कबीर जी के मुझ से बुरा न कोय वाले दोहे के बिना तो चर्चा ही अधूरी है। संभवत: इस दोहे से सभी का वास्ता पड़ा है। 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।' हालांकि इस दोहे को मजाक के रूप में उल्टा भी कहा जाता है। 'भला जो देखने मैं चला, भला न मिलिया न कोय, जो मन देखा आपना मुझ से भला न कोय।' खैर, मन के साथ इतने दोहों की चर्चा इसलिए भी क्योंकि इनमें अधिकतर दोहे आज भी कंठस्थ हैं। हो भी क्यों नहीं? विद्यालय में आठवीं तक निर्विवाद रूप से अंत्याक्षरी के मामले में सारी स्कूल एक तरफ और अपुन एक तरफ रहे हैं। उस दौर के मेरे सहपाठियों को यह बात भली भांति याद होगी। गुरुजी मेरे को प्रत्येक कक्षा में बारी-बारी से भेजते थे और विद्यार्थियों को चुनौती देते थे इसको कोई हरा कर दिखाए। यही हाल अंग्रेजी में था। कई बार दूसरे स्कूलों से टीम आती थी। अंत्याक्षरी मुकाबले में मैं अक्सर खड़ा ही रहता था। बैठता ही नहीं था। क्योंकि मैं दूसरों को बोलने का मौका कम ही देता था। खैर मन की चर्चा में मन दूसरे विषय की ओर चला गया। कबीर जी के यह दोहे भी कम चर्चित नहीं है मसलन 'ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।' 'फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम। कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम।' 'मन दिना कछु और ही, तन साधुन के संग। कहे कबीर कारी दरी, कैसे लागे रंग।' 'सुमिरन मन में लाइए, जैसे नाद कुरंग। कहे कबीरा बिसर नहीं, प्राण तजे ते ही संग।' दोहों के बाद अब आगे छोटी सी चर्चा मन आधारित कुछ चुनिंदा कविताओं की होगी।
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