टिप्पणी
हे मां दुर्गा! यह मान मनुहार का दिन साल में एक-दो बार ही क्यों आता है? हे आदिशक्ति! यह खुले हाथ से उपहारों की बारिश एक दो दिन होकर थम क्यों जाती है? हे महाकाली! यह पूछ परख का सिलसिला अवसर विशेष का मोहताज क्यों बना हुआ है? हे शैलपुत्री! यह स्वागत सत्कार का दौर एक दो दिन तक ही सीमित क्यों है? हे ब्रह्मचारिणी! यह आदर व मान-सम्मान देने का मौका रोज क्यों नहीं आता है? हे चंद्रघटा! मां व बहन का स्वरूप आप में सिर्फ आज की क्यों दिखाई देता है? हे कुष्माण्डा! यह मेहमानों जैसी आवभगत साल भर में कभी-कभार ही क्यों होती है? हे कालरात्रि ! यह अपने-पराये का भेद सिर्फ दो दिन के लिए ही क्यों भुलाया जाता है? हे महागौरी! साल भर दूरी रखने वाले के दिलों में प्रेम व स्नेह की धारा अचानक ही कैसे बहने लगती है? हे सिद्धिदात्री! महज दो दिन के लिए धर्म-सम्प्रदाय की बातें गौण कैसे हो जाती हैं? हे स्कंदमाता! पुरुष प्रधान समाज की सोच चमत्कारिक रूप से यकायक कैसे बदल जाती है? हे कात्यायनी! यह कथनी एवं करनी में भेद क्यों है? हे महिषासुर मर्दिनी! एक साथ इतने सवाल पूछने की गुस्ताखी माफ करना। सवाल पूछने का इससे मुफीद मौका और हो भी नहीं सकता। नवरात्र पर आज दिन भर बेटियों की खूब आवभगत हुई। शक्ति स्वरूपा मानकर बेटियों की पूजा की गई। घोर आश्चर्य एवं खुशी तो उन बहनों को देखकर हुई जो समाज की मुख्य धारा से कटी हुई है और खेलने खाने की उम्र में सुबह से शाम तक दर-दर भटक कर भरपेट भोजन जुटाती है। हिकारत से देखी जाती हैं। याचक की भूमिका में दुत्कार एवं फटकार पाती हैं। आज इन बहनों की दीवाली और होली सब एक साथ थी। साफ-सुथरे कपड़ों में सजी-धजी बहनों को कभी मोटरसाइकिल पर ले जाया जा रहा था तो कभी किसी लग्जरी गाड़ी में। इतना ही नहीं आज इन बहनों के प्रति इतना प्रेम उमड़ रहा था कि जैसे वो ही सब कुछ हैं।
हे मां! छोटा मुंह बड़ी बात का आरोप भले ही लगे लेकिन मेरे को यह सब दिखावा लगता है। महज दिखावा। बेटियों के प्रति इतना ही स्नेह एवं प्रेम है तो वह रोज दिखाई क्यों नहीं देता? बेटियां शक्ति स्वरूपा है तो क्यों उनका कोख में ही कत्ल किया जा रहा है? आज पूजन के लिए बेटियों की तलाश करनी पड़ी इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। वाकई बेटियों के प्रति इतनी हमदर्दी व श्रद्धा भाव है तो फिर लिंगानुपात में इतना अंतर क्यों व किसलिए है? देश में प्रति हजार पुरुषों के पीछे 943 महिलाएं हैं। यही आंकड़ा राजस्थान में आकर और भी कम हो जाता है। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ में प्रति हजार पुरुषों के पीछे भी महिलाओं का अनुपात कम है। सोचिए, यह मान-सम्मान, यह आवभगत, यह पूछ परख अगर वाकई दिल से होती तो क्या यह आंकड़ा बराबरी पर नहीं होता?
हे मां! आपके नाम से बेटियों की पूजा करना मेरे को तो औपचारिक हीं नजर आता है। एक तरह का दस्तूर, जिसको निभाने की सब में होड़ लगी है। एक रस्म जिसको पूरी करने में सब लगे हैं। यह देखादेखी व एक दूसरे का अनुसरण करने से ज्यादा कुछ नहीं। बराबरी का दर्जा देने की बात तथा सशक्तिकरण के दावे इस औपचारिकता के आगे बेहद बौने नजर आते हैं। हे मां! सबको सदबुद्धि दो और उनकी सोच को बदलो ताकि बेटियांे के प्रति ऐसा समभाव हमेशा दिखाई दे।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ संस्करण के 5 अप्रेल 17 के अंक में प्रकाशित
हे मां दुर्गा! यह मान मनुहार का दिन साल में एक-दो बार ही क्यों आता है? हे आदिशक्ति! यह खुले हाथ से उपहारों की बारिश एक दो दिन होकर थम क्यों जाती है? हे महाकाली! यह पूछ परख का सिलसिला अवसर विशेष का मोहताज क्यों बना हुआ है? हे शैलपुत्री! यह स्वागत सत्कार का दौर एक दो दिन तक ही सीमित क्यों है? हे ब्रह्मचारिणी! यह आदर व मान-सम्मान देने का मौका रोज क्यों नहीं आता है? हे चंद्रघटा! मां व बहन का स्वरूप आप में सिर्फ आज की क्यों दिखाई देता है? हे कुष्माण्डा! यह मेहमानों जैसी आवभगत साल भर में कभी-कभार ही क्यों होती है? हे कालरात्रि ! यह अपने-पराये का भेद सिर्फ दो दिन के लिए ही क्यों भुलाया जाता है? हे महागौरी! साल भर दूरी रखने वाले के दिलों में प्रेम व स्नेह की धारा अचानक ही कैसे बहने लगती है? हे सिद्धिदात्री! महज दो दिन के लिए धर्म-सम्प्रदाय की बातें गौण कैसे हो जाती हैं? हे स्कंदमाता! पुरुष प्रधान समाज की सोच चमत्कारिक रूप से यकायक कैसे बदल जाती है? हे कात्यायनी! यह कथनी एवं करनी में भेद क्यों है? हे महिषासुर मर्दिनी! एक साथ इतने सवाल पूछने की गुस्ताखी माफ करना। सवाल पूछने का इससे मुफीद मौका और हो भी नहीं सकता। नवरात्र पर आज दिन भर बेटियों की खूब आवभगत हुई। शक्ति स्वरूपा मानकर बेटियों की पूजा की गई। घोर आश्चर्य एवं खुशी तो उन बहनों को देखकर हुई जो समाज की मुख्य धारा से कटी हुई है और खेलने खाने की उम्र में सुबह से शाम तक दर-दर भटक कर भरपेट भोजन जुटाती है। हिकारत से देखी जाती हैं। याचक की भूमिका में दुत्कार एवं फटकार पाती हैं। आज इन बहनों की दीवाली और होली सब एक साथ थी। साफ-सुथरे कपड़ों में सजी-धजी बहनों को कभी मोटरसाइकिल पर ले जाया जा रहा था तो कभी किसी लग्जरी गाड़ी में। इतना ही नहीं आज इन बहनों के प्रति इतना प्रेम उमड़ रहा था कि जैसे वो ही सब कुछ हैं।
हे मां! छोटा मुंह बड़ी बात का आरोप भले ही लगे लेकिन मेरे को यह सब दिखावा लगता है। महज दिखावा। बेटियों के प्रति इतना ही स्नेह एवं प्रेम है तो वह रोज दिखाई क्यों नहीं देता? बेटियां शक्ति स्वरूपा है तो क्यों उनका कोख में ही कत्ल किया जा रहा है? आज पूजन के लिए बेटियों की तलाश करनी पड़ी इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। वाकई बेटियों के प्रति इतनी हमदर्दी व श्रद्धा भाव है तो फिर लिंगानुपात में इतना अंतर क्यों व किसलिए है? देश में प्रति हजार पुरुषों के पीछे 943 महिलाएं हैं। यही आंकड़ा राजस्थान में आकर और भी कम हो जाता है। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ में प्रति हजार पुरुषों के पीछे भी महिलाओं का अनुपात कम है। सोचिए, यह मान-सम्मान, यह आवभगत, यह पूछ परख अगर वाकई दिल से होती तो क्या यह आंकड़ा बराबरी पर नहीं होता?
हे मां! आपके नाम से बेटियों की पूजा करना मेरे को तो औपचारिक हीं नजर आता है। एक तरह का दस्तूर, जिसको निभाने की सब में होड़ लगी है। एक रस्म जिसको पूरी करने में सब लगे हैं। यह देखादेखी व एक दूसरे का अनुसरण करने से ज्यादा कुछ नहीं। बराबरी का दर्जा देने की बात तथा सशक्तिकरण के दावे इस औपचारिकता के आगे बेहद बौने नजर आते हैं। हे मां! सबको सदबुद्धि दो और उनकी सोच को बदलो ताकि बेटियांे के प्रति ऐसा समभाव हमेशा दिखाई दे।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ संस्करण के 5 अप्रेल 17 के अंक में प्रकाशित
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