वाली सरकार को स्वास्थ्य मिशन को गति देने वाली मितानिनों का दर्द तत्काल समझना चाहिए। उनकी न्यायसंगत मांगों पर तत्काल अमल करना चाहिए ताकि उनको मेहनत का वाजिब फल मिल सके। मामले में ज्यादा देरी अब उचित नहीं है।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 15  सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 13, 2012

ऐसे मनाओ मेरा बर्थ-डे


बोले बप्पा 

पृथ्वी लोक पर इन दिनों मेरा जन्मदिन मनाने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। कोई मूर्ति बनाकर बेचने में व्यस्त है तो कोई पंडाल सजा रहा है। कोई निमंत्रण पत्र बांट रहा है तो कोई चंदे की रसीदें काटने में मशगूल है। रंगीन पोस्टर भी युद्ध स्तर पर प्रकाशित हो रहे हैं। जिसको जो जिम्मेदारी मिली है, वह उसको बड़ी ही ईमानदारी व शिद्‌दत के साथ निभा रहा है।
प्यारे भक्तो, आजकल जमाना हाइटेक हो गया है और मेरा जन्मदिन भी। कल दुर्ग शहर में मेरे कुछ भक्त आक्रोशित हो गए। उनका कहना था कि मूर्ति बेचने वाला देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को दुकान से बाहर रखकर उनका अपमान करवा रहा है। इससे भक्तों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। कल-परसों भी मेरे कुछ भक्तों ने मूर्ति बनाने वाले कलाकारों को मूर्तियां संयमित व परम्परागत तरीके से बनाने की हिदायत दी थी। चूंकि मामला मेरे से ही जुड़ा है लिहाजा पूछना भी लाजिमी है। तालपुरी में विसर्जित की जाने वाली मेरी प्रतिमाएं साल भर अपनी बदहाली पर आसूं बहाती हैं। कितनी गंदगी पसरी है वहां पर। जितनी ऊर्जा रास्ता रोकने और प्रदर्शन करने में लगाते हो, उतनी श्रमदान करके सफाई करने में लगा दो तो कितना अच्छा लगेगा मुझे। आप मानते हो कि मैं तो सर्वव्यापी हूं। कण-कण में विराजमान हूं। और यह भी कहते हो कि प्रतिमा अगर विधि विधान से प्रतिष्ठापित नहीं है तो फिर वह प्रतिमा ही कैसी? आप लोगों का यह विरोधाभास मेरी समझ में नहीं आया। मेरी परम्परागत तरीके से बनाई गई प्रतिमाएं ही खरीदने का संकल्प भी अगर आप ले लो तो फिर कोई क्यों ऐसी प्रतिमाएं बनाएगा। आप भी तो पोस्टरों में मेरे से बड़ी फोटो और नाम खुद का लगवा लेते हो। मैं तो कहीं दिखाई ही नहीं देता।
प्यारे भक्तो, मैं तो समय-समय पर आपकी नासमझी और नादानी पर पर्दा डाल देता हूं लेकिन जब बात चली है तो कह देता हूं कि मेरा जन्मोत्सव मनाने के नाम पर जोर-जबरदस्ती और धमकी-चमकी देकर चंदा उगाहने वाले भी तो आप ही हैं। कल आप लोग रास्ता रोककर पंडाल लगा देंगे। चोरी की बिजली से झांकी सजाएंगे। झांकी दिखाने के लिए सशुल्क टिकटें कटेंगी। ध्वनि प्रदूषण भी खूब होगा। पंडाल में मेरे दर्शन करवाने में भी भेदभाव होगा।
प्यारे भक्तों, मेरे लिए तो आप सब समान हैं। मैं तो किसी में भेद नहीं करता। माना जन्मदिन मनाना जरूरी है लेकिन मेरे नाम से इस प्रकार के काम भी तो मत करो। पैसे की इतनी बर्बादी क्यों एवं किसलिए? मैं तो भाव एवं प्रेम का भूखा हूं। जो सच्चे मन से याद कर लें मैं तो उसी का हूं। और अगर मेरा जन्मदिन ही मनाना है तो कुछ अलग अंदाज में मनाओ। किसी गरीब की मदद करो। किसी भूखे को भोजन कराओ। किसी असहाय को सहारा दो। अगर आप ऐसा करोगे तो बहुत खुशी होगी मुझे। और जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफा भी।
 
साभार -पत्रिका भिलाई के 13 सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Wednesday, September 12, 2012

