बात कबीर जी के दोहों की चल रही थी। उन्होंने मन पर जितना लिखा है, अगर उसको पढ़कर आत्मसात कर लिया जाए तो न केवल मन की थाह लेने में मदद मिलेगी बल्कि मन को नियंत्रण में रखने में भी आसानी होगी। मन पर कबीर जी के दोहे इतने कालजयी हैं कि आज भी प्रासंगिक लगते हैं। इन दोहों की बानगी देखिए, फिर आगे जारी रहेगी बात। 'नहाये धोए क्या हुआ, जो मन का मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।' अर्थात सिर्फ नहाने धोने से (शरीर को सिर्फ बाहर से साफ़ करने से) क्या होगा? यदि मन मैला ही रह गया (मन के विकार नहीं निकाल सके) मछली हमेशा जल में रहती है लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गन्ध (बास) नहीं जाती। इसी तरह एक अन्य दोहा, 'जग में बैरी कोय नहीं, जो मन शीतल होय। या आपा को डारि दे, दया करे सब कोय।' अर्थात संसार में हमारा कोई शत्रु (बैरी) नहीं हो सकता यदि हमारा मन शांत हो तो। यदि हम मन से मान-अभिमान और अहंकार को छोड़ दे तो हम सब पर दया करेंगे और सभी हमसे प्रेम करने लगेंगे। खैर, मन पर दोहों की फेहरिस्त लंबी है। मन के बारे मंे जितना लिखा जाए जैसा लिखा जाए और जब-जब भी लिखा जाए वह कम है। क्योंकि मन तो अनंत है। असीम है। अपरिमित है।
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