टिप्पणी
तय समय से भी देर तक अगर शराब की दुकानें खुली हुई दिखाई दे जाए तो बिना किसी शक सुबहा के यह मान लेना चाहिए कि यह सब गैरकानूनी रूप से बने गठजोड़ का कमाल है। ठेकों पर ठरके के साथ दिन दहाड़े निर्धारित से ज्यादा कीमत वसूली जाए तो यह जान लेना चाहिए कि यह सब जिम्मेदारों की जुगलबंदी के जादू का धमाल है। बार-बार शिकायत के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो तो यह आसानी समझ जाना चाहिए कि दाल में काला नहीं अपितु दाल ही काली है। श्रीगंगानगर में बुधवार को पकड़े गए तीन सरकारी नुमाइंदों की कहानी से तो यही जाहिर होता है।
आरोप है कि शराब ठेकेदारों से बंधी लेकर यह तीनों (एक पुलिस थानाधिकारी, एक आबकारी सहायक एवं सिपाही) उनको मनमर्जी से शराब बेचने की छूट देते थे। वैसे इस घटनाक्रम को एक बानगी के रूप में भी देखा जा सकता है, क्योंकि समूचे राजस्थान में कहीं पर भी चले जाओ। कमोबेश हर ठेके पर शराब ठेकेदारों के कारिंदों के रंग ढंग व मनमर्जी का खेल इसी अंदाज में चलता दिखाई देता है। तभी तो यह खेल बड़ा लगता है। श्रीगंगानगर जैसे ही हालात बाकी जगह नजर आते हैं। एेसे में यह मामला बेहद गंभीर हो जाता है। साथ ही इन आरोपों को भी बल मिलता है कि बंधी के बहाने मनमर्जी करने की छूट देने का खेल कहीं समूचे प्रदेश में तो नहीं खेला जा रहा? क्योंकि सभी जगह एक जैसी समानता समूचे सिस्टम को न केवल संदिग्ध बनाती है बल्कि उस पर सवाल भी उठाती है। सरकारी संरक्षण में ही इस तरह का अवैध काम फल फूल रहा है तो कैसे यकीन किया जाए कि बाड़ खेत की रखवाली भली भांति से कर रही है? इस तरह के हालात से तो भांग पूरे कुएं में ही घुली हुई नजर आती है।
वैसे इस तरह के मामलों में अक्सर बंधी का हिस्सा ऊपर तक जाने की चर्चा भी सुनने को मिल जाती है। कहा जाता है कि नीचे से ऊपर तक एक चेन सिस्टम है, जिनमें यह हिस्सा बंटता है। लेकिन बात कभी चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ती। बंधी ऊपर जाती है या नहीं? और जाती है तो इसमें किस-किस की भागीदारी और भूमिका है और किसकी नहीं ? जैसे सवाल अनुत्तरित ही रहते हैं। अब यह कैसे संभव है कि सिर्फ तीन सरकारी नुमाइंदों को बंधी देकर शराब ठेकेदार इतने बेफिक्र होकर बेखौफ शराब बेच रहे थे तथा अन्य किसी को कानोकान खबर तक नहीं थी? दरअसल यह कानोकान खबर न होने की बात ही बंधी के ऊपर जाने की चर्चा को बल देती है।
यह तो जगजाहिर ही है कि गैरकानूनी काम जब सरेआम संचालित होते हैं तो सवाल उठते हैं और जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा भी करते हैं। क्या जिम्मेदार यह बताने की स्थिति में हैं कि शराब ठेकेदारों को ज्यादा कीमत वसूलने की हिम्मत कौन दे रहा है? कौन है जो इनको देर रात दुकान खोलने का साहस दे रहा है? कौन है जो इनके डर व शंका को खत्म कर रहा है? कौन है जो इनके खिलाफ आने वाली शिकायतों पर गौर नहीं करने दे रहा? सवालों की यह फेहरिस्त बताती है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। कोई कमजोर कड़ी है वरना अवैध कारोबार का संचालन इतनी आसानी से कैसे संभव है। बहरहाल, बड़ा सवाल यह भी है कि यह गठजोड़ तोड़ेगा कौन? इसलिए जिम्मेदारों की यह जुगलबंदी तोडऩे में जनता की जागरुकता ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 9 मार्च 17 के अंक में प्रकाशित
