पुरी से लौटकर-10
धर्मपत्नी के सामने भी यही धर्मसंकट था, भीड़ की वजह से वह भी स्पष्ट देख नहीं पा रही थी। मैंने आग्रह किया कि बच्चों की तर्ज पर दर्शन करा दूं लेकिन वह शर्म शंका के वशीभूत होकर तैयार नहीं हुई। आखिरकार वह खुद ही अवरोधक के पास पहुंच गई। वहां खड़े पण्डे ने उसके सिर पर चार बार छड़ी को लगाया। इतना ही नहीं माथे पर तिलक भी लगाया। मैं हैरान था, पण्डे ने यह सब निशुल्क कर दिया। शायद महिलाओं को रियायत देते हैं। मैं वहीं बगल में खड़ा था। दोनों बच्चों को लिए..। अचानक सोचने लगा.. और पता नहीं क्या-क्या ख्याल जेहन में आने लगे।
सोचने लगा 'हे जगन्नाथ, हे दीनानाथ। तेरी माया भी अजब है प्रभु। तू दुखियों के दुख हरता है। मन्नतें पूरी करता हैं। हे प्रभु सुना है तू भक्तों में भेदभाव नहीं करता। तेरे दर पर सभी समान हैं। चाहे राजा हो रंक, तुम्हारी नजर में सब बराबर हैं। फिर यह दूरी क्यों प्रभु। और इस दूरी को पाटने का माध्यम पैसे क्यों प्रभु? जब सारी कायनात ही तुम्हारी है प्रभु तो आपको पैसे का क्या काम? और हां, भक्तों और आपके बीच में यह मध्यस्थ क्यों प्रभु? जिनके पास पैसे हैं, उनके लिए तो कोई नियम कायदा नहीं है.. ये नाइंसाफी क्यों प्रभु? सामान्य आदमी क्यों लाइन में लगे? क्यों धक्के खाए? क्यों पण्डों के कोप का भाजन बने? क्या यह नियम आपने बनाया है प्रभु? अगर ऐसा है तो फिर यह तो भेदभाव ही हुआ ना। इन मध्यस्थों ने, बिचालियों ने, ठेकेदारों ने भक्तों और आपके बीच एक दीवार खड़ी कर दी है। पैसों की दीवार। जो जितनी ज्यादा बोली लगाएगा, मतलब ज्यादा पैसे खर्च करेगा, उसको आपका सानिध्य और अधिक मिल जाएगा। और कोई गरीब बेचारा, जो दूर से आपके दर्शनों की हसरत लेकर आता है। उसको क्या मिलता है प्रभु, आप सब जानते हो। आप अन्तर्यामी है। बेचारा न जाने कितनी ही जगह अपमानित होता है। आपके यह बिचौलिए उनको हिकारत से देखते हैं। बात-बात पर डांटना तो आम बात है। आप के दर पर यह सब हो रहा है। और एकदम सीधे और सरल आदमी को तो यह आपके बिचौलिये पता नहीं क्या-क्या डर दिखाते हैं। धर्म के नाम..पर, अनिष्ट के नाम पर। और मरता क्या ना करता..। बेचारा, जेब खाली करके ही जाता है। हे प्रभु? यह कैसा खेल है। यह सब आपके दरबार में होता है.. आपकी आंखों के सामने होता है। हे प्रभु कुछ तो तरस खाओ। कुछ तो रहम करो अपने भक्तों पर। कुछ तो नजरें इनायत करो। हे प्रभु मैं भी दर्शनों की हसरत लिए सपरिवार आपके दर पर हाजिर हुआ लेकिन यहां की इस अजीब प्रकार की व्यवस्था ने आपको जगन्नाथ नहीं.. 'पैसों' का नाथ बना दिया है। माफ करना प्रभु मैं छोटे मुंह से बड़ी बात कर रहा हूं.. क्या करूं..अपनी बात कहने से खुद को रोक नहीं पाया. हे प्रभु, आप तो बड़े हैं और बड़ों का काम तो माफ करना है। हे प्रभु मुझ नादान को भी माफ कर देना लेकिन, यहां की व्यवस्था एवं माहौल से मैं बेहद व्यथित हूं। मैं भी यही सोच रहा हूं कि इसमें अब सुधार कैसे होगा? '..जारी है।
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