इस्पात सी उम्मीदें, मोम सी पिछली

दूसरा पहलू 

मांगों उसी से, जो दे खुशी से, और कहे सभी से, भिलाई महापौर निर्मला यादव ने यह जुमला मुख्यमंत्री से मुखातिब होते वक्त इस उम्मीद के साथ सुनाया था कि वे भिलाई को विकास की कुछ सौगात तो देकर ही जाएंगे। महापौर उम्मीद और आत्मविश्वास से लबरेज इस कदर थी कि उन्होंने दलगत राजनीति से ऊपर उठने का साहस दिखाकर मुख्यमंत्री की प्रशंसा के पुल भी बांध दिए। भिलाई के लिए कुछ पाने की हसरत में उन्होंने मुख्यमंत्री को अभिनंदन पत्र और गुलदस्ता भी दिया। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने सार्वजनिक मंच पर बिना किसी झिझक के मुख्यमंत्री के चरण स्पर्श भी किए। महापौर की शायरी के माध्यम से की गई मांगों का जबाव मुख्यमंत्री ने शायराना अंदाज में तो दिया लेकिन उन्होंने अपनी झोली का मुंह नहीं खोला। वे खुशी-खुशी बोले जरूर लेकिन खुशी से कुछ दिया नहीं। उनका भाषण भिलाई के विकास पर कम बल्कि राज्य सरकार की योजनाओं पर ही ज्यादा केन्द्रित रहा। महापौर की मांगों के जवाब में मुख्यमंत्री एवं नगरीय प्रशासन मंत्री ने शब्दों के जाल में ऐसा भरमाया कि गेंद मांग करने वालों के पाले में ही डाल दी। नेताओं ने कोई घोषणा करने की बजाय उल्टे महापौर को ही नसीहत दे दी कि निगम में बहुत पैसा है, पहले इसको खर्च करो तो और मिल जाएंगे। राज्य सरकार के पास विकास के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है। दोनों नेताओं ने एक बात पर बेहद जोर दिया कि विकास कार्यों में राजनीति नहीं होनी चाहिए तथा विकास को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री तो यह तक कह गए कि महापौर ने सौ करोड़ के बजट की मांग करके कम ही मांगा है, वे तो भिलाई को सौ करोड़ से ज्यादा राशि देने में विश्वास रखते हैं। यह अलग बात है कि देने के नाम उन्होंने एक रुपए की घोषणा भी नहीं की। 
महापौर की हां में हां मिलाते हुए सांसद सरोज पाण्डे ने भी भिलाई के चार इलाकों यथा खुर्सीपार, हुडको, रिसाली एवं कैम्प के लिए विशेष पैकेज की मांग की लेकिन नगरीय प्रशासन मंत्री इस मामले को भी बड़ी चतुराई के साथ घुमा गए। बाद में मुख्यमंत्री ने भी नगर प्रशासन मंत्री का हवाला देकर मुद्‌दे की गंभीरता को ही खत्म कर दिया। दोनों नेताओं के सम्बोधन में एक मामले में समानता नजर आई। दोनों ने ही कहा कि भिलाई में विकास के बहुत कार्य हुए हैं और बहुत होने बाकी हैं लेकिन क्या हुआ है और क्या होना है, इस पर उन्होंने कुछ नहीं बोला। वैसे विकास कार्यों के भूमिपूजन कार्यक्रम में बहुत से लोग इसी उम्मीद से आए थे कि संभवतः प्रदेश के मुखिया आज लम्बे समय से उपेक्षित शिक्षा नगरी को कुछ सौगात देकर जाएंगे। लेकिन शब्दों की कलाकारी एवं बयानों की बाजीगरी को देखकर शिक्षानगरी के लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। उनकी इस्पात सी उम्मीदें पल भर में मोम सी पिघल कर रह गई। सोचनीय स्थिति तो उस वक्त हो गई जब मुख्यमंत्री ने महापौर को भिलाई की बेटी कहकर पुकारा तो जरूर लेकिन बेटी के दामन को वे खाली ही छोड़ गए। विकास कार्यों को राजनीतिक चश्मे से न देखने की सलाह देने वाले खुद कई तरह के सवाल भी पैदा कर गए।

साभार - पत्रिका भिलाई के 12 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, September 11, 2012

