टिप्पणी
सुबह सुहानी है ना यहां की शाम सिंदूरी है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के मनोरम एवं आकर्षक प्राकृतिक नजारे को देखे हुए तो मुद्दत हो गई है। आसमान का रंग तक बदल गया है। पेड़ों से हरितिमा गायब हो चली है। सब जगह कालिमा का ही साम्राज्य दिखाई देता है। न शुद्ध हवा बची है ना शुद्ध पानी। जमीन अंदर से खोखली हो गई है। जल, जंगल एवं जमीन लगातार कम हो रहे हैं। हर तरफ राखड़ के ढेर लगे हैं। प्रदूषण की मार से तो शहर कोई कोना अछूता नहीं बचा है। जी हां, ऊर्जानगरी के नाम से विख्यात कोरबा जिले के साथ यह दर्दनाक सच जुड़ा हुआ है। वैसे भी कोरबा का नाम देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में पांचवें स्थान पर है। प्रतिदिन 55 हजार टन कोयले की राख अकेले कोरबा से निकल रही है। यही रफ्तार रही तो आने वाले समय में प्रदूषण के मामले में कोरबा पहले पायदान पर आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रदूषण से त्रस्त कोरबा के लोगों की चिंता न राज्य को है ना केन्द्र को। यहां की औद्योगिक इकाइयों को भी इससे कोई सरोकार नहीं है। सब यहीं से कमा रहे हैं लेकिन देने के नाम पर सभी के माथे पर बल पड़ते हैं। प्रदूषण को कम करने के लिए बने एक्शन प्लान का उदाहरण सबके सामने है। एक्शन प्लान को लागू करने के लिए जो राशि चाहिए, उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। गेंद एक दूसरे के पाले में डालकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा जा रहा है।
कोयला निकालने तथा बिजली पैदा करने की इस अंधी दौड़ में विकास के मुद्दे तो सिरे से ही गौण हो गए हैं। विडम्बना देखिए छत्तीसगढ़ के अलावा देश के सात राज्यों में बिजली निर्यात करने वाले कोरबा जिले के ही चालीस गांवों के लोग आज भी चिमनी एवं लालटेन के भरोसे हैं। पावर हब के नाम से विख्यात छत्तीसगढ़ एवं कोरबा जिले के लिए इससे शर्मनाक बात भला और क्या होगी। कोरबा में सरकारी दफ्तरों के लिए जमीन भले ही ना मिले लेकिन पावर प्लांट स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं है। आलम देखिए कि जिले का किसान पानी के लिए तरस रहा है जबकि पड़ोसी जिले रायगढ़ एवं जांजगीर चाम्पा में कोरबा के पानी से खेती लहलहा रही है। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता लेकिन यहां की खेती को भी सुनियोजित तरीके से उजाड़ा जा रहा है, ताकि औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए जमीन आसानी से सुलभ हो जाए।
कोरबा में स्थापित सरकारी एवं निजी उपक्रमों पर नजर डालें तो उनकी नियत में खोट साफ नजर आता है। यह एक तरह से यहां के लोगों के साथ सरासर नाइंसाफी ही तो है। एसईसीएल यहां से खूब कमा रहा है लेकिन बदले में क्या दिया? अपोलो अस्पताल बिलासपुर में तो मेडिकल कॉलेज मनेन्द्रगढ़ चला गया। यहां के लोग बस सपने ही देखते रह गए। यही हाल बालको के हैं। यहां के लोगों के स्वास्थ्य को दरकिनार एवं नजरदअंदाज करते हुए बालको की ओर से रायपुर में तीन सौ करोड़ रुपए का केन्सर अस्पताल खोला जा रहा है। एनटीपीसी की हालत भी कुछ ऐसी ही है। भले ही उसने आईटीआई एवं इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना में सहयोग किया हो लेकिन एनटीपीसी के सहयोग से ही ट्रिपल आईटी की स्थापना राजनांदगांव में की जा रही है। कोरबा की बहुत सी प्रतिभाएं उच्च अध्ययन के लिए पलायन करने का मजबूर है लेकिन इस बात पर गौर नहीं किया गया। छत्तीसगढ़ पावर जनरेशन कंपनी के अकेले कोरबा में चार प्लांट हैं लेकिन कंपनी अपना मुख्यालय तक यहां नहीं खोल पाई। कंपनी का मुख्यालय कोरबा में ही प्रस्तावित था, इसके लिए आंदोलन भी हुए लेकिन वह चुपचाप रायपुर में स्थापित कर दिया गया। कमोबेश यही हाल रेलवे का है। कोयले के लदान के लिए कोरबा से प्रतिदिन 34 से 38 के बीच मालगाडिय़ों का संचालन होता है लेकिन सवारी गाडिय़ों की संख्या इनके मुकाबले बेहद कम है। रेलवे स्टेशन को आदर्श स्टेशन बनाने का काम भी बेहद धीमा है। शहर को दो भागों में बांटने वाली लाइन पर बने फाटकों पर वाहन चालक घंटों परेशान होते हैं लेकिन रेलवे उनके लिए ओवरब्रिज तक नहीं बना पाया है। किसी प्लांट में कोयले के लदान का मामला होता तो रेलवे लाइन बिछाने में एक पल की भी देरी नहीं करता।
