बस यूं ही
एशियाड में भारतीय तीरंदाजों द्वारा स्वर्ण पदक जीतना महज संयोग ही था, क्योंकि हमारा तीरंदाजी का कार्यक्रम पहले से ही तय था। रविवार सु़बह आठ बजे हम भी तीरंदाजी की बारीकियां सीखने पहुंचे। साथ में स्टाफ के कई सदस्य भी थे। वैसे मैंने आज से पहले तीरंदाजी को केवल टीवी पर ही देखा था। आज तीर चलाए, लेकिन चोट खा बैठा। इसमें गलती हमारी नहीं थी। प्रशिक्षु खिलाडिय़ों ने हम सब को तीरंदाजी की छोटी से लेकर बड़ी जानकारी तक बताई लेकिन चोट से बचने का तरीका नहीं बताया। चोट मेरे अकेले को ही नहीं बल्कि दो तीन साथियों को और भी लगी। मैंने कमान को जैसे ही खींच कर छोड़ा वह हाथ को छूती हुई निकली और चोट का निशान छोड़ गई। वैसे मैंने जिंदगी में पहली बार तीर चलाए। ना शब्दों के ना नैनों के बल्कि हकीकत वाले। निशाने भी वैसे बुरे नहीं थे। तीनों तीर लक्ष्य पर तो नहीं लगे लगे लेकिन उसके आसपास ही थे। वैसे इस खेल में एकाग्रता, संतुलन, धैर्य, आत्मविश्वास आदि का गजब समावेश है। हां इतना जरूर है कि तीर जब निशाने पर लगता हैं तो आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। खैर, अब चोट को सहला रहा हूं। अनुभव तो यही कहता है कि तीर चाहे कैसे भी चलाओ, कुछ ना कुछ सीख/ सबक तो मिलता ही है।
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