टिप्पणी
यह सवाल है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का। केन्द्र की ओर से समर्थन मूल्य का निर्धारण होने तथा मंडी में सरसों की आवक शुरू होने के बावजूद अभी तक इसकी सरकारी खरीद शुरू नहीं हो पाई है। यह सवाल बहुत बड़ा है और लंबे समय से अनुतरित है। तभी तो यह कमोबेश हर साल उठता है और हर बार इसी तरह का विरोध होता है। व्यवस्थाओं में दोष के खिलाफ आक्रोश भड़कना लाजिमी है। इस कड़ी में आंदोलन होते हैं। वार्ताओं के दौर चलते है। ज्ञापन लेने की औपचारिकताएं निभाई जाती हैं तो आश्वासन की रेवडि़यां भी खूब बंटती हैं। अंततोगत्वा सियासी लाभ-हानि का गणित देखने तथा तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर विरोध को शांत करने के वैकल्पिक उपाय तलाशे जाते हैं।
विडम्बना यह है कि इस तरह की प्रक्रिया हर साल दोहराई जाती है। इससे भी अफसोसजनक बात तो यह है कि हक हकूक से जुड़े मसले का कभी स्थायी समाधान नहीं खोजा जाता। जिम्मेदारों और हुक्मरानों ने रोजी-रोटी से जुड़े इस अहम सवाल को कभी गंभीरता से नहीं लिया। यह सवाल धरतीपुत्रों के हक से जुड़ा है। यह सवाल उनके कठोर परिश्रम के प्रतिफल से वाबस्ता है। यह सवाल उनके जीवन से इतना घुला-मिला और रचा बसा है कि इसके समाधान होने से ही उनके घर में खुशी आती है।
यह सवाल है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का। केन्द्र की ओर से समर्थन मूल्य का निर्धारण होने तथा मंडी में सरसों की आवक शुरू होने के बावजूद अभी तक इसकी सरकारी खरीद शुरू नहीं हो पाई है। इसी मांग को लेकर श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिले के धरतीपुत्र आंदोलन की राह पर हैं। उनमें आक्रोश उबल रहा है लेकिन जिम्मेदारों व हुक्मरानों के पास अभी कोई ठोस समाधान या आश्वासन नहीं है। सरकारी प्रयासों की बानगी देखिए कि श्रीगंगानगर जिले में अभी तक चने की सरकारी खरीद के लिए केवल एक केन्द्र बनाया गया है तथा गेहूं के लिए 34 केन्द्रों की स्थापना की गई है, लेकिन सरसों के लिए खरीद केन्द्र तक बनाने की जरूरत नहीं समझी गई। इससे समझा जा सकता है कि सरकार खरीद मामले में कितनी गंभीर है और किसानों की कितनी हमदर्द है।
प्रदेश को धन-धान्य से परिपूर्ण करने वाले जिलों में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ का योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है, लेकिन यह सब करने के लिए किसान को पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है। सड़कों पर आना पड़ता है। कभी पानी के लिए, कभी बारी के लिए। वह जैसे-तैसे इन समस्याओं से निबटता है तो फिर खरीद के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। दिन-रात एक कर कठोर परिश्रम दम पर रिकॉर्डतोड़ पैदावार लेने वाले धरतीपुत्र को उसकी मेहनत का वाजिब हक आखिरकार क्यों नहीं मिलता?