हाजिर जवाब हरियाणवी

बस यूं ही

हरियाणवी बोली का अंदाज ही ऐसा है कि इसको सुनने वाले की हंसी बरबस छूट ही जाती है। यही इस बोली की खासियत भी है। इसका लहजा ही ऐसा है कि इसके एक-एक शब्द में हास्य दिखाई देता है। यकीन नहीं है तो हिन्दी भाषा का कोई भी वाक्य या डॉयलोग हरियाणवी में सुनकर देख लीजिए। एक अलग ही तरह के आनंद की अनुभूति होती है, इसको सुनने में। अपने सहज एवं सरल स्वभाव के चलते हरियाणा के लोग अपनी बात बिना कोई भूमिका बांधे बिलकुल सीधे-सपाट शब्दों में कह देते हैं। कई लोगों को इस प्रकार की बातचीत बेहद अखरती है लेकिन हकीकत में देखा जाए तो ऐसा है नहीं। नागौर एवं जोधपुर के कई साथी एवं परिचित तो हमारे जिले झुंझुनूं को हरियाणा ही बोलते हैं। उनकी बातों में कुछ सच्चाई भी है कि क्योंकि झुंझुनूं जिला हरियाणा की सीमा से न केवल सटा है बल्कि दोनों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता भी है। झुंझुनूं की काफी रिश्तेदारियां हैं हरियाणा में। हर दूसरे या तीसरे घर में हरियाणा का रिश्ता मिल जाएगा। विशेषकर झुंझुनूं जिला मुख्यालय से पूर्व में स्थित इलाके में तो हरियाणवी संस्कृति के साक्षात दर्शन ही होते हैं। तभी तो बसों एवं घरों में जिस अंदाज में राजस्थानी गीत गूंजते हैं, उससे कहीं ज्यादा हरियाणवी गीत बड़ी शिद्‌दत के साथ सुने जाते हैं। हट ज्या ताऊ पाछै न...जैसे गीत ने तो लोकप्रियता का एक अलग ही इतिहास ही गढ़ दिया।
कोई राजस्थान का वाशिंदा होकर हरियाणवी का इतना पक्षधर होकर हो सकता है, इस बात पर भले ही कोई आश्चर्य करें लेकिन बता दूं कि भाषा किसी की बपौती नहीं होती है। भाषा उसी की है जो बिलकुल मस्त होकर स्वाभाविक रूप से बोलकर उसका आनंद उठाता है। मुझे हरियाणवी सुनने और बोलने में एक अलग तरह का सुकून मिलता है। विशेषकर हरियाणवी चुटकुले तो मैं अक्सर अपने दोस्तों के साथ शेयर करता रहता हूं। यकीन मानिए अगर मैं हरियाणवी बोलने लगूं तो हरियाणा के लोग ही मुझे राजस्थानी कहने से इनकार कर देंगे। खैर, हरियाणवी का पक्षधर होने की सबसे बड़ी वजह तो यही है कि मेरा ननिहाल हरियाणा में है। ननिहाल भी कोई ऐसा-वैसा गांव नहीं बल्कि बेहद चर्चित गांव है। हाल ही में भारतीय सेना के सर्वोच्च पद से रिटायर हुए जनरल वीके सिंह का गांव बापौड़ा ही मेरा ननिहाल है। जी हां बिलकुल सही पहचाना आपने भिवानी से तोशाम जाने वाली सड़क पर पहला स्टैण्ड है बापौड़ा। अब तो बापौड़ा एवं भिवानी की सीमाएं एकमेक हो गई हैं पता नहीं चलता है दोनों का। बचपन में गर्मियों की छुटि्‌टयां अक्सर ननिहाल में गुजरती थी। बैलगाड़ी में बैठकर जोहड़ तक जाना। जोहड़ के पानी में नहाना, अठखेलियां करना। ननिहाल के हम उम्र साथियों के साथ खेलना तथा खूब मस्ती करना कल की सी बातें ही तो लगती हैं। खैर, बचपन के बाद मेरे से बड़े दोनों भाइयों का रिश्ता भी हरियाणा में ही हुआ। एक का भिवानी-चरखीदादरी रोड पर स्थित हालुवास गांव में तो दूसरे का महेन्द्रगढ़-नारनौल मार्ग पर स्थित खुडाना गांव में। रिश्तेदारियों में भी खूब आना जाना होता रहा है। कहने का सार यही है कि मुझे हरियाणवी संस्कार बचपन से मिले हैं। न मैं हरियाणा के लिए अनजाना हूं और ना ही हरियाणा मेरे लिए। 
हास्य की बात इसलिए याद आ गई कि मंगलवार सुबह बड़ी भाभीजी से फोन पर बात हो रही थी। बड़े भाईसाहब दिल्ली सपरिवार रहते हैं। भाभीजी काफी समय से घुटनों के दर्द से परेशान थी, लिहाजा भिवानी आ गई। वहां उनका इलाज चल रहा है। वे मायके में ही ठहरी हुई हैं। बातों-बातों में मैंने उनको उलाहना दे दिया कि आपके मायके के लोग कभी बात ही नहीं करते हैं। मेरी बात सुनकर भाभीजी ने तत्काल फोन अपने पिताजी को दे दिया। भाभीजी के पिताजी सीनियर स्कूल में हैडमास्टर थे। अब रिटायर हो चुके हैं। आसपास के गांवों उनकी अच्छी जान-पहचान है। उनकी हर बात में हास्य है। उन्होंने हालचाल पूछे तो मैंने कहा कि आप तो भूल ही गए। मेरा इतना ही कहते ही उन्होंने पलटवार किया.. बोले आप कौनसा याद करते हो। आज आपकी भाभी यहां है तो याद कर लिया वरना आप कब फोन करते हो। फोन नम्बर भी नहीं है आपके। उनका जवाब सुनकर मैंने कहा कि फोन नम्बर लेना कोई मुश्किल काम तो नहीं है। आप कहीं से भी मेरे नम्बर लेकर फोन कर सकते थे। मेरा इतना कहते वे बोले नम्बर क्या रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। उनकी हाजिर जवाबी से मैं निरुत्तर हो गया और मन की मन मुस्कुराने लगा। फोन पर मेरा जवाब ना पाकर उन्होंने फोन भाभीजी को दे दिया। मेरी हंसी अब रफ्तार पकड़ चुकी थी। भाभीजी को फोन पर ठीक है फिर..., कह कर मैं इतना हंसा कि पेट में बल पड़ने लग गए। सही तो कहा उन्होंने फोन नम्बर क्या रेलवे स्टेशन पर मिलते हैं। वैसे पता उनको भी था ऐसा हकीकत में नहीं होता है लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि हरियाणा में हास्य बात-बात में है और हाजिरजवाबी भी। और वैसे भी तनाव एवं भागदौड़ भरी जिंदगी में किसी को बातों ही बातों में हंसा देना किसी कला से कम नहीं है। मैं कायल हूं इस कला का।

