टिप्पणी...
लापरवाही की पराकाष्ठायाद है, गत जून में सरकार आपके द्वार कार्यक्रम के तहत मुख्यमंत्री का लवाजमा बीकानेर आया था। काफी घोषणाएं हुई थीं। मंत्रियों ने दौरे किए। मातहतों को निर्देश दिए। लापरवाह कार्मिकों को फटकार भी लगी थी। कुछ निलम्बन भी हुए थे। उस समय स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ का पीबीएम अस्पताल दौरा किसे याद नहीं होगा। अस्पताल के हालात देखकर मंत्री बिफर गए थे और यहां तक कह दिया था कि पीबीएम बीमार है। सर्जरी की जरूरत है। मंत्रीजी के बिफरने का कितना असर हुआ? अस्पताल की सर्जरी किस तरह की हुई सारा शहर जानता है। जो जैसा चल रहा था कमोबेश वैसा ही चलता रहा। जो जहां था, वहीं जमा रहा। न अस्पताल की सर्जरी हुई ना व्यवस्था में कोई बदलाव दिखा। गाहे-बगाहे होने वाले हंगामे इस बात के गवाह हैं। हकीकत में व्यवस्था इस कदर बिगड़ रही है कि यहां भर्ती बीमार व्यक्ति रफ्ता-रफ्ता लाइलाज होने की तरफ बढ़ रहा है।
संभाग के सबसे बड़े अस्पताल पीबीएम में मंगलवार को हुई एक युवक की मौत ने तो लापरवाही की पराकाष्ठा को ही लांघ दिया। तेरह दिन तक मौत से संघर्ष के बाद युवक जिंदगी की जंग हार गया। वह पीबीएम के आपातकालीन वार्ड में उपचाराधीन था। इलाज में लापरवाही और संवेदनहीनता इस कदर बरती गई कि मरहम पट्टी ही नियमित नहीं की गई। नजीजतन उसके घावों में कीड़े तक पड़ गए लेकिन धरती के भगवान का कलेजा नहीं पसीजा। युवक के परिजन चिकित्सकों से गुहार लगाते रहे लेकिन उनकी पुकार को अनसुना कर दिया गया। अस्पताल प्रशासन की नींद भी उस वक्त टूटी जब युवक इस दुनिया से विदा होने वाला था।
बीकानेर जैसे शहर में युवक की ऐसे हालात में मौत और वह भी आपातकालीन वार्ड में कई सवाल खड़े करती है। जब आपातकालीन वार्ड में ही हालात इतने बदतर हैं कि सामान्य वार्डों की कल्पना मात्र से डर सा लगता है। मौत के बाद उपजे आक्रोश को शांत करने के लिए अस्पताल प्रशासन ने भले ही आश्वासन दिए हों लेकिन क्या इनसे व्यवस्था सुधर जाएगी? क्या यह आश्वासन उस मां के लख्तेजिगर को जिंदा कर पाएगा? क्या यह आश्वासन बरसती आंखों को कोई सुकून का सपना दिखा पाएगा? क्या आश्वासन इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच कर दोषी नर्सिंगकर्मी/ डाक्टर को सजा दिला पाएगा? क्या आश्वासन से जंग लग जड़ बन चुकी व्यवस्था फिर से पुनर्जीवित हो पाएगी? क्या यह चिकित्कीय पेशे में सेवा भाव को सर्वोपरि रखने में सहायक होगा? क्या यह आश्वासन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में शामिल चिकित्सकों पर लगाम लगा पाएगा? दअरसल, आश्वासन का इतिहास ही ऐसा रहा है इसलिए इन सवालों के सही जवाबों में संदेह है। जब मंत्री के निर्देश ही हवा हो गए तो फिर अस्पताल प्रशासन की बिसात ही क्या है। वह अगर खुद ही व्यवस्था सुधार लेता तो फिर निरीक्षण के दौरान फटकार ही क्यों लगती? मंत्री के निरीक्षण एवं निर्देशों के एक साल बाद भी व्यवस्था नहीं सुधरती है तो व्यवस्था पर भरोसा करना भी बेमानी लगता है। अगर निर्मल की मौत इस पेशे से जुड़े लोगों तथा अस्पताल प्रशासन की अंतरात्मा को झकझोरती है और परिणामस्वरूप कुछ हलचल होती है या व्यवस्था सुधरती है तो जरूर कुछ कहा जा सकता है। वरना पत्थर दिल होते चिकित्सकों के आगे न जाने कितने 'निर्मल दम तोड़ेंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित
लापरवाही की पराकाष्ठायाद है, गत जून में सरकार आपके द्वार कार्यक्रम के तहत मुख्यमंत्री का लवाजमा बीकानेर आया था। काफी घोषणाएं हुई थीं। मंत्रियों ने दौरे किए। मातहतों को निर्देश दिए। लापरवाह कार्मिकों को फटकार भी लगी थी। कुछ निलम्बन भी हुए थे। उस समय स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ का पीबीएम अस्पताल दौरा किसे याद नहीं होगा। अस्पताल के हालात देखकर मंत्री बिफर गए थे और यहां तक कह दिया था कि पीबीएम बीमार है। सर्जरी की जरूरत है। मंत्रीजी के बिफरने का कितना असर हुआ? अस्पताल की सर्जरी किस तरह की हुई सारा शहर जानता है। जो जैसा चल रहा था कमोबेश वैसा ही चलता रहा। जो जहां था, वहीं जमा रहा। न अस्पताल की सर्जरी हुई ना व्यवस्था में कोई बदलाव दिखा। गाहे-बगाहे होने वाले हंगामे इस बात के गवाह हैं। हकीकत में व्यवस्था इस कदर बिगड़ रही है कि यहां भर्ती बीमार व्यक्ति रफ्ता-रफ्ता लाइलाज होने की तरफ बढ़ रहा है।
संभाग के सबसे बड़े अस्पताल पीबीएम में मंगलवार को हुई एक युवक की मौत ने तो लापरवाही की पराकाष्ठा को ही लांघ दिया। तेरह दिन तक मौत से संघर्ष के बाद युवक जिंदगी की जंग हार गया। वह पीबीएम के आपातकालीन वार्ड में उपचाराधीन था। इलाज में लापरवाही और संवेदनहीनता इस कदर बरती गई कि मरहम पट्टी ही नियमित नहीं की गई। नजीजतन उसके घावों में कीड़े तक पड़ गए लेकिन धरती के भगवान का कलेजा नहीं पसीजा। युवक के परिजन चिकित्सकों से गुहार लगाते रहे लेकिन उनकी पुकार को अनसुना कर दिया गया। अस्पताल प्रशासन की नींद भी उस वक्त टूटी जब युवक इस दुनिया से विदा होने वाला था।
बीकानेर जैसे शहर में युवक की ऐसे हालात में मौत और वह भी आपातकालीन वार्ड में कई सवाल खड़े करती है। जब आपातकालीन वार्ड में ही हालात इतने बदतर हैं कि सामान्य वार्डों की कल्पना मात्र से डर सा लगता है। मौत के बाद उपजे आक्रोश को शांत करने के लिए अस्पताल प्रशासन ने भले ही आश्वासन दिए हों लेकिन क्या इनसे व्यवस्था सुधर जाएगी? क्या यह आश्वासन उस मां के लख्तेजिगर को जिंदा कर पाएगा? क्या यह आश्वासन बरसती आंखों को कोई सुकून का सपना दिखा पाएगा? क्या आश्वासन इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच कर दोषी नर्सिंगकर्मी/ डाक्टर को सजा दिला पाएगा? क्या आश्वासन से जंग लग जड़ बन चुकी व्यवस्था फिर से पुनर्जीवित हो पाएगी? क्या यह चिकित्कीय पेशे में सेवा भाव को सर्वोपरि रखने में सहायक होगा? क्या यह आश्वासन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में शामिल चिकित्सकों पर लगाम लगा पाएगा? दअरसल, आश्वासन का इतिहास ही ऐसा रहा है इसलिए इन सवालों के सही जवाबों में संदेह है। जब मंत्री के निर्देश ही हवा हो गए तो फिर अस्पताल प्रशासन की बिसात ही क्या है। वह अगर खुद ही व्यवस्था सुधार लेता तो फिर निरीक्षण के दौरान फटकार ही क्यों लगती? मंत्री के निरीक्षण एवं निर्देशों के एक साल बाद भी व्यवस्था नहीं सुधरती है तो व्यवस्था पर भरोसा करना भी बेमानी लगता है। अगर निर्मल की मौत इस पेशे से जुड़े लोगों तथा अस्पताल प्रशासन की अंतरात्मा को झकझोरती है और परिणामस्वरूप कुछ हलचल होती है या व्यवस्था सुधरती है तो जरूर कुछ कहा जा सकता है। वरना पत्थर दिल होते चिकित्सकों के आगे न जाने कितने 'निर्मल दम तोड़ेंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित
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