बस यूं ही
कुछ भूमिका बांधने या किसी तरह का स्पष्टीकरण देने से पहले बता दूं कि मैच हम चार रन से हार गए। उस वक्त 9 गेंद शेष बची थी लेकिन हमारी टीम इतनी जल्दबाजी में थी कि ऑलआउट हो गई। आखिरी बल्लेबाज के रूप में मेरा ही विकेट गिरा। बाहर जाती गेंद पर स्क्वायर ड्राइव लगाने के चक्कर में विकेट के पीछे लपका गया। दरअसल, मैं बात आज स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में प्रशासन एवं होटल, टूर एंड ट्रेवल्स एजेंसी संचालकों के मध्य खेले गए मैच की कर रहा हूं। बीकानेर में पत्रकार बनाम प्रशासन के बीच मैच होते रहे हैं। मैच के लिए कलेक्ट्रट कार्यालय से फोन आया भी आया था। मैं भी रेलवे ग्राउंड में गया तो उसी उद्देश्य से था कि पत्रकारों का मैच है, लेकिन वहां का नजारा दूसरा था। खैर, होटल, टूर एंड ट्रेवल्स एजेंसी संचालकों ने विशेष आग्रह किया तो नकार नहीं सका। वैसे भी खेलने की इच्छा तो मन में ठांठे पहले से ही मार रही थी। नियमित रूप से क्रिकेट खेले तो १५ साल हो गए। बीच-बीच में कभी-कभार मौका या समय मिलता है तो खुद को रोक नहीं पाता हूं, लेकिन अब नियमित अभ्यास नहीं है। जिस दिन खेल लेता हूं, बाद में बहुत तकलीफ पाता हूं। सप्ताह भर तो दर्द निवारक टेबलेट का सहारा लेना पड़ता है।
खैर, हमारी टीम टॉस हार चुकी थी। नतीजतन, हमारे को पहले क्षेत्ररक्षण करना था। इस दौरान क्रमश: दसवां और बारहवां ओवर मैंने किए। पहले में मात्र एक दिन रन दिया जबकि दूसरे में छह रन बने। इन छह रनों में एक चौका भी शामिल था, क्योंकि वह कैच था, जिसे हमारा क्षेत्ररक्षक पकड़ नहीं सका और गेंद सीमा रेखा के बाहर चली गई। दो ओवर में ही सांसें फूल गई। धूप एवं गर्मी से वैसे ही बुरा हाल था। मैच पहले 15 ओवर का घोषित किया था, इसलिए 15 ओवर तो आसानी से पूरे हो गए। इसके बाद मैच 20 ओवर का कर दिया गया। यकीन मानिए वो पांच ओवर मैदान में किस तरह बिताए मैं ही जानता हूं। यह सब नियमित न खेलने का नतीजा था। वरना नब्बे के दशक में जब अभ्यास था तो सुबह से लेकर शाम तक मैच खेल लेता लेकिन कभी थकान महसूस होती ही नहीं थी। इस मैच में थकान ऐसी हुई कि जब हमारी बल्लेबाजी की बारी आई तो मेरी पारी शुरुआत करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वैसे जब क्रिकेट नियमित रूप से खेलता था तब सलामी बल्लेबाज ही था। शुरुआत में मना क्या किया बाद में मेरे को आठ विकेट गिरने के बाद भेजा गया। हालांकि जब बल्लेबाजी करने आया तब तक तबीयत सामान्य हो चुकी थी। मैं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरा था। चूंकि मेरे टीम के खिलाड़ी मेरे अतीत से परिचित नहीं थे, लिहाजा मेरे को तरह तरह की हिदायत दे रहे थे। ऐसे खेलो, वैसे खेलो और मैं चुपचाप बड़े ही इत्मिनान के साथ बल्लेबाजी करने लगा। पहली ही गेंद पर स्क्वायर लेग अंपायार के तरफ खेल कर एक रन लिया। दो तीन रन बाई/ लेगबाई के बने। हम धीरे-धीरे मंजिल के करीब आ रहे थे। जीत के लिए मात्र पांच रन की आवश्यकता था। 19 ओवर में स्ट्राइक मेरे पास थी। इस बीच एक विकेट और गिर चुका था। अंतिम जोड़ी बीच मैदान पर संघर्ष कर रही थी। पहली गेंद को मैंने कवर की तरफ खेला लेकिन वह मुस्तैद क्षेत्ररक्षक ने उसे पकड़ लिया। इसके बाद दूसरी गेंद को मैंने सुरक्षात्मक अंदाज में खेला, जिसे गेंदबाज ने पोलोथ्रू में पकड़ लिया। तीसरी गेंद ऑफ से काफी बाहर थी और थोड़ी सी ओवरपिच थी। बस मन ललचा गया। बिना फुटवर्क किए खड़े-खड़े खेलने का नतीजा यह हुआ कि गेंद बल्ले का हल्का किनारा लेते हुए विकेटकीपर के दस्तानों में जा चुकी थी। मैं अपने निर्णय पर पछता रहा था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और हमारी टीम मैच हार गई। मैं मेरे प्रदर्शन पर बेहद नाखुश था।
खैर, मेरा क्रिकेट खेलने का अनुभव कहता है कि हारने के बाद थकान ज्यादा होती है। और मेरे जैसे अनियमित खिलाड़ी को तो होनी ही थी। मैदान से घर के लिए रवाना हुआ तो रास्ते में दवा की दुकान से दर्दनिवारक दवा ली और घर आया। घर पर आकर टेबलेट ली। वैसे क्रिकेट खेलकर हमेशा तकलीफ ही पाता हूं। शरीर का अंग-अंग दर्द करने लगता है। ऐसा दर्द ही कहीं से मांसपेशी में थोड़ा सा भी खिचाव होता है तो दर्द से कराह उठता हूं। लेकिन यह क्रिकेट का मोह पता नहीं कब छूटेगा। क्रिकेट देखकर दिल मचल उठता है, मानता ही नहीं है। कष्ट की कीमत पर भी भारी पड़ता है।
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