पुरी से लौटकर-27
तभी तो सड़क पर जगह-जगह पान की पीक थूकी हुई थी। एक तरह सड़क लाल हो रखी थी। ऐसे में हमको कदम बचा-बचाकर रखने पड़ रहे थे। मंदिर के आगे पहुंचकर जूते जमा करवाए और पानी के बीच से होकर मंदिर में प्रवेश किया। मोबाइल इस बार पर्स में रखे लेकिन सुरक्षाकर्मी ने जांच के नाम पर पकड़ लिया। पहले बच्चों की जेब में डाल रहे थे। ऐसा कर लेते तो शायद कोई चैक नहीं करता है। खैर, दुकान पर फिर वापस आए और मोबाइल जमा करवाने के बाद प्रवेश किया। इस बार भी हम लोगों ने मंदिर के बायीं ओर से प्रवेश किया। मंदिर परिसर के अंदर मुख्य मंदिर के अलावा छोटे-छोटे कई मंदिर हैं और उन सब में पण्डे बैठे थे। इन छोटे मंदिरों के बाहर भी पण्डे मंडरा रहे थे। जिज्ञासावश कोई इन छोटे मंदिरों को देखने के लिए रुका तो झट से पण्डा दौड़ कर आपके पास आएगा, कहेगा दर्शन करो.. दर्शन करो..। हम तो सब को अनसुना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। एक पूरा चक्कर लगाने के बाद हम मंदिर के दाहिनी तरफ आए। लम्बी लाइन लगी थी। लोग इतने सट के खड़े थे कि तिल भी डालो तो नीचे नहीं गिरे। लाइन के लिए वर्गीकरण नहीं किया गया था। मतलब महिला, पुरुष, बच्चे-बुजुर्ग सभी एक लाइन में लगे थे। इनके लिए अलग लाइन के लिए व्यवस्था करे भी तो कौन? सभी निशुल्क प्रवेश वाले जो होते हैं। इसलिए भीड़ में धक्के खाने की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी। भीड़ को देखकर धर्मपत्नी का धैर्य जवाब दे गया था। बोली मैं तो बच्चों को लेकर बाहर ही बैठी हूं, आप दर्शन कर आओ। खैर, हम लाइन में लगे। करीब बीस मिनट तक धकमपेल चलती रही और हम आगे बढ़ते रहे। आखिरकार हम मंदिर में प्रवेश कर गए। मैं और गोपाल जी एक दूसरे को ऐसे देख रहे थे, मानों हमने कोई तीर मार लिया हो। अंदर फिर एक लाइन थी। जगन्नाथ प्रभु को थोड़ा और नजदीक से देखने की। हमको तो वहीं से दर्शन हो गए। वहां भी एक पण्डे ने आकर आग्रह किया। बोला, एकदम नजदीक से दर्शन करा दूंगा, केवल बीस रुपए लूंगा। हम चुप्प थे। हमारा मूड भांपकर वह मुंह बनाता हुआ वहां से चला गया। दर्शन कर हम वापस लौटे तो मंदिर के दीवार पर पान की पीक थूकी हुई दिखाई दी।
बहुत बुरा लगा यह देखकर. मन ही मन बुदबुदाया, हे प्रभु तेरे ये भक्त कितने नासमझ हैं, जो ऐसा करते हैं। हम बाहर निकले तो एक पण्डा मोबाइल पर बतियाता हुआ दिखाई दिया। मन में फिर वही भाव आया.। भक्तों में भेदभाव का। आम आदमी के लिए मोबाइल की अनुमति नहीं है, लेकिन पण्डे ऐसा कर सकते हैं। मन में फिर सवालों का सैलाब उडऩा स्वाभाविक था। मन ही मन कहने लगा, प्रभु यह सब करने के लिए आपने तो नहीं होगा। यह व्यवस्था, यह छूट का प्रावधान किसने बनाया। ऐसा करो, ऐसा मत करो.. ऐसा तो आप नहीं कह सकते प्रभु। सवालों का मेरे पास कोई हल नहीं था। वे अबूझ पहेली हैं। मेरी लिए नहीं, उन सबके लिए जिनको यह व्यवस्था अखरती है। वैसे मंदिर की शिल्पकला कमाल की है। ऐसे में कोणार्क मंदिर की याद फिर याद गई। ... जारी है।
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