टिप्पणी...
बीकानेर में उरमूल डेयरी इन दिनों मिलावटी व घटिया दूध के खिलाफ अभियान चला रही है। डेयरी की टीम बारी-बारी से शहर के अलग-अलग इलाको में जा दूध के नमूनों की प्रारंभिक स्तर की जांच कर उनकी गुणवत्ता के बारे में अवगत करा रही है। करीब महीने भर से 'दूध का दूध पानी का पानी अभियान के तहत अब तक सैकड़ों नमूने लिए जा चुके हैं और साठ फीसदी से ज्यादा नमूने खरे नहीं उतरे हैं। उधर, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग इस जांच को उचित नहीं मानता। विभाग के अधिकारियों का मानना है कि यह अधिकृत जांच नहीं है और इससे उपभोक्ताओं में भ्रम फैल रहा है। स्वास्थ्य विभाग की दलील को कुछ देर के लिए सही भी मान लें लेकिन विभाग केवल यह कह कर या क्षेत्राधिकार का मसला बताकर अपने जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। आखिर कथित भ्रम फैलाने से डेयरी को क्या हासिल होगा? देखने वाली बात तो यह भी है कि इसमें किसका नुकसान तथा किसका फायदा है। किसके हित जुड़े हुए हैं। कौन प्रभावित होगा? कौन नहीं? कहीं न कहीं स्वास्थ्य विभाग को लग रहा है कि डेयरी इस कथित भ्रम के बहाने अपना प्रचार रही है तो भी विभाग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हो सकता है यह अभियान डेयरी की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो लेकिन वर्तमान में डेयरी शहर में मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति ही नहीं कर पा रही है। उसकी जांच का दायरा भी ऐसे जगह पर है ज्यादा है, जहां उसके बूथ ही नहीं हैं। वैसे भी डेयरी अधिकारी इसे केवल जन जागरण वाला अभियान ही बता रहे हैं।
खैर, डेयरी के अभियान पर स्वास्थ्य विभाग को भरोसा नहीं है तो ना हो। लेकिन उसकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है। यदि उपभोक्ता स्वास्थ्य से कहीं किसी प्रकार का खिलवाड़ हो रहा है तो उस पर प्रभावी अंकुश लगना चाहिए। मिलावटखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कितना अच्छा होता अगर स्वास्थ्य विभाग खुद ही नमूनों को जांच के लिए जयपुर भिजवाता। रिपोर्ट मिलने पर मिलावटखोरों पर कार्रवाई का डंडा चलाता। इससे मिलावट की जांच भी हो जाती है और लगे हाथ डेयरी के जागरुकता अभियान की असलियत भी सामने आ जाती।
बहरहाल, बिना कार्रवाई किए हुए केवल बातें बनाना तो मिलावटखोरों को क्लीन चिट देने जैसा ही है। वैसे भी मिलावट के खिलाफ स्वास्थ्य विभाग के अभियान कब चलते हैं और कब खत्म होते हैं किसी को कानों-कान तक खबर नहीं होती है। कितना बेहतर हो कि स्वास्थ्य विभाग भी डेयरी की तर्ज पर मिलावटखोरों के खिलाफ पूरी पारदर्शिता के साथ जनता के सामने अभियान चलाए। आंकड़े गवाह हैं कि विभाग ने कितने नमूने लिए। कितने मानकों पर खरे उतरे, कितनों में मिलावट पाई और कितनों को सजा हुई है। हो सकता है कागजी आंकड़ों में सब कुछ दुरुस्त हो लेकिन विभाग ने यह बताने की कभी जहमत नहीं उठाई। गुप-चुप कार्रवाई पर तो सवाल ही उठते हैं। मिलीभगत की बू आती है सो अलग।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 31 मार्च 15 के अंक में प्रकाशित
बीकानेर में उरमूल डेयरी इन दिनों मिलावटी व घटिया दूध के खिलाफ अभियान चला रही है। डेयरी की टीम बारी-बारी से शहर के अलग-अलग इलाको में जा दूध के नमूनों की प्रारंभिक स्तर की जांच कर उनकी गुणवत्ता के बारे में अवगत करा रही है। करीब महीने भर से 'दूध का दूध पानी का पानी अभियान के तहत अब तक सैकड़ों नमूने लिए जा चुके हैं और साठ फीसदी से ज्यादा नमूने खरे नहीं उतरे हैं। उधर, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग इस जांच को उचित नहीं मानता। विभाग के अधिकारियों का मानना है कि यह अधिकृत जांच नहीं है और इससे उपभोक्ताओं में भ्रम फैल रहा है। स्वास्थ्य विभाग की दलील को कुछ देर के लिए सही भी मान लें लेकिन विभाग केवल यह कह कर या क्षेत्राधिकार का मसला बताकर अपने जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। आखिर कथित भ्रम फैलाने से डेयरी को क्या हासिल होगा? देखने वाली बात तो यह भी है कि इसमें किसका नुकसान तथा किसका फायदा है। किसके हित जुड़े हुए हैं। कौन प्रभावित होगा? कौन नहीं? कहीं न कहीं स्वास्थ्य विभाग को लग रहा है कि डेयरी इस कथित भ्रम के बहाने अपना प्रचार रही है तो भी विभाग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हो सकता है यह अभियान डेयरी की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो लेकिन वर्तमान में डेयरी शहर में मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति ही नहीं कर पा रही है। उसकी जांच का दायरा भी ऐसे जगह पर है ज्यादा है, जहां उसके बूथ ही नहीं हैं। वैसे भी डेयरी अधिकारी इसे केवल जन जागरण वाला अभियान ही बता रहे हैं।
खैर, डेयरी के अभियान पर स्वास्थ्य विभाग को भरोसा नहीं है तो ना हो। लेकिन उसकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है। यदि उपभोक्ता स्वास्थ्य से कहीं किसी प्रकार का खिलवाड़ हो रहा है तो उस पर प्रभावी अंकुश लगना चाहिए। मिलावटखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कितना अच्छा होता अगर स्वास्थ्य विभाग खुद ही नमूनों को जांच के लिए जयपुर भिजवाता। रिपोर्ट मिलने पर मिलावटखोरों पर कार्रवाई का डंडा चलाता। इससे मिलावट की जांच भी हो जाती है और लगे हाथ डेयरी के जागरुकता अभियान की असलियत भी सामने आ जाती।
बहरहाल, बिना कार्रवाई किए हुए केवल बातें बनाना तो मिलावटखोरों को क्लीन चिट देने जैसा ही है। वैसे भी मिलावट के खिलाफ स्वास्थ्य विभाग के अभियान कब चलते हैं और कब खत्म होते हैं किसी को कानों-कान तक खबर नहीं होती है। कितना बेहतर हो कि स्वास्थ्य विभाग भी डेयरी की तर्ज पर मिलावटखोरों के खिलाफ पूरी पारदर्शिता के साथ जनता के सामने अभियान चलाए। आंकड़े गवाह हैं कि विभाग ने कितने नमूने लिए। कितने मानकों पर खरे उतरे, कितनों में मिलावट पाई और कितनों को सजा हुई है। हो सकता है कागजी आंकड़ों में सब कुछ दुरुस्त हो लेकिन विभाग ने यह बताने की कभी जहमत नहीं उठाई। गुप-चुप कार्रवाई पर तो सवाल ही उठते हैं। मिलीभगत की बू आती है सो अलग।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 31 मार्च 15 के अंक में प्रकाशित
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