उचित नहीं अनदेखी

  टिप्पणी

 राज्य के मुखिया मंगलवार को भिलाई आ रहे हैं। मूलभूत सुविधाओं से संबंधित कार्यों का भूमिपूजन करने। काम कब शुरू होंगे, इसका कोई अता-पता नहीं है। न काम शुरू होने की तिथि ना खत्म होने की समय सीमा। लेकिन बड़ी ही होशियारी के साथ सभी कामों की गिनती एवं उनके संभावित खर्चे का आकलन जरूर कर लिया गया है। कुल 70 करोड़ रुपए के 182 कार्यों का भूमिपूजन करेंगे। कार्यों का भूमिपूजन भी अपने आप में अनूठा है। यह बिना वर्क ऑर्डर जारी हुए ही हो रहा है। निगम अधिकारियों की दलील है कि ऐसा सकता है, लेकिन जानकारों को यह खटक रहा है। निगम का इतिहास बता रहा है कि पिछले साल उसने स्वीकृत राशि का केवल 26 प्रतिशत की खर्च किया। सोचा जा सकता है 70 करोड़ कब तक खर्च होंगे। बात इसलिए भी जम रही है क्योंकि 2010 में भी कुछ इसी अंदाज में भूमिपूजन किया गया था। यह काम भी मुख्यमंत्री के कर कमलों से ही सम्पादित हुआ था। कुल 85 करोड़ रुपए के 84 कार्य होने थे। क्या हश्र हुआ उनका, सब जानते हैं। कुछ काम तो अभी तक चल रहे हैं। जो हुए वे गुणवत्ता का रोना रो रहे हैं। आंसू बहा रहे हैं, अपनी बदहाली पर। तभी तो मुख्यमंत्री की यात्रा को लेकर आम आदमी में कोई जोश नहीं है। हो भी कैसे। विकास कार्यों का बानगी और उसका हश्र वह देख चुका है। हर बार वादे एवं आश्वासन ही तो मिले हैं उसको। हुडको तो ज्वलंत उदाहरण है इसका। बुनियादी सुविधाओं के लिए फुटबाल बने हुए हैं, वहां के लोग। देने के लिए भिलाई के लिए बहुत कुछ हो सकता है। संभव है भूमिपूजन कार्यकम में कुछेक की घोषणाएं भी हो जाएं लेकिन घोषणाओं का इतिहास भी उजला नहीं है। भिलाई के लोग तो यही चाहते हैं कि घोषणाओं पर अतीत हावी न हो। वो अपने अंजाम तक पहुंचे। देखा जाए तो राज्य सरकार ने आखिर ऐसा दिया भी क्या है भिलाई को। वैश्विक फलक पर छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाला तथा खेलों में एक से बढ़कर एक नायाब हीरे देने वाला भिलाई शहर विकास के मामले में राज्य सरकार की मदद का मोहताज ही रहा है। जो पहचान है वह खुद के दम पर ही तो है भिलाई की। आजादी के 65 साल बाद भी शहर में मूलभूत सुविधाओं में विस्तार के कार्य ही हो रहे हैं, कितना हास्यास्पद लगता है यह सब सुनकर। शिक्षानगरी के साथ हमेशा सियासत ही हुई है, वरना करने को बहुत कुछ किया जा सकता है यहां पर।
बहरहाल, प्रदेश के मुखिया अगर भिलाई को लेकर वाकई गंभीर हैं तो वे ऐसा कुछ करें कि उदास एवं नाउम्मीद लोगों में उत्साह का संचार हो। सियासत के मारो के साथ अब और सियासत ना हो। उनको काम चाहिए, घोषणाएं, वादे या भूमिपूजन नहीं। समय के साथ आकार लेते भिलाई में भविष्य की जरूरतों पर अभी से विचार किए जाने की जरूरत है। लगातार अनदेखी उचित नहीं है। जरूरत है भिलाई के दर्द को समझने। मुखिया होने के नाते घोषणाएं करना कोई बड़ी बात नहीं है जरूरत है उनको समय पर अमलीजामा पहनाने की। ऐसा ना हो कि वादे सिर्फ वादे ही रह जाएं और लोग फिर अपने आप को ठगा सा महसूस करें।

साभार- पत्रिका भिलाई के 11 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Monday, September 10, 2012

हिन्दी इतनी हीन क्यों?



बस यूं ही

 

