स्मृति शेष
यह कितनी विचित्र समानता है। मैं तब भी श्रीगंगानगर था, जब उनकी किस्मत का सितारा उदय हुआ। और आज भी श्रीगंगानगर हूं जब उनके जीवन का सूर्य अस्त हो गया। मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिला। बस किस्सों के आधार पर ही मैंने उस शख्स की छवि बनाई। कल मकर संक्रांति के दिन वह शख्स दुनिया को अलविदा कह गया। आज उस शख्स की पार्थिव देह पंचतत्व में विलीन हो गई लेकिन वह शख्स आज किस्सों में जिंदा है। किसी के संस्मरणों में जिंदा है तो किसी की यादों में। करीब एक दशक से गुमनाम सा जीवन जी रहे इस शख्स की अंतिम यात्रा में उमड़े लोग व उनकी भीगी पलकें इस बात की गवाही दे रही थी कि वाकई वह दिलों में बसा था। विडम्बना देखिए जिस राजनीति ने इस शख्स को अर्श तक पहुंचाया, उसी राजनीति के कारण वह पुन: फर्श पर आया। मूलत: विद्रोही स्वभाव के इस शख्स का नाम था सुरेन्द्रसिंह राठौड़। डेढ़ दशक पूर्व जब मैं श्रीगंगानगर आया तब राठौड़ के नाम डंका बजता था। विशेषकर कर्मचारी-अधिकारी उनके नाम से खौफ खाते थे। कमजोर तबके की मुखर आवाज का नाम था सुरेन्द्र सिंह राठौड़। किसी जरूरतमंद ने उनके दर पर दस्तक दी या देर रात दरवाजा खटखटाया वह फिर निराश नहीं लौटा। राठौड़ उसके साथ हो लेते। उनके इसी स्वभाव ने उनको कमजोर, दबे-पिछड़े वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाया लेकिन संभ्रांत लोगों व कानून के नजरों में यह सब सही नहीं था। दरअसल, ऑन द स्पॉट फैसला लेने की उनकी शैली ही विवादों को जन्म देती थी। वैसे विवादों से उनका नाता कभी छूटा भी नहीं। मुझे डेढ दशक पूर्व की कई बातें याद हैं। एक बार प्रेस वार्ता में उन्होंने कह दिया था कि आजकल अखबारों में पत्रकार न होकर नेताओं के मुखबिर बैठे हैं। उनका यह बयान तब बेहद चर्चित रहा था, लेकिन उसमें काफी कुछ सच्चाई थी। वह विधायक बने तब भी मैं श्रीगंगानगर ही था। उनकी रिकॉर्डतोड़ मतों से वह जीत आज भी लोगों के जेहन में है। हालांकि कुछ लोग आज भी राठौड़ की जीत को अपनी भूल मानते हैं और साथ में आरोप लगाते हैं कि जिस उम्मीद से उनको विधायक बनाया गया वे उस उम्मीद पर खरे नहीं उतरे और उनकी राजनीतिक उदासीनता के कारण श्रीगंगानगर दस साल पीछे चला गया। आरोप तो उनकी विवादित छवि पर भी लगे। इस छवि के कारण उनको कई एेसे नाम भी मिले जो संभ्रात लोगों में सही नहीं माने जाते।
यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि 1993 में राठौड़ का राजनीति कॅरियर उठान पर था लेकिन दिग्गज भाजपा नेता भैरोसिंह शेखावत ने जब श्रीगंगानगर से चुनाव लडऩे का मानस बनाया। तब राठौड़ समझाने के बावजूद मैदान में डटे रहे। इसका नुकसान यह हुआ कि उनको बाद में विधायक बनने के लिए दस साल और लग गए। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि राठौड़ तब मैदान से हट जाते तो शायद उनका राजनीतिक कद और बढ़ जाता लेकिन जुबान के धनी तथा कथनी व करनी में अंतर न करने वाले राठौड़ को यह गवारा न हुआ। उसी चुनाव से जुड़ा एक किस्सा भी काफी चर्चित है कि शेखावत की सभा के लिए लोग एकत्रित थे। राठौड़ वहां से गुजरे उन्होंने भीड़ को घंटे भर संबोधित भी कर दिया। जब उनको हकीकत बताई गई तो उन्होंने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है, पांडाल में बैठे लोग तो श्रीगंगानगर के ही है। जानकार बताते हैं कि शेखावत की सरकार में तीन निर्दलीय का समर्थन जुटाने में भी राठौड़ का ही हाथ था। यहां तक कि तब निर्दलीय जीते सरदार गुरजंटसिंह बराड़ को भाजपा से जोडऩे में भी राठौड़ का ही योगदान माना जाता है।
राजस्थान जैसे अति जातिवादी राज्य में जहां कदम-कदम पर जाति पूछी जाती है, एेसे दौर में राठौड़ जातिवाद की छाया से अछूते रहे। राजस्थान में जिस तरह दो प्रमुख जातियां विशेषकर चुनाव के दौरान आमने-सामने हो जाती हैं, वैसा राठौड़ के मामले में नहीं था। उनके नजदीकी लोगों में हर वर्ग व संप्रदाय के लोग थे। वैसे जातिवाद की आग का असर श्रीगंगानगर जिले में बाकी स्थानों के मुकाबले कम भी है। अगर जातिवाद होता तो राठौड़ श्रीगंगानगर से कभी नहीं जीत पाते। उनकी सब वर्गों में पकड़ थी। छात्र राजनीति के बाद वे गांव के निर्विरोध सरपंच बने। बाद में श्रीगंगानगर पंचायत समिति के प्रधान बने। उनको पहचान भी इस पद से ज्यादा मिली। वे विधायक भी बने लेकिन लोग उनको प्रधानजी ही कहते रहे।
यह सही है राठौड़ हमेशा पत्रकारों के पसंदीदा रहे लेकिन राजनीतिक मतभेद कराने में भी कहीं न कहीं पत्रकारों की भी भूमिका रही। बताते हैं उनकी ऑफ द रिकॉर्ड बात अखबारों में ऑन द रिकॉर्ड छप गई और वहीं से उनके राजनीतिक कैरियर का ग्राफ गिरना शुरू हो गया। बताते हैं कि 1993 के चुनाव में हार के बाद उन्होंने एक प्रेस वार्ता के बहाने पत्रकारों को एक होटल में बुलाया तथा एक कमरे में उनको जमकर धमकाया। पत्रकारों से ही जुड़ा एक मामला और है। विधायक बनने के बाद उन्होंने गाड़ी पर लालबत्ती लगाकर रखी थी। इस संबंध में खबर प्रकाशित हुई तो उन्होंने संबंधित पत्रकार व फोटोग्राफर को बुलाकर लालबत्ती उनके हाथ में थमा दी थी।
खैर, राठौड़ अब इस दुनिया में नहीं रहे हैं, लेकिन जिस तरह उनकी अंतिम यात्रा में जन सैलाब उमड़ा, उससे साबित होता है कि लोग राठौड़ को दिल से चाहते थे। दस साल राजनीति से दूर निर्वासित सा जीवन जीने के बावजूद राठौड़ को चाहने वालों की संख्या आज भी कम नहीं थी। घर से मुक्तिधाम तक करीब चार- पांच किलोमीटर तक उनकी पार्थिव देह समर्थकों के कंधे पर ही गई। अंतिम यात्रा के आगे शव वाहन खाली ही चला। राठौड़ के लिए घर से शुरू हुआ नारों का सिलसिला उनको मुखाग्नि देते समय तक अनवरत जारी रहा। सच में नेता राठौड़ जैसा ही होना चाहिए। इतने चर्चे व किस्सों के बावजूद कभी व्यक्तिश: न मिल पाने के मलाल के साथ प्रधानजी को मेरा सलाम।
