पुरी से लौटकर-9
प्रसाद भी लेना पड़ता है, वरना आप की मर्जी। मैं काउंटर से जैसे ही मुड़ा वह खतरनाक पण्डा ठीक मेरे पीछे ही खड़ा था। संयोग से उसी वक्त कोई दूसरा श्रद्धालु आ गया था, पण्डा उससे बातचीत में मशगूल था और मैं चुपके से उससे नजर बचाकर काउंटरनुमा उस गुमटी से बाहर आ गया। हम आगे बढ़े लगभग हर दरवाजे पर नो इंट्री का बोर्ड टंगे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि मंदिर में प्रवेश किधर से करना है। फिर भी हम लोग बढ़ते रहे। एक दरवाजे पर कुछ चहल-पहल ज्यादा दिखी। पास गए तो देखा श्रद्धालु लाइन में लगकर उस दरवाजे तक आ रहे हैं। हम भी लाइन में लगकर दरवाजे तक पहुंचे। इतने में एक पण्डा आया..बोला आपका टोकन कहां है। मैंने पूछा वो क्या होता है तो बोला.. इधर से मंदिर में प्रवेश करने पर टोकन लेना पड़ता है। आप जहां से लाइन में लगे थे, वहीं पर एक काउंटर है। वहां आपको टोकन मिलेगा। निराश कदमों से वापस काउंटर की तरफ लौटे लेकिन वह भी बंद था। वहां भी एक पण्डा खड़ा था। उससे पूछा तो बोला.. काउंटर अब बंद हो चुका है। एक घंटे बाद दुबारा खुलेगा। उसका जवाब सुनकर मैं हैरान हो गया। मन में यकायक ख्याल आया कि एक घंटे क्या करेंगे। बाहर गोपाल जी भी इंतजार कर रहे हैं,क्यों ना बाहर ही चला जाए। मैं इसी उधेड़बुन में डूबा था।
आखिरकार मन ही मन फैसला किया कि एक घंटा बहुत ज्यादा होता है, इसलिए बाहर जाकर फिर से अंदर आ जाएंगे। मंदिर के पीछे से घूमकर हम दांयी भाग की तरफ बढ़े तो बड़ी संख्या में श्रद्धालु करबद्ध आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठे हुए दिखाई दिए। ऊपर देखा तो मंदिर के शिखर पर ध्वज बदलने की तैयारी चल रही थी। ऐसे में फिर से प्रगतिशील किसानों की बात याद आ गई। उन्होंने भी ध्वज बदलने की प्रक्रिया को देखने के लिए कहा था। हम भी रुक गए और वह नजारा देखने लगे। वाकई अद्भुत एवं अलौकिक नजारा था। मंदिर बहुत ही भव्य एवं विशाल है। चूंकि हम मंदिर के बिलकुल बगल में ही थे, इसलिए ऊपर देखने में मुंह को बिलकुल नब्बे डिग्री पर करना पड़ रहा था। फिर भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। क्योंकि मन में पहले दर्शन करने की उत्सुकता थी। हम ऊपर देखते हुए ही आगे बढ़ रहे थे। अचानक फिर एक दरवाजा दिखाई दिया। उस पर किसी तरह का कोई बोर्ड नहीं लगा था। ना ही वहां कोई पण्डा दिखाई दिया। हम चुपके से उसके अंदर घुस गए। अंदर जाकर देखा तो वहां भी लम्बी लाइन लगी थी। अंदर भी जगह-जगह अवरोधक लगाए पण्डे खड़े थे। उनको देखकर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन मन को मसोस कर रह गया। एक चौड़े से गलियारे में दूर तलक श्रद्धालु खड़े थे। यूं समझ लीजिए.. हम सबसे पीछे थे। करीब तीस फीट के दूरी पर थे हम। वहीं से ऐडिय़ां उचका कर दर्शन करने की कवायद में जुट गया। दो तीन बार ऐसा करने पर आखिरकार मेरे को दर्शन हो गए। इसके बाद दोनों बच्चों को गोद में लेकर ऊपर उठाकर दर्शन करवाए। ----जारी है।
No comments:
Post a Comment