सोमवार दोपहर को दोनों बच्चे स्कूल से लौट आए थे। धर्मपत्नी जरूरी सामान की खरीदारी के चलते बाजार गई थी, लिहाजा दोनों बच्चों को बस से लेकर मैं ही आया। वैसे ईमानदारी से कहूं तो बच्चों से संबंधित सारे काम धर्मपत्नी ही देखती है। कभी-कभार जरूर कुछ काम कर लेता हूं लेकिन वह भी बच्चों को बस से घर तक लाने का ही होता है। बच्चों को सुबह जगाने, नहलाने एवं तैयार कर स्कूल बस तक
छोड़ने का काम वही करती है। इसके बाद बच्चों को खाना खिलाने तथा उनको गृह कार्य कराने का काम भी वो ही सम्भालती है। दोपहर को बाजार से आने के बाद उसने बड़े बेटे योगराज से रोजाना की तरह स्कूल तथा गृह कार्य के बारे में पूछा। योगराज ने बताया कि मैडम ने हिन्दी का कुछ काम करवाया था लेकिन उसको बैग में अभ्यास पुस्तिका नहीं मिली। धर्मपत्नी ने झुंझलाहट में उसे हल्का सा डांटा तो वह बोला मम्मा अभ्यास पुस्तिका तो बैग के अंदर ही थी लेकिन दूसरी अभ्यास पुस्तिका ऊपर आ जाने के कारण जल्दबाजी में उसे देख नहीं पाया। इस पर मैडम ने दूसरे विषय की अभ्यास पुस्तिका में कुछ नोट लिख दिया। धर्मपत्नी ने उत्सुकतावश योगराज से वह अभ्याय पुस्तिका दिखाने को कहा, तो उसने तत्काल बैग से पुस्तिका को बाहर निकाला और मम्मा को दिखा दी। पुस्तिका पर मैडम का नोट देखकर धर्मपत्नी एकदम अवाक रह गई। वह गुस्से में बड़बडा़ई, यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? धर्मपत्नी के बोल सुनकर मैं एकदम चौंक गया। संयोग से मैं उस वक्त उसी कमरे में छोटे बेटे एकलव्य के साथ कुछ मस्ती कर रहा था।
धर्मपत्नी की गंभीर बातें सुनकर मेरा ध्यान भंग हो गया। ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि हिन्दी मेरा सबसे पसंदीदा विषय रहा है और अब भी है। हिन्दी के प्रति लगाव बचपन से ही था। इतना लगाव था कि श्रुतिलेख में भी मास्टरजी शायद की कोई गलती ढूंढ पाते थे। पारिवारिक माहौल बचपन से ही ऐसा था कि पढ़ने के लिए घर में पर्याप्त सामग्री मिली। तभी तो हिन्दी में दसवीं, बारहवीं और बाद में स्नात्तक परीक्षा में अनिवार्य तथा हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक अंक हासिल किए। सच मानिए मुझे हिन्दी से बहुत प्रेम है। दीवारों पर कभी कुछ गलत या अशुद्ध लिखा हुआ देखता हूं तो बड़ी पीड़ा होती है। गुस्सा भी बहुत आता है कि सिर्फ हस्तलेखन सुंदर होने से ही कोई पेंटर थोड़े बन जाता है। शुद्ध लेखन के लिए हिन्दी का ज्ञान तो उसके लिए भी जरूरी है। खैर पुनः विषय वस्तु पर लौटता हूं। मैंने धर्मपत्नी से पूछा आखिर ऐसा क्या हो गया जो हिन्दी के सम्मान में इस तरह का सम्बोधन किया जा रहा है। मेरी बात सुनकर उसने अभ्यास पुस्तिका दिखाते हुए कहा कि ... देखो हिन्दी की मैडम को तो कम से हिन्दी में लिखना चाहिए लेकिन इसने भी अंग्रेजी में ही नोट लगाया है। मैंने कहा, क्या लिखा है ऐसा.. बोली हिन्दी की मैडम ने अंग्रेजी में लिखा है... प्लीज सेंड हिन्दी कॉपी। यह सब जानकार मैं थोड़ा गंभीर हो गया। हिन्दी की मैडम का अंग्रेजी प्रेम देखकर मन में कई तरह के ख्याल आने लगे। और फिर मैं सोच में ही डूब गया। पता नहीं क्या-क्या सोचने लगा...।
सोच रहा था हिन्दी दिवस भी तो इसी सप्ताह आने वाला है 14 सितम्बर को। बचपन से मनाते आए हैं, इसलिए 14 सितम्बर को कैसे भूल सकते हैं। वैसे हिन्दी प्रेमियों को हिन्दी दिवस के आसपास ही हिन्दी का ज्यादा ख्याल आता है। खैर, बात हिन्दी दिवस की करें तो क्या-क्या नहीं होगा इस दिन। कामकाज हिन्दी में करने के संकल्प लिए जाएंगे। खूब शपथ ली जाएगी। हिन्दी के लिए जनजागरण विषयक रैलियां निकलेंगी। वाद-विवाद, निबंध और भी न जाने कितने ही आयोजन-प्रयोजन होंगे हिन्दी के नाम पर। लब्बोलुआब यह है कि इस दिन हिन्दी का खूब गुणगान होगा। महिमा बतार्इ जाएगी, चौक चौराहों पर बैनर टगेंगे। होर्डिंग्स लगेंगे। बाद में साल भर यही होर्डिंग्स हिन्दी की अहिन्दी करते हैं। अपनी बदहाली पर आंसू बहाते हैं। कोई हटाता भी नहीं तो कोई ठीक भी नहीं करता इनको। रह-रहकर मेरे कानों में धर्मपत्नी के बोल गूंज रहे थे...। यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? सचमुच एक दिन विशेष में कैद करके हमने हिन्दी को हीन नहीं तो और क्या बनाया है। दिन विशेष में कैद करके से उसकी महत्ता व विशेषताओं को एक दायरे में कैद ही तो कर दिया है हमने। हिन्दी के लिए एक दिन तय करने के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क होंगे लेकिन मैं इससे न तो सहमत हूं और ना ही इसका पक्षधर हूं। मेरे हिसाब से तो हिन्दी की महिमा साल भर गाई जाए तो भी कम है। और अगर हम हिन्दी दिवस की दिन करने वाला गुणगान रोजाना करना शुरू कर दें तो यकीन मानिए हमारी हिन्दी सिरमौर होगी।