बहरहाल, यह तो जगजाहिर है कि श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के किसानों ने अपनी मेहनत व लगन के दम पर दोनों ही जिलों को कृषि के मामले में अव्वल बनाया है। सरकारी स्तर पर पानी से लेकर जिंसों की खरीद तक उन्हें सहुलियत मिले तो नि:संदेह दोनों जिलों के खाते में उपलब्धियों के और भी रिकॉर्ड होंगे। पर यह सब सरकार व उनके हुक्मरानों की इच्छाशक्ति एवं संवदेनशीलता पर निर्भर करता है। धरतीपुत्रों की धैर्य की परीक्षा अब खत्म होनी चाहिए। उनके साथ सरकारी स्तर की यह संवेदनहीनता व नाइंसाफी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 22 मार्च 17 के अंक में प्रकाशित
यह सवाल है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का। केन्द्र की ओर से समर्थन मूल्य का निर्धारण होने तथा मंडी में सरसों की आवक शुरू होने के बावजूद अभी तक इसकी सरकारी खरीद शुरू नहीं हो पाई है। यह सवाल बहुत बड़ा है और लंबे समय से अनुतरित है। तभी तो यह कमोबेश हर साल उठता है और हर बार इसी तरह का विरोध होता है। व्यवस्थाओं में दोष के खिलाफ आक्रोश भड़कना लाजिमी है। इस कड़ी में आंदोलन होते हैं। वार्ताओं के दौर चलते है। ज्ञापन लेने की औपचारिकताएं निभाई जाती हैं तो आश्वासन की रेवडि़यां भी खूब बंटती हैं। अंततोगत्वा सियासी लाभ-हानि का गणित देखने तथा तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर विरोध को शांत करने के वैकल्पिक उपाय तलाशे जाते हैं।
विडम्बना यह है कि इस तरह की प्रक्रिया हर साल दोहराई जाती है। इससे भी अफसोसजनक बात तो यह है कि हक हकूक से जुड़े मसले का कभी स्थायी समाधान नहीं खोजा जाता। जिम्मेदारों और हुक्मरानों ने रोजी-रोटी से जुड़े इस अहम सवाल को कभी गंभीरता से नहीं लिया। यह सवाल धरतीपुत्रों के हक से जुड़ा है। यह सवाल उनके कठोर परिश्रम के प्रतिफल से वाबस्ता है। यह सवाल उनके जीवन से इतना घुला-मिला और रचा बसा है कि इसके समाधान होने से ही उनके घर में खुशी आती है।
यह सवाल है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का। केन्द्र की ओर से समर्थन मूल्य का निर्धारण होने तथा मंडी में सरसों की आवक शुरू होने के बावजूद अभी तक इसकी सरकारी खरीद शुरू नहीं हो पाई है। इसी मांग को लेकर श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिले के धरतीपुत्र आंदोलन की राह पर हैं। उनमें आक्रोश उबल रहा है लेकिन जिम्मेदारों व हुक्मरानों के पास अभी कोई ठोस समाधान या आश्वासन नहीं है। सरकारी प्रयासों की बानगी देखिए कि श्रीगंगानगर जिले में अभी तक चने की सरकारी खरीद के लिए केवल एक केन्द्र बनाया गया है तथा गेहूं के लिए 34 केन्द्रों की स्थापना की गई है, लेकिन सरसों के लिए खरीद केन्द्र तक बनाने की जरूरत नहीं समझी गई। इससे समझा जा सकता है कि सरकार खरीद मामले में कितनी गंभीर है और किसानों की कितनी हमदर्द है।
प्रदेश को धन-धान्य से परिपूर्ण करने वाले जिलों में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ का योगदान किसी से छिपा हुआ नहीं है, लेकिन यह सब करने के लिए किसान को पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है। सड़कों पर आना पड़ता है। कभी पानी के लिए, कभी बारी के लिए। वह जैसे-तैसे इन समस्याओं से निबटता है तो फिर खरीद के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। दिन-रात एक कर कठोर परिश्रम दम पर रिकॉर्डतोड़ पैदावार लेने वाले धरतीपुत्र को उसकी मेहनत का वाजिब हक आखिरकार क्यों नहीं मिलता?
बहरहाल, यह तो जगजाहिर है कि श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के किसानों ने अपनी मेहनत व लगन के दम पर दोनों ही जिलों को कृषि के मामले में अव्वल बनाया है। सरकारी स्तर पर पानी से लेकर जिंसों की खरीद तक उन्हें सहुलियत मिले तो नि:संदेह दोनों जिलों के खाते में उपलब्धियों के और भी रिकॉर्ड होंगे। पर यह सब सरकार व उनके हुक्मरानों की इच्छाशक्ति एवं संवदेनशीलता पर निर्भर करता है। धरतीपुत्रों की धैर्य की परीक्षा अब खत्म होनी चाहिए। उनके साथ सरकारी स्तर की यह संवेदनहीनता व नाइंसाफी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 22 मार्च 17 के अंक में प्रकाशित
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