टिप्पणी
वक्त बदला, लोग बदले, उनकी भूमिकाएं बदली लेकिन बीकानेर नहीं बदला। बदलाव की बयार से एकदम अछूता व अलमस्त शहर। परम्पराओं, मान्यताओं एवं अतीत पर इतराने वाला तो मान, सम्मान एवं स्वाभिमान के लिए जीने वाला। संस्कृति और साहित्य का संगम तो गंगा-जमुनी तहजीब का संवाहक। सामाजिक समरसता व साम्प्रदायिक सद्भाव की जीती जागती नजीर। धर्म-कर्म की नगरी तो धन्ना सेठों की जननी। बीकानेरी जायके का जादू तो समूची दुनिया में सिर चढ़कर बोलता है। जीवंतता और जीवटता से भरे यहां के वाशिंदे लोकरंग, उत्सव, पर्व इस कदर मानते हैं कि संस्कृति जीवंत हो उठती है। बीकानेर ही ऐसा शहर है जहां स्थापना दिवस पर चिलचिलाती धूप में पतंग उड़ाने की परम्परा है। सचमुच जितने यहां के लोग अनूठे हैं, उतने ही यहां के रीति रिवाज। जब सारा देश सोता है, तब रात को घरों से बाहर पाटों पर बैठकर हथाई एवं देश दुनिया पर चिंतन-मनन करने वाले भी बीकानेरी ही होते हैं। वाकई यह शगल अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है।
बहरहाल, स्थापना के 527वें साल में प्रवेश कर रहा बीकानेर अपने अल्हड़पन की वजह से आज भी जवान है, सदाबहार है। बस समय के साथ बीकानेर का फैलाव बढ़ गया है और इसी वजह से कुछ समस्याओं के साथ जरूरतों ने भी पैर पसार लिए। मसलन, बदहाल यातायात व्यवस्था लाइलाज बीमारी का रूप अख्तियार कर चुकी है। शहर के बीचोबीच गुजर रही रेलवे लाइन से दिन में कई बार जाम लगता है। लम्बे समय से यहां रेलवे रिंग रोड व रेलवे बाइपास की आवश्यकता महसूस की जा रही है। औद्योगिक विकास समय की मांग है। बीकानेर में करीब साढ़े चार सौ औद्योगिक इकाइयां हैं, लेकिन सरकारी स्तर पर सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। मेगा फूड पार्क, हवाई सेवा, ड्राइपोर्ट जैसे बड़े प्रोजेक्ट पूरे हो जाएं तो बीकानेर के औद्योगिक विकास को पंख लग सकते हैं।
वैसे गाहे-बगाहे मुद्दों एवं मांगों पर चर्चा तो होती है लेकिन वह मुखर नहीं हो पाती है। इसकी बड़ी वजह है यहां के लोग, जो भाग्यवादी ज्यादा हैं, जिनकी सहनशीलता ही उनकी दुश्मन है। दमदार नेतृत्व का अभाव भी इसका बड़ा कारण रहा है। स्थापना दिवस के मौके पर शहरवासी संकल्प करें कि वे सहनशील बने रहेंगे, अपनी फितरत से किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे लेकिन जायज मांगों के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने से भी गुरेज नहीं करेंगे। यकीनन वे ऐसा कर पाए तो फिर बीकानेर की उम्मीदों को पंख लगना तय है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 18 मई 14 के अंक में प्रकाशित टिप्पणी
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