Saturday, September 8, 2012

नींव के असली पत्थर

प्रसंगवश

हाल ही में बेमेतरा जिले के कुमारी देवी चौबे शासकीय स्कूल, देवरबीजा में पदस्थ अध्यापक टीकाराम साहू का स्थानांतरण विद्यार्थियों को इतना नागवार गुजरा कि वे बेहद आक्रोशित हो गए। विद्यार्थी इतने गुस्से में थे कि अपने प्रिय अध्यापक का तबादला रुकवाने के लिए २१ किलोमीटर पैदल चलकर जिला मुख्यालय तक पहुंच गए और प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर ही दम लिया। शिक्षक के प्रति विद्यार्थियों का इतना लगाव यूं ही या यकायक पैदा नहीं हुआ, बल्कि इसमें शिक्षक की लम्बी साधना, सकारात्मक सोच, मेहनत एवं दूरदृष्टि का प्रमुख योगदान रहा है। पुत्री के आकस्मिक निधन के बाद साहू की जिंदगी की दिशा ही बदल गई। पुत्री की स्मृति में उन्होंने नौ लाख रुपए खर्च करके स्कूल भवन बनवाया। यह राशि जुटाने के लिए उन्होंने अपना घर तक बेच दिया। गरीब बच्चों के लिए तो वे भगवान से कम नहीं। उनकी पढ़ाई का समस्त खर्चा भी वे अपनी जेब से वहन कर रहे थे। इस प्रकार विद्यार्थियों को अपने बच्चों तथा विद्यालय को परिवार की तरह मानने वाले शिक्षक का तबादला अखरना स्वाभाविक भी था। इसी जिले का एक और उदाहरण है, जो गुरु-शिष्य के संबंध को प्रगाढ़ करने की मिसाल पेश करता है। ग्राम बिलाई के शासकीय स्कूल में मध्यान्ह भोजन के बाद बच्चे एक-एक कर बेहोश होने लगे। उनको तत्काल अस्पताल में भर्ती कराया। गया। यह सिलसिला दूसरे दिन भी चला। मासूमों की हालत देखकर स्कूल में कार्यरत शिक्षाकर्मी निराकार पाण्डे इतने व्यथित हुए कि वे दो दिन तक बिना कुछ खाए सिर्फ चाय-पानी के सहारे बच्चों की सेवा सुश्रुषा में जुटे रहे। विद्यार्थियों के ठीक होने तथा सकुशल होकर घर लौटने के बाद ही पाण्डे अपने घर गए। उक्त दोनों घटनाक्रम यह साबित करने के लिए काफी हैं कि प्रतिस्पर्धा भरी जिंदगी के बावजूद आज भी ऐसे शिक्षक हैं, जो अपने गुरुतर धर्म का निर्वहन ईमानदारी के साथ कर रहे हैं। ऐसे ही लोग हैं, जो शिक्षा जगत में आ रही गिरावट को रोकने के लिए चट्‌टान की तरह अडिग खड़े हैं तथा प्रतिकूल हालात के बावजूद शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। दोनों शिक्षक न केवल अपने पेशे को गौरवान्वित कर रहे हैं बल्कि मानवता एवं इंसानियत के सच्चे सेवक की भूमिका भी बखूबी निभा रहे हैं। वाकई साहू और पाण्डे का विद्यार्थियों के प्रति स्नेह एवं समर्पण अपने आप में जीती जागती नजीर है। अपने मूल्यों एवं आदर्शों से समझौता किए बगैर सरस्वती के मंदिरों में शिक्षा की लौ प्रज्वलित करने वाले ऐसे गुरुओं से बाकी शिक्षकों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए।
बहरहाल, अर्थ प्रधान एवं भागदौड़ भरी जिंदगी में सब कुछ बदल गया है। गुरु-शिष्य के संबंध भी इससे अछूते नहीं है। मौजूदा दौर में तो गुरु-शिष्य संबंधों की मिसाल देने के लिए उदाहरण तक का अकाल पड़ जाता है। इस काम के लिए अब भी प्राचीन काल के गुरुओं एवं शिष्यों के नाम गिनाए जाते हैं। शिक्षक दिवस पर राज्य स्तर पर सम्मानित होने वाले शिक्षकों की सूची में साहू एवं पाण्डे जैसे अध्यापकों के नाम न होना वाकई किसी अचम्भे से कम नहीं है। देखा जाए तो शिक्षक सम्मान के वास्तविक हकदार तो ऐसे ही लोग हैं, एकदम नींव के असली पत्थर हैं। शासन-प्रशासन ऐसे शिक्षकों को नजरअंदाज करते रहे तो फिर शिक्षा के मूल्यों एवं आदर्शों को पुनर्स्थापित करने का सपना पूरा कैसे हो पाएगा।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 08  सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 6, 2012

इधर भी तो देख लीजिए...