यह कितनी विचित्र समानता है। मैं तब भी श्रीगंगानगर था, जब उनकी किस्मत का सितारा उदय हुआ। और आज भी श्रीगंगानगर हूं जब उनके जीवन का सूर्य अस्त हो गया। मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिला। बस किस्सों के आधार पर ही मैंने उस शख्स की छवि बनाई। कल मकर संक्रांति के दिन वह शख्स दुनिया को अलविदा कह गया। आज उस शख्स की पार्थिव देह पंचतत्व में विलीन हो गई लेकिन वह शख्स आज किस्सों में जिंदा है। किसी के संस्मरणों में जिंदा है तो किसी की यादों में। करीब एक दशक से गुमनाम सा जीवन जी रहे इस शख्स की अंतिम यात्रा में उमड़े लोग व उनकी भीगी पलकें इस बात की गवाही दे रही थी कि वाकई वह दिलों में बसा था। विडम्बना देखिए जिस राजनीति ने इस शख्स को अर्श तक पहुंचाया, उसी राजनीति के कारण वह पुन: फर्श पर आया। मूलत: विद्रोही स्वभाव के इस शख्स का नाम था सुरेन्द्रसिंह राठौड़। डेढ़ दशक पूर्व जब मैं श्रीगंगानगर आया तब राठौड़ के नाम डंका बजता था। विशेषकर कर्मचारी-अधिकारी उनके नाम से खौफ खाते थे। कमजोर तबके की मुखर आवाज का नाम था सुरेन्द्र सिंह राठौड़। किसी जरूरतमंद ने उनके दर पर दस्तक दी या देर रात दरवाजा खटखटाया वह फिर निराश नहीं लौटा। राठौड़ उसके साथ हो लेते। उनके इसी स्वभाव ने उनको कमजोर, दबे-पिछड़े वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाया लेकिन संभ्रांत लोगों व कानून के नजरों में यह सब सही नहीं था। दरअसल, ऑन द स्पॉट फैसला लेने की उनकी शैली ही विवादों को जन्म देती थी। वैसे विवादों से उनका नाता कभी छूटा भी नहीं। मुझे डेढ दशक पूर्व की कई बातें याद हैं। एक बार प्रेस वार्ता में उन्होंने कह दिया था कि आजकल अखबारों में पत्रकार न होकर नेताओं के मुखबिर बैठे हैं। उनका यह बयान तब बेहद चर्चित रहा था, लेकिन उसमें काफी कुछ सच्चाई थी। वह विधायक बने तब भी मैं श्रीगंगानगर ही था। उनकी रिकॉर्डतोड़ मतों से वह जीत आज भी लोगों के जेहन में है। हालांकि कुछ लोग आज भी राठौड़ की जीत को अपनी भूल मानते हैं और साथ में आरोप लगाते हैं कि जिस उम्मीद से उनको विधायक बनाया गया वे उस उम्मीद पर खरे नहीं उतरे और उनकी राजनीतिक उदासीनता के कारण श्रीगंगानगर दस साल पीछे चला गया। आरोप तो उनकी विवादित छवि पर भी लगे। इस छवि के कारण उनको कई एेसे नाम भी मिले जो संभ्रात लोगों में सही नहीं माने जाते।
यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि 1993 में राठौड़ का राजनीति कॅरियर उठान पर था लेकिन दिग्गज भाजपा नेता भैरोसिंह शेखावत ने जब श्रीगंगानगर से चुनाव लडऩे का मानस बनाया। तब राठौड़ समझाने के बावजूद मैदान में डटे रहे। इसका नुकसान यह हुआ कि उनको बाद में विधायक बनने के लिए दस साल और लग गए। