पुरी से लौटकर-18
चूंकि मैंने उनसे वापसी में कुछ दिलाने का वादा किया था, इसलिए सभी को एक-एक आईसक्रीम खिला दी। मैंने इसलिए नहीं खाई क्योंकि गले में संक्रमण था। अचानक बच्चों का ध्यान आइसक्रीम के रैपर पर गया, उस पर एक खरीदने पर एक मुफ्त लिखा था। गोपाल जी ने आइसक्रीम वाले का ध्यान दिलाया तो उसने आवाज देकर अपने दूसरे साथी को बुलाया। वह आते ही कहने लगा साब, यह स्कीम तो काफी पहले थी, अब बंद हो गई। हमने कहा कि स्कीम तो बंद हो गई, लेकिन आप आइसक्रीम तो स्कीम वाली ही बेच रहे हो। हमारे कहने का उस पर कोई असर नहीं हुआ। हम धीरे-धीरे ऑटो की तरफ लौटने लगे। मेरी हमेशा से ही तेज चलने की आदत रही है लेकिन बच्चे एवं धर्मपत्नी आराम से चहलकदमी और दुकान पर मोल-भाव करते हुए चल रहे थे। थकान से बदन दोहरा हो रहा था। सबसे बड़ा कारण तो रात को देर से सोना और सुबह उठना ही था। नींद जब तक पर्याप्त ना ले लूं.. कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। दोनों बच्चे व धर्मपत्नी के साथ गोपाल जी, उनकी धर्मपत्नी व बच्चे थे, लिहाजा मैं निश्चिंत था और तेजी से ऑटो तक पहुंचकर कुछ देर सुस्ता लेना चाहता था। ऑटो के पास पहुंचकर मैं करीब आधे घंटे तक खड़ा रहा लेकिन यह लोग पता नहीं कहां व्यस्त हो गए थे। आखिरकार, मैं बगल में ही एक चाय की दुकान पर गया। बिना वजह बैठने पर चायवाला टोक ना दे, इसलिए लगे हाथ उसको एक चाय का ऑर्डर भी दे दिया था। चाय खत्म ही होने वाली थी कि बड़ा बेटा योगराज आता दिखाई दिया। इसके बाद सभी एक लोग एक-एक करके आते गए। इसके बाद हम लोग ऑटो में सवार हुए। अगला पड़ाव चिलका झील था। कोणार्क से चिलका का सीधा रास्ता नहीं है वापस पुरी होकर ही जाना पड़ता है। ऐसे में हमारे को करीब 80-85 किलोमीटर की यात्रा करनी थी। अलसुबह अंधेरे की वजह से जो देख नहीं पाए थे वह अब स्पष्ट दिखाई दे रहा था। सड़क और समुद्र के बीच कई जगह टेंट लगे थे। पार्टियां एवं पिकनिक मनाने के लिए इधर आने वाले पूरे साजो-सामान के साथ ही आते हैं। खाने, पकाने के सामान के साथ। यही वजह है कि डिपोस्जल गिलास, थाली एवं पोलिथीन की थैलियां यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी थी। बड़ा अजीब सा लगा यह सब देखकर.। इसके लिए दोषी कोई एक-दो लोग नहीं बल्कि वे सभी हैं जो ऐसा करते हैं। आखिरकार लोगों ने शांत, सौम्य एवं शुद्ध जगह को भी प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रकृति से जमकर खिलवाड़ वाकई बहुत अखरा लेकिन सिवाय मन मसोसने के कोई चारा भी नहीं था। मैं प्राकृतिक नजारों को निहारने में इतना खोया था कि पुरी कब आ गया पता ही नहीं चला। जिस रास्ते से ऑटो वाले ने निकालने का प्रयास किया वहां जाम लगा था। समय यही कोई दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे। कुछ देर के लिए हम एक साइबर कैफे पर रुके। रेल के तत्काल कोटे से टिकट बुक कराने के लिए..। संयोग से अगले दिन के टिकट बुक हो गए थे। .. जारी है।
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