टिप्पणी
राज्यपाल के बीकानेर से रवाना होने के बाद से ही गजनेर रोड ओवरब्रिज पर फिर अंधेरा पसर गया है। तीन दिन जुगाड़ से ब्रिज को रोशन रखा गया। इससे पहले मुख्यमंत्री के बीकानेर प्रवास के दौरान भी ऐसा ही किया गया था। साल भर से अधिक समय हो गया है लेकिन इस जुगाड़ से मुक्ति नहीं मिली है। तर्क दिया जाता है कि ओवरब्रिज से गुजरने वाले वाहनों के कारण कम्पन होता है, इससे बत्ती गुल है। खैर, तर्क में कितना दम है यह तो देने वाले भली-भांति जानते हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसका कोई स्थायी समाधान नहीं है? या प्रशासन को स्थायी समाधान के बजाय जुगाड़ मुफीद लगता है? या फिर जुगाड़ केवल प्रमुख लोगों के लिए ही है? आम जन के लिए सरकार एवं प्रशासन क्या कोई व्यवस्था करने में नाकाम हैं?
दरसअल, शहर में प्रशासनिक उदासीनता से जुड़े मामलों की फेहरिस्त लम्बी है। ओवरब्रिज तो केवल बानगी भर है। आश्चर्य तो इस बात है कि शहर के विकास को लेकर कई तरह की बातें होती हैं। नवाचारों का ढिंढोरा पीटा जाता है। समय-समय पर जनसुनवाई की औपचारिकता निभाई जाती है। प्रशासनिक अधिकारी भी अक्सर 'शिकायत आएगी तो समस्या का समाधान करवा दिया जाएगाÓ जैसा राग अलापते रहते हैं। क्या अधिकारी शहर और उससे जुड़ी समस्याओं से वाकिफ नहीं हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि शहर से गुजरते वक्त अधिकारी अपने आंखें बंद रखते हैं ताकि भूल से भी कोई समस्या दिखाई ना दे। क्योंकि इस प्रकार समस्याओं की अनदेखी करने का वातावरण शहर में लम्बे समय से बना हुआ है। समस्याओं को लम्बित रखने की एक परिपाटी सी बन गई है। तय सीमा में कोई काम होता दिखाई ही नहीं देता है। दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते पीडि़तों की चप्पलें घिस जाती हैं। थक हार बेचारा मन मसोस कर रह जाता है लेकिन ढर्रा नहीं बदलता। ऐसे में बार-बार यही सवाल उठता है, आखिर क्यों एवं कब तक ऐसे हालात रहेंगे? एक साल तक समस्या का समाधान न खोज पाना दर्शाता है शासन-प्रशासन कितने संवेदनशील हैं। जनहित से जुड़े मसलों को वे कितना गंभीरता से लेते हैं। आखिर कोई तो समय सीमा होगी? कोई तो समाधान होगा? कोई भरोसा तो होगा? इस लाइलाज होती बीमारी का कोई तो इलाज होगा? या फिर यूं ही नियति मान संतोष कर लेना चाहिए कि जो है वो वैसा ही रहेगा उसमें कुछ सुधार नहीं हो सकता।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 मई 15 के अंक में प्रकाशित
राज्यपाल के बीकानेर से रवाना होने के बाद से ही गजनेर रोड ओवरब्रिज पर फिर अंधेरा पसर गया है। तीन दिन जुगाड़ से ब्रिज को रोशन रखा गया। इससे पहले मुख्यमंत्री के बीकानेर प्रवास के दौरान भी ऐसा ही किया गया था। साल भर से अधिक समय हो गया है लेकिन इस जुगाड़ से मुक्ति नहीं मिली है। तर्क दिया जाता है कि ओवरब्रिज से गुजरने वाले वाहनों के कारण कम्पन होता है, इससे बत्ती गुल है। खैर, तर्क में कितना दम है यह तो देने वाले भली-भांति जानते हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसका कोई स्थायी समाधान नहीं है? या प्रशासन को स्थायी समाधान के बजाय जुगाड़ मुफीद लगता है? या फिर जुगाड़ केवल प्रमुख लोगों के लिए ही है? आम जन के लिए सरकार एवं प्रशासन क्या कोई व्यवस्था करने में नाकाम हैं?
दरसअल, शहर में प्रशासनिक उदासीनता से जुड़े मामलों की फेहरिस्त लम्बी है। ओवरब्रिज तो केवल बानगी भर है। आश्चर्य तो इस बात है कि शहर के विकास को लेकर कई तरह की बातें होती हैं। नवाचारों का ढिंढोरा पीटा जाता है। समय-समय पर जनसुनवाई की औपचारिकता निभाई जाती है। प्रशासनिक अधिकारी भी अक्सर 'शिकायत आएगी तो समस्या का समाधान करवा दिया जाएगाÓ जैसा राग अलापते रहते हैं। क्या अधिकारी शहर और उससे जुड़ी समस्याओं से वाकिफ नहीं हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि शहर से गुजरते वक्त अधिकारी अपने आंखें बंद रखते हैं ताकि भूल से भी कोई समस्या दिखाई ना दे। क्योंकि इस प्रकार समस्याओं की अनदेखी करने का वातावरण शहर में लम्बे समय से बना हुआ है। समस्याओं को लम्बित रखने की एक परिपाटी सी बन गई है। तय सीमा में कोई काम होता दिखाई ही नहीं देता है। दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते पीडि़तों की चप्पलें घिस जाती हैं। थक हार बेचारा मन मसोस कर रह जाता है लेकिन ढर्रा नहीं बदलता। ऐसे में बार-बार यही सवाल उठता है, आखिर क्यों एवं कब तक ऐसे हालात रहेंगे? एक साल तक समस्या का समाधान न खोज पाना दर्शाता है शासन-प्रशासन कितने संवेदनशील हैं। जनहित से जुड़े मसलों को वे कितना गंभीरता से लेते हैं। आखिर कोई तो समय सीमा होगी? कोई तो समाधान होगा? कोई भरोसा तो होगा? इस लाइलाज होती बीमारी का कोई तो इलाज होगा? या फिर यूं ही नियति मान संतोष कर लेना चाहिए कि जो है वो वैसा ही रहेगा उसमें कुछ सुधार नहीं हो सकता।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 मई 15 के अंक में प्रकाशित
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