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि राठौड़ तब मैदान से हट जाते तो शायद उनका राजनीतिक कद और बढ़ जाता लेकिन जुबान के धनी तथा कथनी व करनी में अंतर न करने वाले राठौड़ को यह गवारा न हुआ। उसी चुनाव से जुड़ा एक किस्सा भी काफी चर्चित है कि शेखावत की सभा के लिए लोग एकत्रित थे। राठौड़ वहां से गुजरे उन्होंने भीड़ को घंटे भर संबोधित भी कर दिया। जब उनको हकीकत बताई गई तो उन्होंने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है, पांडाल में बैठे लोग तो श्रीगंगानगर के ही है। जानकार बताते हैं कि शेखावत की सरकार में तीन निर्दलीय का समर्थन जुटाने में भी राठौड़ का ही हाथ था। यहां तक कि तब निर्दलीय जीते सरदार गुरजंटसिंह बराड़ को भाजपा से जोडऩे में भी राठौड़ का ही योगदान माना जाता है।
राजस्थान जैसे अति जातिवादी राज्य में जहां कदम-कदम पर जाति पूछी जाती है, एेसे दौर में राठौड़ जातिवाद की छाया से अछूते रहे। राजस्थान में जिस तरह दो प्रमुख जातियां विशेषकर चुनाव के दौरान आमने-सामने हो जाती हैं, वैसा राठौड़ के मामले में नहीं था। उनके नजदीकी लोगों में हर वर्ग व संप्रदाय के लोग थे। वैसे जातिवाद की आग का असर श्रीगंगानगर जिले में बाकी स्थानों के मुकाबले कम भी है। अगर जातिवाद होता तो राठौड़ श्रीगंगानगर से कभी नहीं जीत पाते। उनकी सब वर्गों में पकड़ थी। छात्र राजनीति के बाद वे गांव के निर्विरोध सरपंच बने। बाद में श्रीगंगानगर पंचायत समिति के प्रधान बने। उनको पहचान भी इस पद से ज्यादा मिली। वे विधायक भी बने लेकिन लोग उनको प्रधानजी ही कहते रहे।
यह सही है राठौड़ हमेशा पत्रकारों के पसंदीदा रहे लेकिन राजनीतिक मतभेद कराने में भी कहीं न कहीं पत्रकारों की भी भूमिका रही। बताते हैं उनकी ऑफ द रिकॉर्ड बात अखबारों में ऑन द रिकॉर्ड छप गई और वहीं से उनके राजनीतिक कैरियर का ग्राफ गिरना शुरू हो गया। बताते हैं कि 1993 के चुनाव में हार के बाद उन्होंने एक प्रेस वार्ता के बहाने पत्रकारों को एक होटल में बुलाया तथा एक कमरे में उनको जमकर धमकाया। पत्रकारों से ही जुड़ा एक मामला और है। विधायक बनने के बाद उन्होंने गाड़ी पर लालबत्ती लगाकर रखी थी। इस संबंध में खबर प्रकाशित हुई तो उन्होंने संबंधित पत्रकार व फोटोग्राफर को बुलाकर लालबत्ती उनके हाथ में थमा दी थी।
खैर, राठौड़ अब इस दुनिया में नहीं रहे हैं, लेकिन जिस तरह उनकी अंतिम यात्रा में जन सैलाब उमड़ा, उससे साबित होता है कि लोग राठौड़ को दिल से चाहते थे। दस साल राजनीति से दूर निर्वासित सा जीवन जीने के बावजूद राठौड़ को चाहने वालों की संख्या आज भी कम नहीं थी। घर से मुक्तिधाम तक करीब चार- पांच किलोमीटर तक उनकी पार्थिव देह समर्थकों के कंधे पर ही गई। अंतिम यात्रा के आगे शव वाहन खाली ही चला। राठौड़ के लिए घर से शुरू हुआ नारों का सिलसिला उनको मुखाग्नि देते समय तक अनवरत जारी रहा। सच में नेता राठौड़ जैसा ही होना चाहिए। इतने चर्चे व किस्सों के बावजूद कभी व्यक्तिश: न मिल पाने के मलाल के साथ प्रधानजी को मेरा सलाम।
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