Wednesday, January 15, 2014

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-32 

 
वहीं स्टेशन पर एक गट्टे पर पसर गया। हल्की से झपकी लगी। काफी देर तक हम वहां बैठे रहे। इस बीच कैमरे से पुराने फोटो भी देखते रहे। आखिर चार बजे हम वहां से खड़े होकर लैगेज रूम आए, वहां से सामान लिया और स्टेशन पर ही रुक गए। डिसप्ले बोर्ड पर अभी यह नहीं बताया जा रहा था कि ट्रेन कौनसे प्लेटफार्म पर आएगी। शाम के भोजन के लिए चर्चा के बाद तय हुआ कि यहीं से पैक करवा लेते हैं। रास्ते में ट्रेन में ही भोजन कर लेंगे। इसके बाद गोपाल जी के दोनों बच्चे, उनकी धर्मपत्नी एवं मेरी धर्मपत्नी चारों जने रेलवे की केन्टीन की तरफ चल गए। पीछे मैं दोनों बच्चे एवं गोपाल जी रुक गए। उनको गए हुए करीब आधा घंटा हो गया था। इस बीच प्लेटफार्म नम्बर एवं ट्रेन के नाम की उद्घोषणा हो गई। डिसप्ले बोर्ड पर जानकारी आने लगी थी। घड़ी में 4.40 हो गए थे। ट्रेन छूटने में मात्र 25 मिनट शेष रहे थे लेकिन भोजन लेने गए लोगों का कोई अता-पता नहीं था। गोपाल जी ने कहा, बन्ना जी मैं उनको कैन्टीन की तरफ देखकर आता हूं। वो केन्टीन में गए और थोड़ी देर बाद वहीं से हाथ हिलाया तो मैं भी सोच में डूब गया कि अचानक यह लोग कहां चले गए। गोपाल जी तत्काल स्टेशन से बाहर दौड़े, इधर-उधर नजर मारने के बाद बदहवाश से मेरे पास आए बोले बन्ना जी, पता नहीं कहां चली गई, कहीं पर भी दिखाई नहीं दी। इसके बाद गोपाल जी दो तीन बार केन्टीन तक होकर आए लेकिन कुछ जानकारी नहीं मिल रही थी। मैंने गोपाल जी से कहा कि आज तो ट्रेन छूटना तय है। मात्र 15-20 मिनट की मुश्किल से शेष बचे थे। इसके बाद मैंने गोपाल जी को बच्चों के पास खड़ा किया और केन्टीन के तरफ दौड़ पड़ा। मैंने केन्टीन का कोना-कोना छान मारा लेकिन, वहां कोई हो तो दिखाई दे। इसके बाद मैं केन्टीन से गोपाल जी तरफ हाथ हिलाता हुआ निराश कदमों से आ ही रहा था कि मेरे को चारों लोग स्टेशन परिसर में अंदर प्रवेश करते हुए दिखाई दिए। इसके बाद मैं गुस्से में पूरी आवाज के साथ चिल्लाया। कहने लगा क्या मतलब है, यहां ट्रेन छूटनी वाली है और आप लोगों को परवाह ही नहीं है। इसके बाद गोपाल जी ने भी जोरदार आवाज में डांट लगाई, वे बेहद आग बबूला थे। सचमुच उनका इतना रौद्र रूप पहली बार देखा।
यकीन मानिए, स्टेशन पर उस वक्त सन्नाटा पसरा था। ट्रेन व प्लेटफार्म की घोषणा होने के कारण उससे संबंधित यात्री वहां से रवाना हो गए थे। बाकी बचे यात्री सुस्ता रहे थे। हमारा वार्तालाप सुनकर वे चौंक गए। सब हमको कौतुहल से देख रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म का क्लाइमेक्स सीन फिल्माया जा रहा है। वाकई यह हमारी पुरी यात्रा का क्लाइमेक्स ही था। इधर दोनों की धर्मपत्नियां बिलकुल निरूतर थी। तत्काल सबने सामान उठाया और दौड़ पड़े ट्रेन की तरफ, हांफते-हांफते । यहां सुस्ताने का मतलब किसी खतरे से खाली नहीं था। तेज चलने एवं भारी सामान होने के कारण पसीने से लथपथ हो चुका था। ट्रेन में सामान रखा, उस वक्त घड़ी पांच बजकर पांच मिनट दिखा रही थी। थोड़ी ही देर में ट्रेन में चलने लगी। हमने प्रभु जगन्नाथ का जोरदार जयकारा लगाया और अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए। ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी।... जारी है।

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