Wednesday, May 20, 2015

सम्मान

चौथी कहानी

आज उनके चेहरे पर चमक थी। लम्बे समय बाद उनके योगदान को याद किया गया था। उनके काम की कद्र की गई थी। अखबारों में उनकी माला पहने फोटो छपी थी। जितनी खुशी सम्मान से नहीं मिली, उससे कहीं ज्यादा अखबार में खुद की फोटो देखकर हुई थी।
वैसे बाबू मस्तराम किसी परिचय के मोहताज नहीं। कभी साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में उन्होंने खूब काम किया और नाम कमाया। तभी तो शहर में उनके गुणग्राहकों की लम्बी फेहरिस्त थी। लेकिन समय के साथ सब पीछे छूटता गया। अब बस पुरानी यादें ही उनकी थाती थी। बिलकुल एकांतवादी हो गए थे। हालात पर तरस आता था। लम्बे समय बाद अखबारों में नाम आने से उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
बाबू मस्तराम के मोहल्ले में उनके परम मित्र खुशीराम भी रहते थे। मित्र के सम्मान का समाचार पढ़ा तो चले आए बधाई देने। बातों का सिलसिला चल पड़ा तो खुशीराम ने जिज्ञासावश पूछ लिया, कौन थे सम्मान करने वाले? सम्मान स्वरूप क्या मिला?
सवाल सुनते ही बाबू मस्तराम एकदम गंभीर हो गए। चेहरे पर छाई खुशी यकायक गायब हो गई। ऐसा लगा मानो किसी ने दुखती रग पर हाथ धर दिया हो। मित्र ने ज्यादा कुरेदा तो फूट पड़े। बोले शहर में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली एक संस्था है। इस संस्थान के लोग साहित्यकारों, कथाकारों, संगीतकारों आदि का सम्मान आदि करते हैं। खुशीराम बोले, आज के जमाने ऐसी संस्था होना बड़ी बात है। वरना कौन किसको याद करता है।
इतना सुनते ही बाबू मस्तराम की आंखों से आंसू टपक पड़े। गला भर आया। मानो वे कहना चाह रहे थे कि खुशीराम तुम क्या जानो कैसा सम्मान हुआ। इस सारे सम्मान कार्यक्रम का आयोजक तो मैं ही हूं। सम्मान स्थल भी मेरा घर था। और तो और सारा खर्च भी मेरा ही। आने वालों को चाय पान तक व्यवस्था भी मैंने ही जैसे-तैसे की। वो तो संस्था वालों का अखबारों वालों के यहां थोड़ा आना-जाना है, इस लोभ के कारण सब वहन कर लिया, वरना उनका तो एक पैसा भी खर्च नहीं हुआ। खुशीरा

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