बस यूं ही
करीब अठारह साल पहले की बात है। पत्रकारिता का ककहरा सीखते वक्त यह भी बताया गया था, यह पत्रकारिता की डगर है। यह आसान नहीं होती है। इसमें घर परिवार सबको छोडऩा पड़ता है। इस दुनिया मे प्रवेश के बाद आपकी सामाजिक लाइफ व फे्रंड सर्किल भी खत्म समझो। इस क्षेत्र में एक बार आ गए तो फिर यही सब कुछ है। अगर इतनी चुनौती स्वीकार करने का जज्बा है, हौसला है, माद्दा है तो बेशक पत्रकारिता करिए। इतनी नसीहत के बाद आखिरी और खतरनाक बात बताई गई कि यह दौर ऐसा है कि किसी के खिलाफ लिखोगे तो वह आपका दुश्मन बन जाएगा। कब राह चलते कौन आपको रौंद जाए पता ही नहीं चलेगा। फिर आपका परिवार, आपके बच्चों की परवरिश किसके जिम्मे होगी? सोच लो। पत्रकारिता की राह पर चलने वाले तब मेरे सोलह साथी और भी थे, लेकिन सभी अपने निर्णय पर अडिग रहे कि पत्रकार तो बनना ही है। इतना ही नहीं इस सीखने के दौरान एक नसीहत यह भी दी गई थी कि आप पत्रकार हो। पत्रकारिता धर्म निभाते वक्त एक बात जेहन में हमेशा याद रखना। पत्रकार होने के नाते 'चार पी' को हमेशा नजरअंदाज करना। पहला पी से पैसा। दूसरा पी से पद। तीसरा पी से प्रशंसा और चौथा पी से पुष्प। इन चार पी को नजरअंदाज करने के पीछे सोच यही थी कि इनमें किसी भी पी के संपर्क में आने वाला कहीं न कहीं निष्पक्ष नहीं रह पाता। लेकिन मौजूदा दौर में अधिकतर पत्रकार किसी न किसी पी के संपर्क में आने से खुद को रोक नहीं पाते। किसी भी पी के संपर्क में आने का मतलब है उसके प्रभाव में आ जाना। जहां प्रभाव शुरू हो जाता है, वहां फिर पत्रकारिता गौण होने लगती है और पीआरशिप हावी हो जाती है। बाजार में कई तरह के संगठन व कंपनियां भी इस खेल में शामिल हैं। वो बेहतर मीडिया मैनेजमेंट करने वालों पत्रकारों को ही बतौर पीआरओ रखने लगे हैं। इसके अलावा बहुत से ऐसे भी हैं, जो पीआरओ बनाने की बजाय सीधे ही पत्रकारों को साधने में विश्वास करते हैं। और जो सध जाता है वह भी एक तरह से पीआरओ का काम ही करता है। इस तरह से मीडिया दफ्तरों व बाहर दोनों जगह ही पीआरओ हो गए हैं। एक अंदरूनी पीआरओ तो दूसरा बाहरी पीआरओ। दरअसल, यह संकट किसी एक जगह का नहीं है। हर जगह ऐसी तस्वीर मिल जाएगी। हां कहीं ज्यादा या कम का अनुपात जरूर हो सकता है लेकिन पीआरओ रहित शहर शायद ही कोई हो। यह पीआरशिप पत्रकारिता के लिए दीमक का काम करती है। यह पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों व उसूलों पर चोट करती है। कई लोग तो पत्रकारिता में आते ही इसी उद्देश्य से हैं। पत्रकारिता की सीढिय़ों के माध्यम से वो पीआरओ बनने का मुकाम आसानी से हल कर लेते हैं। इस दौर में खुद के दामन को बचाना किसी चुनौती से कम नहीं है। यहां कदम-कदम पर फिसलन है। इस पर भी जबरन फिसलाने के उपक्रम और किए जाते हैं। और किसी तरह कोई इस फिसलन से खुद को बचा लेता है तो फिर दूसरे हथकंडे आजमाए जाते हैं। धमकी, झूठी शिकायतें, दबाव आदि इसी के तहत आते हैं। और इनमें प्रमुख योगदान भी पत्रकार से पीआरओ बने साथियों का ज्यादा होता है।
पत्रकार से पीआरओ बनने में मैं मीडिया घरानों का दोष कहीं नहीं मानता। पत्रकारिता में आदमी अपने शौक से आता है और पीआरओ बनने की राह भी खुद ही चुनता है। वर्तमान दौर ऐसा है कि समूचा बाजार ही पत्रकारों को पीआरओ के नजरिये से देखना लगा है। उनको संदिग्ध मानने लगा है। ऐसा बहुतायत में होने लगा है। किसी न किसी वाद से प्रभावित पत्रकारिता भी पीआरशिप की श्रेणी में ही गिनी जाएगी। यह दौर वाकई संकट का है। चुनौती का है। एक मूल व ईमानदार पत्रकार के लिए अब तो संकट इस बात का खड़ा हो गया है कि वो अपना जमीर बचाए या जान? क्योंकि जमीर बचाने के लिए कुछ लोग जान भी गंवा बैठते हैं, खुद्दार जो होते हैं। और समझौता ही करे तो फिर वह पत्रकारिता भी कैसी।
