टिप्पणी
जिला कलक्टर ने गुरुवार को राजकीय अंध आवासीय विद्यालय तथा राजकीय मूक बधिर विद्यालय के औचक निरीक्षण में जो हालात देखे वो बेहद शोचनीय हैं। न केवल इसीलिए कि वहां अव्यवस्थाएं मिलीं, विद्यार्थियों के उपयोग में आने वाला सामान बंद ताले में मिला, बल्कि इसीलिए भी कि यह जिला मुख्यालय की तस्वीर है, जहां शिक्षा विभाग के जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक के आला अधिकारी बैठते हैं। यहां से पूरे प्रदेश के लिए नियम बनते हैं। दिशा-निर्देश जारी होते हैं। उसी विभाग की नाक के नीचे ऐसी बदइंतजामी सरासर लापरवाही है। अकर्मण्यता का जीता-जागता नमूना है। सबसे बड़ी गंभीर बात तो यह है कि सब निशक्त बच्चों के साथ हो रहा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि कलक्टर के निरीक्षण के बाद विभाग हरकत में आएगा। व्यवस्था में सुधार भी होगा लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस प्रकार की परिस्थितियां पैदा ही क्यों होती हैं?
वैसे, यह कहानी अकेले इन दोनों विद्यालय की नहीं है। शहर व जिले में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। हां, इतना जरूर है कि ये हमको चौंकाते तभी हैं, जब सामने आते हैं। वरना सरकारी कामकाज के ढर्रे से भला अनजान व अनभिज्ञ है कौन? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। शहर की सफाई, यातायात व्यवस्था, अतिक्रमण, चिकित्सा व्यवस्था आदि नासूर बन चुके हैं। पता नहीं क्यों जिम्मेदारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। यह बात दीगर है कि जिला कलक्टर शहर की सफाई व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखा रही हैं लेकिन हालात में आशातीत सुधार नहीं हो रहा है। हर सप्ताह की समीक्षा बैठक सफाई व्यवस्था को लेकर किए जा रहे प्रयासों की चुगली करती दिखाई देती हैं। बहरहाल, इस प्रकार के निरीक्षणों से मातहत कर्मचारियों में भय जरूर रहता है। इस बहाने से वे न केवल समय पर कार्यालय आते हैं बल्कि कामकाज के निष्पादन में भी अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। इसलिए जिला कलक्टर को लगे हाथ शहर की यात्रा भी कर लेनी ताकि उनको व्यवस्थाओं की वास्तविक स्थिति व शहर के अंदरुनी हालात का पता तो लगे। इतना ही नहीं जिला कलक्टर की तर्ज पर अगर बाकी वरिष्ठ अधिकारी भी इसी तरह निरीक्षण करने की इच्छाशक्ति दिखाएं तो कु़छ सुधार की उम्मीद तो की ही जा सकती है। वैसे भी वास्तविकता के दर्शन तो फील्ड में जाने से ही संभव है। वातानुकूलित कक्षों में बैठ चिंता करने से शहर का भला नहीं होने वाला।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 19 सितम्बर 14 के अंक में प्रकाशित
जिला कलक्टर ने गुरुवार को राजकीय अंध आवासीय विद्यालय तथा राजकीय मूक बधिर विद्यालय के औचक निरीक्षण में जो हालात देखे वो बेहद शोचनीय हैं। न केवल इसीलिए कि वहां अव्यवस्थाएं मिलीं, विद्यार्थियों के उपयोग में आने वाला सामान बंद ताले में मिला, बल्कि इसीलिए भी कि यह जिला मुख्यालय की तस्वीर है, जहां शिक्षा विभाग के जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक के आला अधिकारी बैठते हैं। यहां से पूरे प्रदेश के लिए नियम बनते हैं। दिशा-निर्देश जारी होते हैं। उसी विभाग की नाक के नीचे ऐसी बदइंतजामी सरासर लापरवाही है। अकर्मण्यता का जीता-जागता नमूना है। सबसे बड़ी गंभीर बात तो यह है कि सब निशक्त बच्चों के साथ हो रहा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि कलक्टर के निरीक्षण के बाद विभाग हरकत में आएगा। व्यवस्था में सुधार भी होगा लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस प्रकार की परिस्थितियां पैदा ही क्यों होती हैं?
वैसे, यह कहानी अकेले इन दोनों विद्यालय की नहीं है। शहर व जिले में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। हां, इतना जरूर है कि ये हमको चौंकाते तभी हैं, जब सामने आते हैं। वरना सरकारी कामकाज के ढर्रे से भला अनजान व अनभिज्ञ है कौन? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। शहर की सफाई, यातायात व्यवस्था, अतिक्रमण, चिकित्सा व्यवस्था आदि नासूर बन चुके हैं। पता नहीं क्यों जिम्मेदारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। यह बात दीगर है कि जिला कलक्टर शहर की सफाई व्यवस्था को लेकर गंभीरता दिखा रही हैं लेकिन हालात में आशातीत सुधार नहीं हो रहा है। हर सप्ताह की समीक्षा बैठक सफाई व्यवस्था को लेकर किए जा रहे प्रयासों की चुगली करती दिखाई देती हैं। बहरहाल, इस प्रकार के निरीक्षणों से मातहत कर्मचारियों में भय जरूर रहता है। इस बहाने से वे न केवल समय पर कार्यालय आते हैं बल्कि कामकाज के निष्पादन में भी अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। इसलिए जिला कलक्टर को लगे हाथ शहर की यात्रा भी कर लेनी ताकि उनको व्यवस्थाओं की वास्तविक स्थिति व शहर के अंदरुनी हालात का पता तो लगे। इतना ही नहीं जिला कलक्टर की तर्ज पर अगर बाकी वरिष्ठ अधिकारी भी इसी तरह निरीक्षण करने की इच्छाशक्ति दिखाएं तो कु़छ सुधार की उम्मीद तो की ही जा सकती है। वैसे भी वास्तविकता के दर्शन तो फील्ड में जाने से ही संभव है। वातानुकूलित कक्षों में बैठ चिंता करने से शहर का भला नहीं होने वाला।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 19 सितम्बर 14 के अंक में प्रकाशित
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