Wednesday, May 20, 2015

घर

अभी तीन दिन के लिए गांव गया था। बिना आदमी के घर की हालत कैसी होती है, यह प्रत्यक्ष देखा और महसूस किया। जिस आंगन में बचपन बीता। पला-बढ़ा। जिसको बनाने में पापा के खून पसीने की कमाई लगी, आज उस घर की हालत देखी नहीं जाती। तीन दिन यही सोचता रहा। जेहन में कई तरह के ख्याल आए। कभी मायूस हुआ तो कभी आंखें भर आई। बीकानेर आने के बाद सोचा क्यों न ख्यालों को शब्द दे दूं तो.. बस..
घर
घर अब घर कहां रहा है मां?
वो आंगन जिसको तुम दिन भर बुहारती थी बार-बार,
अब मिट्टी से सना है।
इधर-उधर बिखरे सूखे पत्तों की आवाज से,
टूटता है सन्नाटा।
कभी डरते-डरते जो आती थी घर में,
आज वो चिडिय़ा बड़े अधिकार से रहती है वहां।
घौसले में बच्चों की चूं-चूं गूंजती है दिनभर।
किसी की आहट उसे तनिक नहीं सुहाती है।
वह गुस्से में चिल्लाती हैं।
चूहों ने भी तो देखो कितने ही रास्ते बना लिए,
पक्के फर्श में भी बिल तक खोद लिए।
क्योंकि उनको भी अब डर नहीं किसी का।
बेखौफ दौड़ते है दिनभर, इधर से उधर।
दीवारों पर लटके मकडिय़ों के जाले,
छिपकलियों के मल-मूत्र से अटे आले।
बंद कमरों से आती अजीब सी गंध,
अब नथूनों को अखरती है मां।
घर अब घर कहां रहा है मां?
-क्रमश:

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