करीब अठारह साल पहले की बात है। पत्रकारिता का ककहरा सीखते वक्त यह भी बताया गया था, यह पत्रकारिता की डगर है। यह आसान नहीं होती है। इसमें घर परिवार सबको छोडऩा पड़ता है। इस दुनिया मे प्रवेश के बाद आपकी सामाजिक लाइफ व फे्रंड सर्किल भी खत्म समझो। इस क्षेत्र में एक बार आ गए तो फिर यही सब कुछ है। अगर इतनी चुनौती स्वीकार करने का जज्बा है, हौसला है, माद्दा है तो बेशक पत्रकारिता करिए। इतनी नसीहत के बाद आखिरी और खतरनाक बात बताई गई कि यह दौर ऐसा है कि किसी के खिलाफ लिखोगे तो वह आपका दुश्मन बन जाएगा। कब राह चलते कौन आपको रौंद जाए पता ही नहीं चलेगा। फिर आपका परिवार, आपके बच्चों की परवरिश किसके जिम्मे होगी? सोच लो। पत्रकारिता की राह पर चलने वाले तब मेरे सोलह साथी और भी थे, लेकिन सभी अपने निर्णय पर अडिग रहे कि पत्रकार तो बनना ही है। इतना ही नहीं इस सीखने के दौरान एक नसीहत यह भी दी गई थी कि आप पत्रकार हो। पत्रकारिता धर्म निभाते वक्त एक बात जेहन में हमेशा याद रखना। पत्रकार होने के नाते 'चार पी' को हमेशा नजरअंदाज करना। पहला पी से पैसा। दूसरा पी से पद। तीसरा पी से प्रशंसा और चौथा पी से पुष्प। इन चार पी को नजरअंदाज करने के पीछे सोच यही थी कि इनमें किसी भी पी के संपर्क में आने वाला कहीं न कहीं निष्पक्ष नहीं रह पाता। लेकिन मौजूदा दौर में अधिकतर पत्रकार किसी न किसी पी के संपर्क में आने से खुद को रोक नहीं पाते। किसी भी पी के संपर्क में आने का मतलब है उसके प्रभाव में आ जाना। जहां प्रभाव शुरू हो जाता है, वहां फिर पत्रकारिता गौण होने लगती है और पीआरशिप हावी हो जाती है। बाजार में कई तरह के संगठन व कंपनियां भी इस खेल में शामिल हैं। वो बेहतर मीडिया मैनेजमेंट करने वालों पत्रकारों को ही बतौर पीआरओ रखने लगे हैं। इसके अलावा बहुत से ऐसे भी हैं, जो पीआरओ बनाने की बजाय सीधे ही पत्रकारों को साधने में विश्वास करते हैं। और जो सध जाता है वह भी एक तरह से पीआरओ का काम ही करता है। इस तरह से मीडिया दफ्तरों व बाहर दोनों जगह ही पीआरओ हो गए हैं। एक अंदरूनी पीआरओ तो दूसरा बाहरी पीआरओ। दरअसल, यह संकट किसी एक जगह का नहीं है। हर जगह ऐसी तस्वीर मिल जाएगी। हां कहीं ज्यादा या कम का अनुपात जरूर हो सकता है लेकिन पीआरओ रहित शहर शायद ही कोई हो। यह पीआरशिप पत्रकारिता के लिए दीमक का काम करती है। यह पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों व उसूलों पर चोट करती है। कई लोग तो पत्रकारिता में आते ही इसी उद्देश्य से हैं। पत्रकारिता की सीढिय़ों के माध्यम से वो पीआरओ बनने का मुकाम आसानी से हल कर लेते हैं। इस दौर में खुद के दामन को बचाना किसी चुनौती से कम नहीं है। यहां कदम-कदम पर फिसलन है। इस पर भी जबरन फिसलाने के उपक्रम और किए जाते हैं। और किसी तरह कोई इस फिसलन से खुद को बचा लेता है तो फिर दूसरे हथकंडे आजमाए जाते हैं। धमकी, झूठी शिकायतें, दबाव आदि इसी के तहत आते हैं। और इनमें प्रमुख योगदान भी पत्रकार से पीआरओ बने साथियों का ज्यादा होता है।
पत्रकार से पीआरओ बनने में मैं मीडिया घरानों का दोष कहीं नहीं मानता। पत्रकारिता में आदमी अपने शौक से आता है और पीआरओ बनने की राह भी खुद ही चुनता है। वर्तमान दौर ऐसा है कि समूचा बाजार ही पत्रकारों को पीआरओ के नजरिये से देखना लगा है। उनको संदिग्ध मानने लगा है। ऐसा बहुतायत में होने लगा है। किसी न किसी वाद से प्रभावित पत्रकारिता भी पीआरशिप की श्रेणी में ही गिनी जाएगी। यह दौर वाकई संकट का है। चुनौती का है। एक मूल व ईमानदार पत्रकार के लिए अब तो संकट इस बात का खड़ा हो गया है कि वो अपना जमीर बचाए या जान? क्योंकि जमीर बचाने के लिए कुछ लोग जान भी गंवा बैठते हैं, खुद्दार जो होते हैं। और समझौता ही करे तो फिर वह पत्रकारिता भी कैसी।
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