Wednesday, May 20, 2015

टूटता सब्र का बांध

टिप्पणी
क्या प्रशासन की भूमिका यही होती है कि वह संवदेनशील मसलों एवं बुनियादी जरूरतों की बात पर मूक बनकर सब देखता रहे और हालात जब नियंत्रण से बाहर होने लगे तो हरकत में आए? क्या प्रशासन इसीलिए होता है कि वह बार-बार लोगों के धैर्य की परीक्षा ले और सब्र का बांध टूटने का इंतजार करे? क्या प्रशासन का दायित्व यही है कि वह अपने कर्मचारियों की लापरवाही, उदासीनता एवं अकर्मण्यता को नजरअंदाज करता रहे। दरअसल, ये सारे सवाल ऐसे हैं, जो बीकानेर के संदर्भ में सटीक बैठते हैं। शहर के लोगों को बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मुहैय्या नहीं हैं। इसके लिए संबंधित जनप्रतिनिधि तो जिम्मेदार हैं ही, कमोबेश प्रशासन की भूमिका भी वैसी ही है। शहरभर की सफाई व्यवस्था बदहाल है। सीवरेज एवं डे्रनेज ने तो समूचे शहर की सूरत बिगाड़ रखी है। पुराने शहर के अंदरूनी हालात गांव-ढाणी से भी बदतर हैं। कहीं-कहीं पर तो पैदल चलना भी मुश्किल है। बिजली आपूर्ति का तो कहना ही क्या। वह कब आए और कब चली जाए पता नहीं है। सालभर रखरखाव के नाम पर दो से तीन चार घंटे तक बिजली कटौती करने के बाद भी यहां बत्ती गुल होना आम बात है। मामूली से फॉल्ट तक को ठीक करने में पांच-छह घंटे लग जाते हैं। यही हाल पेयजल आपूर्ति का है। सालभर शहरवासी पेयजल को लेकर परेशान रहते हैं। कहीं सप्लाई नियमित नहीं है तो कहीं मांग के हिसाब से पानी नहीं मिलता। यातायात व्यवस्था बेपटरी है। अतिक्रमण तो हर बड़े से लेकर छोटे-छोटे रास्तों तक पसरा हुआ है। आवारा पशुओं के स्वच्छंद विचरण पर किसी प्रकार की कोई रोक नहीं है।
इतना कुछ होने के बाद यह उम्मीद करना बेमानी है कि लोग चुपचाप रहें। व्यवस्था के खिलाफ कुछ ना बोलें और बर्दाश्त करते रहें। आखिर सहन करने की भी एक सीमा होती है। वैसे भी समस्याओं की लम्बे समय तक अनदेखी से आक्रोश भड़कना लाजिमी है। मंगलवार को ईदगाह क्षेत्र में हुआ प्रदर्शन भी इसी प्रकार की अनदेखी का नतीजा था। तीन दिन से यहां पेयजल किल्लत बनी हुई थी। ईद के बावजूद यहां पेयजल आपूर्ति के किसी तरह के बंदोबस्त नहीं किए गए। ऐसे में व्यवस्था पर सवाल उठना लाजिमी है। क्या लोगों के पास यही अंतिम रास्ता बचा है कि वे कानून को हाथ में लें। रास्ता रोक कर प्रदर्शन करें। शासन-प्रशासन को कोसें। पुतले फूकें, नारेबाजी करें। लब्बोलुआब यह है कि इस प्रकार के हालात किसी भी सूरत में अच्छे नहीं हैं।
बहरहाल, प्रशासन को व्यवस्था बिगडऩे तथा आक्रोश भड़कने का इंतजार करने की प्रवृत्ति से बचना होगा। यह बात दीगर है कि जिले में प्रशासन की मुखिया संवदेनशील हैं। वे हर छोटे से लेकर बड़े मामलों को सुलझाने में तत्परता दिखाती हैं। आमजन से जुड़े मसलों में वे जितनी संजीदा हैं, उनके मातहतों की कार्यप्रणाली उतनी ही उलट नजर आती है, जो उनके सारे किए-धरे पर पानी फेरने में कोई कसर नहीं छोड़ती। अगर मामले की गंभीरता को पहले ही समझ लिया जाता तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। प्रशासन का काम आमजन का दर्द सुनने और उनका निराकरण करने के साथ व्यवस्थाओं पर सतत निगरानी रखना भी है ताकि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं हो। उम्मीद करनी चाहिए शहर में इस प्रकार के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति नहीं होगी। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था में भी आशातीत सुधार होगा।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 30 जुलाई 14 के अंक में प्रकाशित  टिप्पणी...

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