बस यूं ही
सोशल मीडिया पर कल हॉकी का जोरदार जलवा दिखाई दिया। वह हॉकी जो राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हमेशा नेपथ्य में रहती आई है। वह हॉकी जो ग्लेमर की चकाचौंध से दूर रही है। वह हॉकी जो विज्ञापन की चमक से अछूती है। और तो और जिसके सभी खिलाडि़यों के नाम भी शायद ही किसी को याद हों। अधिकतर तो यह बताने की स्थिति में भी नहीं होंगे कि जिस प्रतियोगिता में भारत कल जीता, उससे पहले उसका मुकाबला किन-किन देशों से हुआ तथा उनको कितने अंतर से पराजित किया। यह तो संयोग रहा कि कल क्रिकेट में भारत की पाकिस्तान के हाथों करारी हार हो गई और हॉकी यकायक लोकप्रिय हो गई। हॉकी की जीत ने भारत-पाक क्रिकेट मैच की शुरू से आलोचना करने वालों को बैठे बिठाए एक मुद्दा दे दिया। खुश होने की वजह दे दी। हार को भुलाने का बहाना दे दिया। बस फिर क्या था, पिल पड़े क्रिकेट पर। विशेषज्ञों की तरह तर्क व दलीलें दी जाने लगी। हॉकी की शान में पता नहीं क्या-क्या कहा जाने लगा। क्रिकेट को गुलामी का प्रतीक, अंग्रेजों का खेल, समय बर्बाद करने वाला और न जाने क्या-क्या कह दिया गया। फिर भी सवाल उठता है कहीं यह हार की खीझ तो नहीं?
खैर, गरमागरम बहस व चर्चा के बीच मेरा दावा है अगर यही परिदृश्य उलटा होता मतलब हॉकी या क्रिकेट दोनों में ही जीत मिलती, या केवल क्रिकेट में जीतते तो इस तरह विशेषज्ञों की या हॉकी प्रेमियों की फौज खड़ी नहीं होती। दरअसल, खेल पसंद से जुड़ा विषय है। किसी को क्रिकेट से प्रेम है तो किसी को हॉकी से हो सकता है। प्रेम कैसा व कितना है इसका कोई पैमाना नहीं लेकिन मैदानों पर दर्शकों की भीड़ यह तय जरूर कर देती है कि लोकप्रियता किस खेल की है। वैसे खेल हमेशा भावना से जुड़ा होता है। अब जिसकी भावना जिस खेल से जुड़ी है लाजिमी है,वह उसमें जीत ही चाहेगा। भारत-पाक के बीच किसी भी तरह का मैच हो वह रोमांच व धड़कनें बढ़ाने वाला इसीलिए भी होता है क्योंकि खेल प्रेमी इसे एक मैच न मानकर युद्ध की तरह मानते हैं। निष्कर्ष के रूप में मेरा तो यही कहना है कि खेल को खेल ही रहने दो कोई नाम न दो। और हां सियासत या किसी वाद का मुलम्मा तो बिलकुल भी मत चढाओ।
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