Friday, April 21, 2017

यह जातिवाद मत फैलाओ भाई!


बस यूं ही

फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली थप्पड़ प्रकरण के बाद कई तरह की बहस गरम है। इस बहाने कई बुद्धिजीवी भी बहस में कूद पड़े हैं। कहीं इतिहास पर सवाल उठ रहे हैं तो कहीं इतिहास लिखने वालों पर। कहीं इतिहास के पात्रों को आड़े हाथों लिया जा रहा है तो कहीं इतिहास को जातिवाद से जोड़ा जा रहा है। सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म पर जहां कुछ भी लिखो, कैसा भी लिखो की अवधारणा है, वहां इस तरह का अधकचरा ज्ञान ज्यादा बांटा जा रहा है। इनका लेखन एकदम चिकोटी काटने वाले अंदाज में होता है। वैसे आजकल बुद्धिजीवी बजाय कोई अच्छी बात करने के या कुछ सकारात्मक संदेश देने वाला लेखन करने के इस तरह की चिकोटियां काटने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। समाज को दिशा देने वाला एक खास तबका फेसबुक पर इस तरह की भावनाएं भड़काने वाली तथा मनों में भेद पैदा करने वाली बातें लिखने में मशगूल है। प्रत्युत्तर में आई टिप्पणियों को पढ़ पढ़कर आत्ममुग्धता के चरम को लांघा जा रहा है। खैर, जिसकी जैसी भावना होती है वह वैसा ही सोचेगा और कहेगा। ठीक उस मक्खी की तरह जो पूरा स्वस्थ शरीर छोड़कर केवल फोड़े पर जाकर बैठती है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस तरह की जातीय वैमनस्यता बढ़ाने वाली टिप्पणियों से बेहद दुखी हूं और व्यथित भी। वैसे आजादी के बाद देश व समाज में जातिवाद का जहर सर्वाधिक राजनीति के जरिये ही फैला है। सियासी दलों ने हमेशा वोट बैंक का गणित देखते हुए टिकट बांटे और प्रत्याशियों ने भी जातिवाद के नारे को जीत का सबसे मुफीद और आसान फार्मूला माना। हकीकत में यह फार्मूला कारगर भी हुआ। जातिवाद की सीढिय़ां चढ़कर देश में कइयों ने मंजिल पाई है। 
वैसे मैंने सामाजिक समरसता का पाठ अपने गांव से ही सीखा है। जातिवाद की आग से हालांकि मौजूदा दौर में कोई अछूता नहीं है। फिर भी मेरे गांव में कुछ बातें ऐसी हैं, जो जातिवाद के जहर को कम करती हैं। झुंझुनं जिले की चिड़ावा तहसील में है मेरा गांव केहरपुरा कलां। गांव में जाट, राजपूत व अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी कमोबेश समान सी ही है। इसके अलावा नाई, ब्राह्मण, खाती, मीणा व कुम्हार भी हैं लेकिन बहुत कम संख्या में। मेरे गांव के लोग हर जाति के दुख-दर्द और खुशी में शरीक होते हैं। अब कुछ खास बातें। ऐसा माना जाता है कि कोई भी गांव जब बसता है और बसने के बाद गांव में जिस भी जाति के व्यक्ति की सबसे पहले मृत्यु होती है, उसको भोमिया कहा जाता है। बतौर स्मृति भोमिया जी महाराज का गांव में मंदिर भी बनाया जाता है। हमारे गांव में भी ऐसा मंदिर हैं। बताते हैं हमारे गांव के भोमियाजी महाराज ब्राह्मण जाति से थे। अब इससे आगे की बात सुन लीजिए। इस मंदिर में पूजा-पाठ से लेकर झाडू लगाने तक के तमाम काम अनुसूचित जाति का युवक करता था। फिलहाल उसका निधन हो गया लेकिन उसने यह काम लंबे समय तक किया।
इसके अलावा राजपूतों के मकान निर्माण के दौरान जब नींव रखी जाती है तो पहला पत्थर जाट जाति के व्यक्ति से रखवाया जाता है। इस मांगलिक व पुनीत कार्य के बाद गुड़ भी वितरित किया जाता है। गांव के राजपूत मोहल्ले में माताजी का मंदिर है। समाज के लोगों के द्वारा साल भर यहां जागरण होते रहते हैं। जागरण में मां की ज्योत का जिम्मा अनुसूचित जाति के युवक के पास होता है। वह रात भर दीपक में घी डालता है और ज्योत को प्रज्वलित रखता है। एक तरह से वह युवक इस दिन पुजारी की भूमिका में होता है। इससे भी बड़ी बात जागरण करने वाली भजन मंडली के लोग धाणक जाति से होते हैं, जो डमरू के माध्यम से मां की महिमा गाते हैं। भजन मंडली व श्रोता सभी एक ही जाजम पर बैठते हैं। मेरे गांव में राधा-कृष्ण का मंदिर भी है। बुजुर्ग इसको ठाकुरजी का मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर के जीर्णोद्धार में गांव के लोगों ने सामूहिक रूप से चंदा किया। एक करोड़ रूपए से ज्यादा इस काम पर खर्च हुए हैं। धूलंडी के दिन मंदिर में अनुसूचित जाति के युवकों के साथ जाट व राजपूत जाति के युवक गले में बांहे डालकर झूमते हैं। मस्ती में गाते हैं। जातिवाद की बातें यहां गौण हो जाती हैं। 
खैर, यह सब बताने का आशय यह है कि गांवों में इस तरह की सामाजिक समरसता आज भी है। रिश्तों का तो कहना ही क्या। जब इस तरह की अवधारणा को लेकर लोग जी रहे हैं तो यह जातिवाद की आग किसलिए? यह तानाबाना छिन्न भिन्न मत करो भाई। यह जातिवाद मत फैलाओ! भाई को भाई से आपस में मत लड़वाओं। इनको प्रेम करना सिखाओ भाई।

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