तय समय से भी देर तक अगर शराब की दुकानें खुली हुई दिखाई दे जाए तो बिना किसी शक सुबहा के यह मान लेना चाहिए कि यह सब गैरकानूनी रूप से बने गठजोड़ का कमाल है। ठेकों पर ठरके के साथ दिन दहाड़े निर्धारित से ज्यादा कीमत वसूली जाए तो यह जान लेना चाहिए कि यह सब जिम्मेदारों की जुगलबंदी के जादू का धमाल है। बार-बार शिकायत के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो तो यह आसानी समझ जाना चाहिए कि दाल में काला नहीं अपितु दाल ही काली है। श्रीगंगानगर में बुधवार को पकड़े गए तीन सरकारी नुमाइंदों की कहानी से तो यही जाहिर होता है।
आरोप है कि शराब ठेकेदारों से बंधी लेकर यह तीनों (एक पुलिस थानाधिकारी, एक आबकारी सहायक एवं सिपाही) उनको मनमर्जी से शराब बेचने की छूट देते थे। वैसे इस घटनाक्रम को एक बानगी के रूप में भी देखा जा सकता है, क्योंकि समूचे राजस्थान में कहीं पर भी चले जाओ। कमोबेश हर ठेके पर शराब ठेकेदारों के कारिंदों के रंग ढंग व मनमर्जी का खेल इसी अंदाज में चलता दिखाई देता है। तभी तो यह खेल बड़ा लगता है। श्रीगंगानगर जैसे ही हालात बाकी जगह नजर आते हैं। एेसे में यह मामला बेहद गंभीर हो जाता है। साथ ही इन आरोपों को भी बल मिलता है कि बंधी के बहाने मनमर्जी करने की छूट देने का खेल कहीं समूचे प्रदेश में तो नहीं खेला जा रहा? क्योंकि सभी जगह एक जैसी समानता समूचे सिस्टम को न केवल संदिग्ध बनाती है बल्कि उस पर सवाल भी उठाती है। सरकारी संरक्षण में ही इस तरह का अवैध काम फल फूल रहा है तो कैसे यकीन किया जाए कि बाड़ खेत की रखवाली भली भांति से कर रही है? इस तरह के हालात से तो भांग पूरे कुएं में ही घुली हुई नजर आती है।
वैसे इस तरह के मामलों में अक्सर बंधी का हिस्सा ऊपर तक जाने की चर्चा भी सुनने को मिल जाती है। कहा जाता है कि नीचे से ऊपर तक एक चेन सिस्टम है, जिनमें यह हिस्सा बंटता है। लेकिन बात कभी चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ती। बंधी ऊपर जाती है या नहीं? और जाती है तो इसमें किस-किस की भागीदारी और भूमिका है और किसकी नहीं ? जैसे सवाल अनुत्तरित ही रहते हैं। अब यह कैसे संभव है कि सिर्फ तीन सरकारी नुमाइंदों को बंधी देकर शराब ठेकेदार इतने बेफिक्र होकर बेखौफ शराब बेच रहे थे तथा अन्य किसी को कानोकान खबर तक नहीं थी? दरअसल यह कानोकान खबर न होने की बात ही बंधी के ऊपर जाने की चर्चा को बल देती है।
यह तो जगजाहिर ही है कि गैरकानूनी काम जब सरेआम संचालित होते हैं तो सवाल उठते हैं और जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा भी करते हैं। क्या जिम्मेदार यह बताने की स्थिति में हैं कि शराब ठेकेदारों को ज्यादा कीमत वसूलने की हिम्मत कौन दे रहा है? कौन है जो इनको देर रात दुकान खोलने का साहस दे रहा है? कौन है जो इनके डर व शंका को खत्म कर रहा है? कौन है जो इनके खिलाफ आने वाली शिकायतों पर गौर नहीं करने दे रहा? सवालों की यह फेहरिस्त बताती है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। कोई कमजोर कड़ी है वरना अवैध कारोबार का संचालन इतनी आसानी से कैसे संभव है। बहरहाल, बड़ा सवाल यह भी है कि यह गठजोड़ तोड़ेगा कौन? इसलिए जिम्मेदारों की यह जुगलबंदी तोडऩे में जनता की जागरुकता ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 9 मार्च 17 के अंक में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment