Tuesday, November 14, 2017

पत्थर भी मारो तो झुंझुनूं के बंदे को लगेगा...


बस यूं ही
काफी दिनों से कुछ लिखा नहीं। प्रमुख वजह तो काम की व्यस्तता ही रही। कोई रोचक विषय भी नहीं मिला। खैर, अपनी बात एक चर्चित जुमले से करता हूं। आप देश या दुनिया में कहीं पर भी चले जाओ आपको झुंझुनूं का आदमी मिल ही जाएगा। इसको इस तरह भी कहते हैं कि भरी भीड़ में पत्थर मारो तो एक दो जने झुंझुनूं के निकल ही जाएंगे, जिनके पत्थर लगेगा। मेरे साथ एेसे कई अनुभव हो चुके हैं, जहां भी गया झुंझुनूं का आदमी टकरा ही गया। हां समय के साथ किसी के नाम जरूर भूल गया हूं लेकिन घटनाक्रम याद हैं। बीए तक की शिक्षा तो झुंझुनूं में हुई। इसके बाद पत्रकारिता के सिलसिले में बाहर निकला तो भोपाल में रूम पार्टनर जो मिला वह झुंझुनूं के पौंख गांव का ही था। पत्रकारिता का प्रशिक्षण पूरा कर श्रीगंगानगर आया तो यहां एक दो जने तो गांव के ही मिल गए। एक और शख्स भडौंदा खुर्द के मिले। उस वक्त रिको में रहते थे। इसके बाद अलवर गया तो वहां भी हेजमपुरा के एक परिवार से परिचय हुआ संयोग से उनकी रिश्तेदारी भी गांव में निकल आई। सीकर व झुंझुनूं काम किया तो यहां तो झुंझुनूं के लोग मिलने ही थे। झुंझुनूं के बाद छत्तीसगढ़ बिलासपुर गया। संयोग देखिए जहां मकान किराये पर लिया उसी की बगल मे रहने वाले चिकित्सक नवलगढ़ के थे। पत्रिका में काम करने वाले एक युवती भी झुंझुनूं की निकली। एक दो संवाददाता भी एेसे मिले जिनके पूर्वज झुंझुनूं से पलायन कर बिलासपुर पहुंचे थे।। इसके बाद भिलाई आया तो वहां भी पौंख के सज्जन मिले। नाम भूल रहा हूं लेकिन इतना याद है कि उनका ससुराल और मेरा ससुराल भी एक ही निकला। वो काफी समय से भिलाई में रहते हैं, वहीं पर मकान बना लिए। भिलाई से बीकानेर आया, वहां तो झुंझुनूं के लोगों की भरमार है। और तो और गांव के भी सात आठ परिवार रहते हैं।
इसी बीच 2010 का वाकया याद आ रहा है। एक कार्यक्रम के सिलसिले में गुजरात के अहमदाबाद जाना हुआ। जयपुर से जो बस पकड़ी उसके परिचालक की आवाज जानी पहचानी लगी और तपाक से पूछ लिया, भाई झुंझुनूं का है के। उसने हां कहा झट से गांव पूछ लिया। उसने कहा ककडे़ऊ। मैंने फिर पूछ लिया छोटा या बड़ा। खैर, अहमदाबार से जब लौट रहा था और टिकट खिड़की पर गया तो काउंटर पर बैठे व्यक्ति के लहजे से ही समझ गया कि यह झुंझुनूं का है। आत्मविश्वास के साथ पूछ लिया तो वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और स्वीकृति में सिर हिला दिया। वह मंडावा क्षेत्र का निकला।
बहरहाल, बीकानेर से श्रीगंगानगर आ गया। यहां पुलिस, नर्सिंग में झुंझुनूं के लोगों की भरमार है ही। पीडब्ल्यूडी व सर्किट हाउस में भी झुंझुनूं के लोग हैं। ताजा मामला शनिवार पांच अगस्त का है। मैं अपने सहयोगियों के साथ रायसिंनगर से श्रीगंगानगर लौट रहा था। श्रीगंगानगर बाइपास पर यातायात पुलिस के जवान ने हमारी कार को रोक लिया और कागजात मांगे। मैं जब उतर के उनके पास गया तो उन्होंने मेरा परिचय पत्र देखा। करीब पांच मिनट के वार्तालाप के बाद एक जने ने मेरे परिचय पत्र को पलटते हुए कहा कि आप बीकानेर के हैं क्या? मैंने कहा जी नहीं, यह परिचय पत्र बीकानेर शाखा से जारी हुआ है मैं बीकानेर का नहीं हूं। इस पर उनका अगला सवाल था कि आप कहां के रहने वाले हैं। मैंने झुंझुनूं का नाम लिया तो पास बैठे देवकरण नामक जवान के चेहरे पर मुस्कान आ गई है। और हिन्दी से ठेठ मारवाड़ी में आते ही कहने लगा कि भाईजी झुंझुनूं में कहां के हो। मैंने कहां चिड़ावा तहसील में है तो उन्होंने कहा गांव को नाम बताओ। मैंने जैसे ही गांव का नाम लिया तो देवकरण ने आसपास के कई गांव के नाम गिना दिए। मैं समझ चुका था कि देवकरण भी आसपास के गांव का ही है। मैंने पूछ लिया तो उसने अपने गांव का नाम घरड़ाना खुर्द बताया मैं मुस्कुरा रहा था झुंझुनूं का आदमी मिल ही जाता है। कहीं भी कभी भी।

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