दूसरी लघु कथा
हमेशा उत्साह एवं जोश से लबरेज दिखने वाले, साथियों को प्रोत्साहित करने तथा लक्ष्य के लिए दिन रात एक करने की सीख देने वाले गुरुजी आज बड़े उदास थे। घर में तेजी से चहलकदमी करते और एक हाथ की मुट्ठी बनाकर दूसरे हाथ पर मारते देख उनकी परेशानी का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव आ और जा रहे थे। रह-रह कर गुरुजी के कानों में पिताजी की वह नसीहत गूंज रही थी 'बेटा मंजिल पाने के लिए धैर्य रखो। इतनी जल्दी भी मत करो कि लोग दुश्मन हो जाए और अधिकारियों की आपसे अपेक्षा बढ़ जाए। झुंझलाहट में गुरुजी को कुछ नहीं सूझ रहा था। जेहन में विचारों का द्वंद्व चल रहा था। बार-बार एक ही सवाल गुरुजी को कचोट रहा था, आखिर इतनी मेहनत और निष्ठा का यह सिला क्यों? इन सब के बीच ख्याल आता, शायद पिताजी ने सही ही कहा था। वजह भी थी। गुरुजी ने असंभव से दिखने वाले काम को न केवल निर्धारित समय से पहले पूरा किया बल्कि राज्य स्तर पर पुरस्कार भी मिल गया। बस यही पुरस्कार उनके लिए जी का जंजाल बन गया। काम न करने वालों एवं मीन-मेख निकालने वालों को बड़ी पीड़ा हुई कि आखिर यह क्यों हो गया? इसके बाद कई लोग तो जैसे हाथ धोकर गुरुजी के पीछे ही पड़ गए। जिन अधिकारियों के दम पर गुरुजी आज तक यह सब करते आए थे, वो ही अब उनको शक की नजर से देखने लगे। टांग खींचने वाले लोग, अधिकारियों के कान भरने में सफल हो गए थे। दरअसल, गुरुजी के काम के साथ अधिकारियों ने भी सपना देखना शुरू कर दिया था। काम और मेहनत भले ही गुरुजी की थी लेकिन इससे अधिकारियों का भी हित जुड़ा था। अचानक एक बड़े अधिकारी के तबादले की चर्चा शुरू हो गई। गुरुजी को सौंपा गया काम शत-प्रतिशत पूरा होने को था। अधिकारी की प्रबल इच्छा थी कि काम उनके तबादले से पूर्व ही हो जाए ताकि उपलब्धि उनके खाते में जुड़ जाए। चूंकि गुरुजी अब दोराहे पर थे। 'शुभचिंतकों का असहयोग और अधिकारी का बार-बार 'मैंने तुमको राज्य स्तर पर सम्मानित करवा दिया.. कहना गुरुजी के कान में ऐसे गूंज रहा था जैसे किसी ने कानों में गर्म शीशा डाल दिया है..। उनको वह पुरस्कार अब तुच्छ दिखाई देने लगा..क्योंकि गुरुजी को अपनी मेहनत और निष्ठा पर श्रेय की भूख भारी पड़ती दिखाई दे रही थी।
हमेशा उत्साह एवं जोश से लबरेज दिखने वाले, साथियों को प्रोत्साहित करने तथा लक्ष्य के लिए दिन रात एक करने की सीख देने वाले गुरुजी आज बड़े उदास थे। घर में तेजी से चहलकदमी करते और एक हाथ की मुट्ठी बनाकर दूसरे हाथ पर मारते देख उनकी परेशानी का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव आ और जा रहे थे। रह-रह कर गुरुजी के कानों में पिताजी की वह नसीहत गूंज रही थी 'बेटा मंजिल पाने के लिए धैर्य रखो। इतनी जल्दी भी मत करो कि लोग दुश्मन हो जाए और अधिकारियों की आपसे अपेक्षा बढ़ जाए। झुंझलाहट में गुरुजी को कुछ नहीं सूझ रहा था। जेहन में विचारों का द्वंद्व चल रहा था। बार-बार एक ही सवाल गुरुजी को कचोट रहा था, आखिर इतनी मेहनत और निष्ठा का यह सिला क्यों? इन सब के बीच ख्याल आता, शायद पिताजी ने सही ही कहा था। वजह भी थी। गुरुजी ने असंभव से दिखने वाले काम को न केवल निर्धारित समय से पहले पूरा किया बल्कि राज्य स्तर पर पुरस्कार भी मिल गया। बस यही पुरस्कार उनके लिए जी का जंजाल बन गया। काम न करने वालों एवं मीन-मेख निकालने वालों को बड़ी पीड़ा हुई कि आखिर यह क्यों हो गया? इसके बाद कई लोग तो जैसे हाथ धोकर गुरुजी के पीछे ही पड़ गए। जिन अधिकारियों के दम पर गुरुजी आज तक यह सब करते आए थे, वो ही अब उनको शक की नजर से देखने लगे। टांग खींचने वाले लोग, अधिकारियों के कान भरने में सफल हो गए थे। दरअसल, गुरुजी के काम के साथ अधिकारियों ने भी सपना देखना शुरू कर दिया था। काम और मेहनत भले ही गुरुजी की थी लेकिन इससे अधिकारियों का भी हित जुड़ा था। अचानक एक बड़े अधिकारी के तबादले की चर्चा शुरू हो गई। गुरुजी को सौंपा गया काम शत-प्रतिशत पूरा होने को था। अधिकारी की प्रबल इच्छा थी कि काम उनके तबादले से पूर्व ही हो जाए ताकि उपलब्धि उनके खाते में जुड़ जाए। चूंकि गुरुजी अब दोराहे पर थे। 'शुभचिंतकों का असहयोग और अधिकारी का बार-बार 'मैंने तुमको राज्य स्तर पर सम्मानित करवा दिया.. कहना गुरुजी के कान में ऐसे गूंज रहा था जैसे किसी ने कानों में गर्म शीशा डाल दिया है..। उनको वह पुरस्कार अब तुच्छ दिखाई देने लगा..क्योंकि गुरुजी को अपनी मेहनत और निष्ठा पर श्रेय की भूख भारी पड़ती दिखाई दे रही थी।
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