 टिप्पणी


माननीय, एस. चंद्रशेकरन जी
सीईओ, भिलाई स्टील प्लांट।

आपने ऐसे समय में सीईओ का दायित्व संभाला है, जब भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी) को रिकॉर्ड दसवीं बार प्रधानमंत्री ट्रॉफी से नवाजा गया है। यह ट्रॉफी क्यों व कैसे मिलती है, यह बात  भले ही आमजन के लिए जिज्ञासा भरी हो, लेकिन आप इससे अनजान नहीं हैं। बतौर मुखिया
होने के नाते आपको तथा आपके मातहतों के लिए प्रधानमंत्री ट्रॉफी मिलना गर्व एवं खुशी की बात है, लेकिन यह खुशी उस मोर के जैसी है, जो अपने पंखों को देखकर इतराता है, खुश होता है और नाचता है लेकिन जब वह अपने पैरों को देखता है तो रोने लगता है। बीएसपी के हालात भी कमोबेश उस मोर के जैसे ही हैं। यहां आने वालों को सिर्फ वही दिखता है, जो उनको दिखाया जाता है। चाहे वह प्रधानमंत्री ट्रॉफी के सिलसिले में यहां आने वाली टीम हो या फिर आप जैसे मुखिया। इन सब के लिए एक दायरा बना दिया गया है। यहां आने वाले बस उसी दायरे में सिमट कर जाते हैं। अफसर एवं आम बीएसपीकर्मी के बीच एक अजीब सी लक्ष्मण रेखा खींच दी जाती है। एक पक्ष मजबूरी के चलते तो दूसरा पक्ष दायरे में सिमटने के कारण एक दूसरे के नजदीक नहीं आ पाता और सच हमेशा छिपा हुआ ही रह जाता है। इसमें दोष आपका नहीं, इस कुर्सी का एवं इसके आभामंडल का है।
अब देखिए ना, आपसे आसानी से मिलना आम बीएसपीकर्मी के लिए तो सपने जैसा ही है। आप तक पहुंचने के लिए कितने चरणों से होकर गुजरना पड़ता है उसको। इतनी चाक चौबंद सुरक्षा है कि माशाअल्लाह परिंदा भी पर नहीं मार सकता। इतने बड़े पद के लिए ऐसी सुरक्षा लाजिमी भी है लेकिन जेहन में टाउनशिप की सुरक्षा व्यवस्था का ख्याल भी तो जरूरी है। कौन यहां कब और क्यों आ-जा रहा है, इसकी खबर कोई नहीं रख रहा है। आपके मातहत बेफिक्र हैं। कायदे कानून ताक पर रखकर बीएसपी के आवास आम आदमी को किराये पर आसानी से सुलभ हो रहे हैं। किरायेदार कौन है, कहां से आया है, क्या पृष्ठभूमि है, इस बात की जरा सी भी पूछ परख नहीं होती। कई जगह तो प्रकाश व्यवस्था भी बदहाल है। बिलकुल घुप अंधेरा पसरा रहता है। ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
खैर, बात अकेली सुरक्षा व्यवस्था की नहीं है। बीएसपी के टाउनशिप इलाके में कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। बुनियादी सुविधाएं तक मयस्सर नहीं हो पा रही हैं यहां रहने वालों को। कई जगह तो सड़कें ही नहीं बन पाई हैं। बीएसपी की चिकित्सा व्यवस्था स्टाफ एवं संसाधनों के अभाव में खुद बीमार होने के कगार पर है। आपने ही बताया कि सेलम में एक हजार कर्मचारियों पर मेडिकल सुविधाओं के लिए करीब आठ करोड़ रुपए खर्च होते हैं, लेकिन बीएसपी के कर्मचारियों व उनके परिजनों पर खर्च होने वाली राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। सबसे बड़ी समस्या तो आवासों की है। टाउनशिप के आवास इतने जर्जर हो चुके हैं कि उनमें घास तक उग गई है। आवासों में बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। उनसे टपकता बारिश का पानी एवं रोज-रोज उखड़ता प्लास्टर यकीनन इनमें रहने वालों के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। रोज भगवान से अपनी सलामती की दुआ मांगते हैं यहां के लोग। जितना डर प्लांट में जाते नहीं लगता उससे कहीं ज्यादा इन आवासों में रात बिताते लगता है। इतना ही नहीं बीएसपी की जमीन एवं आवासों पर रसूखदारों का कब्जा है। आपके मातहतों में इतनी इच्छाशक्ति नहीं कि उनको यहां से बेदखल कर दें। ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि आपके कई मातहत बलात कब्जे एवं अतिक्रमण करने के खेल में शामिल होने के आरोपों से घिरे हुए हैं। उनको बीएसपी के हित से बड़ा खुद का हित नजर आता है। श्रमिकों की भलाई की दुहाई देने वाले संगठन एवं यूनियनें भी इस मामले में खामोश हैं। उनका बीच-बीच में बोलकर अचानक चुप हो जाना भी संदेह को जन्म देता है।
बहरहाल, बीएसपी का उत्पादन बढ़ाना अपने आप में बड़ी बात व उपलब्धि है लेकिन किसकी कीमत पर? उत्पादन बढ़ाने में योगदान देने वालों को लम्बे समय तक उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। आखिर असली मेहनत भी तो उन्हीं की है। प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उल्लेखनीय प्रदर्शन व बेहतर परिणाम देने वालों  की खैर-खबर लेना निहायत जरूरी भी है। मुखिया होने के नाते प्लांट की तरह टाउनशिप इलाके के स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी, सफाई, आवास, पार्क, मैदान आदि का हाल देखेंगे तो आप माजरा समझ जाएंगे। निरीक्षण भी आप बिना बताए अपने स्तर पर आकस्मिक करेंगे तो ही आप अपने मातहतों की कारगुजारियों तथा असलियत को भली प्रकार से जान पाएंगे। इसके अलावा आप बीएसपी कर्मचारियों के साथ माह में बार सीधा संवाद रखने जैसा कोई कार्यक्रम भी रख सकते हैं, ताकि सही एवं निष्पक्ष फीडबैक आप तक पहुंच सके। समय-समय पर औचक निरीक्षण एवं सीधा संवाद रखने का काम ईमानदारी से कर लिया तो यकीन मानिए न केवल बीएसपीकर्मियों बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए आप बहुत ही बड़ा काम कर जाएंगे। वरना अन्य मुखियाओं की तरह सूची में आपका नाम जुड़ना तो वैसे भी तय है।
 
