टिप्पणी
यह विशुद्ध रूप से धंधा है, जो केवल और केवल धोखे की बुनियाद पर टिका है। यह धंधानिहायत ही दोयम दर्जे का है, जो विश्वास व रिश्तों का कत्ल भी करता है। यह धंधा बेहद घृणित व निम्नस्तर का है, जो झूठ व फरेब के सहारे चलता है। यह धंधा एक तरह का व्यापार है, जो मानवीय मूल्यों व रिश्तों की भाषा नहीं समझता। यह धंधा कुत्सित सोच का परिणाम है, जो केवल पैसों की भाषा ही जानता है। यह धंधा लालच की नींव पर बने गठजोड़ से चलता है। इस धंध में पैसे की भूख वाले दलाल तथा'धरती का भगवान कहे जाने वाले कुछ कुछ लालची किस्म के चिकित्सक शामिल हैं जो इस कुकृत्य को अंजाम दे रहे हैं। सभ्य समाज को शर्मसार करने वाले इस धंधे में वो माता-पिता भी शामिल हैं, जो बेटे-बेटियों में भेद करते हैं और कोख में कत्ल के पाप के भागीदार बनते हैं। दरअसल, यह धंधा कोख में कत्ल करने का है। यह धंधा पैसों के बदले अजन्मे बच्चों की हत्या का है। चिंताजनक व हैरत वाली बात यह है इस धंधे में कत्ल बेटियों के साथ-बेटों का भी हो रहा है। यह बात एक बार नहीं कई बार सामने आ चुकी है। फिर भी पाप का यह खेल बदस्तूर जारी है। विशेषकर हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर जिलों में हाल में हुए डिकॉय आपरेशन में यह बात विशेष तौर पर सामने आई कि गर्भ में बेटी बताकर भी गर्भपात करवाया जा रहा है। महज इसीलिए कि कोख में बेटा बता दिया तो फिर गर्भपात कौन करवाएगा?
बड़ा सवाल यह भी है कि कानूनी धरपकड़, तमाम सरकारी अभियानों तथा जागरुकता विषयक कार्यक्रमों के बावजूद इस धंधे पर रोक क्यों नहीं लग रही? बेटी बचाओ व समानता के नारों के बीच मानसिकता में बदलाव आ क्यों नहीं रहा है? इन सवालों से जाहिर होता है कि कहीं न कहीं कमी जरूर है। भले ही वह सरकारी स्तर पर हो या सामाजिक रूप से स्वीकार्यता की। इस कमी को चिन्हित कर उसको दूर करने की सबसे पहले जरूरत है। समाज व सरकारी प्रयासों में बिना तालमेल के समानता की बात करना बेमानी है। एकसूत्री मंथन इस बात पर हो आखिर मानसिकता में बदलाव कैसे व किस तरह आ सकता है। बदलाव के प्रयासों पर सर्वाधिक जोर दिया जाना चाहिए। समानता में बाधक सामाजिक वर्जनाओं पर चोट हो। समानता के समर्थकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों में जरूरतमंद कन्याओं को शिक्षित करने तथा उनके हाथ पीले करवाने वाली सेवाभावी संस्थाओं की कमी नहीं है। सरकार के साथ-साथ इन संस्थाओं को भी इस दिशा में सोचना चाहिए। वैसे बेटा-बेटी में समानता में सबसे बड़ी बाधा दहेज भी है। दहेज के कारण समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है। दहेज का लेन-देन किस तरह से बंद हो, समाज की इसमें क्या भूमिका हो सकती है तथा सरकारी स्तर पर इसकी रोकथाम के लिए कानून में क्या संशोधन हो सकते हैं, इन सब बातों पर बड़े स्तर पर मंथन व चिंतन की जरूरत है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 8 अप्रेल 17 के अंक में प्रकाशित
यह विशुद्ध रूप से धंधा है, जो केवल और केवल धोखे की बुनियाद पर टिका है। यह धंधानिहायत ही दोयम दर्जे का है, जो विश्वास व रिश्तों का कत्ल भी करता है। यह धंधा बेहद घृणित व निम्नस्तर का है, जो झूठ व फरेब के सहारे चलता है। यह धंधा एक तरह का व्यापार है, जो मानवीय मूल्यों व रिश्तों की भाषा नहीं समझता। यह धंधा कुत्सित सोच का परिणाम है, जो केवल पैसों की भाषा ही जानता है। यह धंधा लालच की नींव पर बने गठजोड़ से चलता है। इस धंध में पैसे की भूख वाले दलाल तथा'धरती का भगवान कहे जाने वाले कुछ कुछ लालची किस्म के चिकित्सक शामिल हैं जो इस कुकृत्य को अंजाम दे रहे हैं। सभ्य समाज को शर्मसार करने वाले इस धंधे में वो माता-पिता भी शामिल हैं, जो बेटे-बेटियों में भेद करते हैं और कोख में कत्ल के पाप के भागीदार बनते हैं। दरअसल, यह धंधा कोख में कत्ल करने का है। यह धंधा पैसों के बदले अजन्मे बच्चों की हत्या का है। चिंताजनक व हैरत वाली बात यह है इस धंधे में कत्ल बेटियों के साथ-बेटों का भी हो रहा है। यह बात एक बार नहीं कई बार सामने आ चुकी है। फिर भी पाप का यह खेल बदस्तूर जारी है। विशेषकर हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर जिलों में हाल में हुए डिकॉय आपरेशन में यह बात विशेष तौर पर सामने आई कि गर्भ में बेटी बताकर भी गर्भपात करवाया जा रहा है। महज इसीलिए कि कोख में बेटा बता दिया तो फिर गर्भपात कौन करवाएगा?
बड़ा सवाल यह भी है कि कानूनी धरपकड़, तमाम सरकारी अभियानों तथा जागरुकता विषयक कार्यक्रमों के बावजूद इस धंधे पर रोक क्यों नहीं लग रही? बेटी बचाओ व समानता के नारों के बीच मानसिकता में बदलाव आ क्यों नहीं रहा है? इन सवालों से जाहिर होता है कि कहीं न कहीं कमी जरूर है। भले ही वह सरकारी स्तर पर हो या सामाजिक रूप से स्वीकार्यता की। इस कमी को चिन्हित कर उसको दूर करने की सबसे पहले जरूरत है। समाज व सरकारी प्रयासों में बिना तालमेल के समानता की बात करना बेमानी है। एकसूत्री मंथन इस बात पर हो आखिर मानसिकता में बदलाव कैसे व किस तरह आ सकता है। बदलाव के प्रयासों पर सर्वाधिक जोर दिया जाना चाहिए। समानता में बाधक सामाजिक वर्जनाओं पर चोट हो। समानता के समर्थकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों में जरूरतमंद कन्याओं को शिक्षित करने तथा उनके हाथ पीले करवाने वाली सेवाभावी संस्थाओं की कमी नहीं है। सरकार के साथ-साथ इन संस्थाओं को भी इस दिशा में सोचना चाहिए। वैसे बेटा-बेटी में समानता में सबसे बड़ी बाधा दहेज भी है। दहेज के कारण समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है। दहेज का लेन-देन किस तरह से बंद हो, समाज की इसमें क्या भूमिका हो सकती है तथा सरकारी स्तर पर इसकी रोकथाम के लिए कानून में क्या संशोधन हो सकते हैं, इन सब बातों पर बड़े स्तर पर मंथन व चिंतन की जरूरत है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 8 अप्रेल 17 के अंक में प्रकाशित
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