टिप्पणी...
हाईकोर्ट के आदेश के बाद राजमार्गों पर खुले शराब के ठेके आबकारी विभाग के अनुसार हट तो गए हैं लेकिन नई जगह तलाशने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। विशेषकर आबादी क्षेत्र में जहां ये ठेके स्थानांतरित हो रहे हैं, वहां कई जगह विरोध हो रहा है। कई जगह धरना-प्रदर्शनों का दौर भी चल रहा है। जिला प्रशासन एवं पुलिस के समक्ष भी लोग ठेके बंद करने की गुहार लगा रहे हैं। अब हालात यह हो गए हैं कि कानून व्यवस्था भंग होने तक की नौबत आ चुकी है। फिलहाल प्रशासन और आबकारी विभाग कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है।
देखा जाए तो सड़क हादसों का कम करने की दिशा में हाईकोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। निसंदेह इससे शराब की वजह से होने वालों हादसों में कमी भी आएगी। अकेले बीकानेर जिले में राजमार्गों से हटने वाले ठेकों की संख्या करीब सात दर्जन है। फिलहाल इन ठेकों को दूसरी जगह शिफ्ट करना आबकारी विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। वह इसीलिए क्योंकि महिलाओं एवं बच्चों से संबंधित अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार उनकी सुरक्षा का भरोसा भी दिलाती है लेकिन आबादी क्षेत्र में ठेके स्थानांतरित करने से वहां शांति कायम रह पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। वहां के लोगों की सुरक्षा का भरोसा कौन देगा, यह कहने की स्थिति में भी कोई नहीं है। दरअसल, यही बात धरना-प्रदर्शन करने वाले लोगों के जेहन में भी घर किए हुए है।
फिलहाल, सप्ताह भर के घटनाक्रम से इतना तो तय है कि मामला सियासी मोड़ भी ले चुका है। अधिकतर मामलों में प्रदर्शनकारी लोगों का नेतृत्व विपक्षी दल के जनप्रतिनिधि कर रहे हैं। सतारूढ़ दल के पदाधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने इस समूचे प्रकरण से खुद को दूर कर लिया है। इन सब के बावजूद बड़ा सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसे तनावपूर्ण हालात रहेंगे? लोगों का विरोध क्या कोई मायने नहीं रखता? कितना अच्छा होता कि आबकारी विभाग इन ठेकों के लिए पुलिस व प्रशासन के साथ बैठकर कोई समाधान खोजता। जब शराब लॉटरी प्रक्रिया में जिला प्रशासन, पुलिस, आबकारी विभाग साथ बैठ सकते हैं तो ठेकों के स्थान निर्धारण में तीनों की राय लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल, शनिवार को शराब ठेकेदार के कारिंदों एवं धरने पर बैठे लोगों के बीच हुई झड़प इस बात का संकेत हैं
कि मामले में ज्यादा तूल दिया गया तो लोगों का धैर्य जवाब दे सकता है। ठेके खोलने के 'राजहठ के आगे जनाक्रोश को नजरअंदाज करना कतई उचित नहीं है। विचारणीय बात तो यह भी है कि क्या पुलिस की भूमिका ठेकों पर खड़े होकर शराब बिकवाना ही रह गई है? इसीलिए समय रहते समाधान खोजना जरूरी है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 26 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित
हाईकोर्ट के आदेश के बाद राजमार्गों पर खुले शराब के ठेके आबकारी विभाग के अनुसार हट तो गए हैं लेकिन नई जगह तलाशने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। विशेषकर आबादी क्षेत्र में जहां ये ठेके स्थानांतरित हो रहे हैं, वहां कई जगह विरोध हो रहा है। कई जगह धरना-प्रदर्शनों का दौर भी चल रहा है। जिला प्रशासन एवं पुलिस के समक्ष भी लोग ठेके बंद करने की गुहार लगा रहे हैं। अब हालात यह हो गए हैं कि कानून व्यवस्था भंग होने तक की नौबत आ चुकी है। फिलहाल प्रशासन और आबकारी विभाग कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है।
देखा जाए तो सड़क हादसों का कम करने की दिशा में हाईकोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। निसंदेह इससे शराब की वजह से होने वालों हादसों में कमी भी आएगी। अकेले बीकानेर जिले में राजमार्गों से हटने वाले ठेकों की संख्या करीब सात दर्जन है। फिलहाल इन ठेकों को दूसरी जगह शिफ्ट करना आबकारी विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। वह इसीलिए क्योंकि महिलाओं एवं बच्चों से संबंधित अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार उनकी सुरक्षा का भरोसा भी दिलाती है लेकिन आबादी क्षेत्र में ठेके स्थानांतरित करने से वहां शांति कायम रह पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। वहां के लोगों की सुरक्षा का भरोसा कौन देगा, यह कहने की स्थिति में भी कोई नहीं है। दरअसल, यही बात धरना-प्रदर्शन करने वाले लोगों के जेहन में भी घर किए हुए है।
फिलहाल, सप्ताह भर के घटनाक्रम से इतना तो तय है कि मामला सियासी मोड़ भी ले चुका है। अधिकतर मामलों में प्रदर्शनकारी लोगों का नेतृत्व विपक्षी दल के जनप्रतिनिधि कर रहे हैं। सतारूढ़ दल के पदाधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने इस समूचे प्रकरण से खुद को दूर कर लिया है। इन सब के बावजूद बड़ा सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसे तनावपूर्ण हालात रहेंगे? लोगों का विरोध क्या कोई मायने नहीं रखता? कितना अच्छा होता कि आबकारी विभाग इन ठेकों के लिए पुलिस व प्रशासन के साथ बैठकर कोई समाधान खोजता। जब शराब लॉटरी प्रक्रिया में जिला प्रशासन, पुलिस, आबकारी विभाग साथ बैठ सकते हैं तो ठेकों के स्थान निर्धारण में तीनों की राय लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल, शनिवार को शराब ठेकेदार के कारिंदों एवं धरने पर बैठे लोगों के बीच हुई झड़प इस बात का संकेत हैं
कि मामले में ज्यादा तूल दिया गया तो लोगों का धैर्य जवाब दे सकता है। ठेके खोलने के 'राजहठ के आगे जनाक्रोश को नजरअंदाज करना कतई उचित नहीं है। विचारणीय बात तो यह भी है कि क्या पुलिस की भूमिका ठेकों पर खड़े होकर शराब बिकवाना ही रह गई है? इसीलिए समय रहते समाधान खोजना जरूरी है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 26 अप्रैल 15 के अंक में प्रकाशित
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