साभार - पत्रिका भिलाई के 06 सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, September 1, 2012

दूध की दर में अंतर क्यों

प्रसंगवश

भिलाई में दूध उत्पादक पशुपालक संघ ने दूध के दामों में पांच रुपए की वृद्धि करने की घोषणा की है। नई वृद्धि के बाद गाय का दूध 30 के बदले 35 तथा भैंस का दूध 32 की जगह 37 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिलेगा। वृद्धि की दर एक सितम्बर से लागू हो रही है। दरों में बढ़ोतरी के पीछे तर्क दि

या जा रहा है कि दिनोदिन आसमान छूती महंगाई के कारण पशुओं का चारा व पशु आहार महंगा हो गया है। दूध की वर्तमान कीमत से पशुपालकों की लागत वसूल नहीं हो पा रही है। ऐसे में उनके समक्ष परिवार के भरण-पोषण का संकट खड़ा हो गया है। दूध के दामों में हुई इस बढ़ोतरी ने निसंदेह उपभोक्ता की चिंता भी बढ़ा दी है। उपभोक्ताओं में चिंता केवल भावों में वृद्धि के लिए ही नहीं बल्कि दूध की अलग-अलग कीमतों को लेकर भी है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि महंगाई का असर क्या उन पर नहीं होता, जो दूध को 30 रुपए प्रति लीटर से भी कम के हिसाब से बेच रहे हैं। और अगर कोई फर्क पड़ता है तो फिर यह लोग इतना सस्ता दूध कैसे व क्यों दे रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है कि एक तरफ ३० रुपए प्रति लीटर से भी कम के हिसाब से देने वाला भी कमा रहा है जबकि दूसरी ओर 30 रुपए से ज्यादा लेने वाले के भी पूरे नहीं पड़ रहे हैं। यकीन मानिए दरों में असमानता से इस बात को बल मिलता है कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो जरूर है। और स्वास्थ्य से सरासर खिलवाड़ भी। इतना कुछ होने के बाद भी प्रशासन अपनी भूमिका भूलकर खामोश है। और एकदम उदासीन भी। एक ही शहर में दूध अलग-अलग कीमतों पर बिक रहा हैं। खुले दूध की बिक्री के इस तरह भिन्न-भिन्न भाव शायद ही किसी ने देखे या सुने हो लेकिन भिलाई में यह सब हो रहा है।
हां इतना जरूर है कि पैंकिंग के दूध के भाव अलग होते हैं, वह भी इसलिए क्योंकि उस दूध की गुणवत्ता में अंतर होता है और यह बात पैकेट के ऊपर लिखी भी होती है लेकिन खुले दूध की क्या गारंटी कि वह गुणवत्ता पर कितना खरा है? पिछले साल बिलासपुर शहर में भी दूध के दामों में इसी तरह से वृद्धि कर दी गई थी। दूध विक्रेताओं के एक धड़े ने भाव बढ़ाए जबकि बाकी उसके समर्थन में नहीं थे। काफी विरोध के बाद प्रशासन को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और बिलासपुर के इतिहास में पहली बार दूध के भाव प्रशासन की मौजूदगी में लिखित में तय हुए। दूध के भावों को लेकर कमोबेश वैसे ही हालात भिलाई के हैं। ऐसे में प्रशासन को सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है। बाजार में बिक रहा खुला दूध कितना शुद्ध है, कितना गुणवत्तायुक्त है, इस बात को जांचे हुए तो मुद्‌दत हो गई है।
बहरहाल, प्रशासन को सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस मामले का कोई सर्वमान्य हल निकालना्र चाहिए। एक ऐसा हल जिससे किसी भी पक्ष को किसी तरह का नुकसान न हो। अगर प्रशासन ऐसा नहीं कर पाया तो फिर अकेला दूध ही नहीं कल को कोई भी अपनी मर्जी के हिसाब से भाव तय करके कुछ भी बेचने लगेगा। मामला जनहित ही नहीं स्वास्थ्य से भी जुड़ा है। इसलिए प्रशासन को मामले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। प्रशासनिक स्तर पर दूध की शुद्धता व गुणवत्ता मापने के लिए बड़े पैमाने पर कोई अभियान चलाया जाता है तो फिर कहना ही क्या।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 01 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।