शहर के वर्तमान हालात के लिए औद्योगिक इकाइयों के साथ-साथ नगर निगम भी कम जिम्मेदार नहीं है। वह औद्योगिक इकाइयों से टैक्स तो वसूल रहा है लेकिन शहरवासियों के हित पर खर्च करने का अनुपात बेहद कम है। शहर की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि यह करीब 30 किलोमीटर में फैला है लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर कोई सुविधा नहीं है। ऑटोचालक मनमर्जी का किराया वसूलते हैं। पेयजल समस्या का कोई स्थायी हल नहीं है। डे्रनेज एवं सीवरेज सिस्टम की तो कल्पना ही नहीं की गई है। आधुनिक सब्जी मंडी का मामला अधरझूल में है। एल्यूमिनियम पार्क, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी व सरकारी दफ्तरों के लिए जमीन उपलब्ध कराने तक के मामले लम्बित चल रहे हैं। इतना ही नहीं प्रदूषण की मार से बीमार हो रहे कोरबा के लोगों के लिए सभी सुविधाओं से परिपूर्ण अस्पताल तक भी नहीं है। विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी भी लगातार बनी हुई है। जरूरतों को देखते हुए मेडिकल एवं माइनिंग कॉलेज की मांग यहां से लगातार उठती रही है। इतना ही नहीं बेरोजगारों की लम्बी चौड़ी फौज के लिए रोजगार के साधन खोजने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं।
बहरहाल, उत्पादन के नाम पर लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। राज्य, केन्द्र एवं औद्योगिक इकाइयों के लिए स्वास्थ्य का मामला पहली प्राथमिकता शामिल होना चाहिए। यहां के जनप्रतिनिधियों को भी इस मामले में पहल करनी चाहिए। वैसे देखा गया है कि जनप्रतिनिधि चुनाव के दौरान ही जनता के साथ होते हैं। वादे करते हैं आश्वासनों की रेवडिय़ां बांटते हैं लेकिन बाद में वे भी औद्योगिक इकाइयों के सुर में सुर मिलाते नजर आते हैं। लम्बे समय तक कोरबा की यह उपेक्षा उचित नहीं है। ऐसा न हो कि लोगों की शराफत की इंतहा हो जाए, उससे पहले सभी को कोरबा की हालात पर तरस खाना चाहिए। देरी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है।
सुबह सुहानी है ना यहां की शाम सिंदूरी है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के मनोरम एवं आकर्षक प्राकृतिक नजारे को देखे हुए तो मुद्दत हो गई है। आसमान का रंग तक बदल गया है। पेड़ों से हरितिमा गायब हो चली है। सब जगह कालिमा का ही साम्राज्य दिखाई देता है। न शुद्ध हवा बची है ना शुद्ध पानी। जमीन अंदर से खोखली हो गई है। जल, जंगल एवं जमीन लगातार कम हो रहे हैं। हर तरफ राखड़ के ढेर लगे हैं। प्रदूषण की मार से तो शहर कोई कोना अछूता नहीं बचा है। जी हां, ऊर्जानगरी के नाम से विख्यात कोरबा जिले के साथ यह दर्दनाक सच जुड़ा हुआ है। वैसे भी कोरबा का नाम देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में पांचवें स्थान पर है। प्रतिदिन 55 हजार टन कोयले की राख अकेले कोरबा से निकल रही है। यही रफ्तार रही तो आने वाले समय में प्रदूषण के मामले में कोरबा पहले पायदान पर आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रदूषण से त्रस्त कोरबा के लोगों की चिंता न राज्य को है ना केन्द्र को। यहां की औद्योगिक इकाइयों को भी इससे कोई सरोकार नहीं है। सब यहीं से कमा रहे हैं लेकिन देने के नाम पर सभी के माथे पर बल पड़ते हैं। प्रदूषण को कम करने के लिए बने एक्शन प्लान का उदाहरण सबके सामने है। एक्शन प्लान को लागू करने के लिए जो राशि चाहिए, उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। गेंद एक दूसरे के पाले में डालकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा जा रहा है।
कोयला निकालने तथा बिजली पैदा करने की इस अंधी दौड़ में विकास के मुद्दे तो सिरे से ही गौण हो गए हैं। विडम्बना देखिए छत्तीसगढ़ के अलावा देश के सात राज्यों में बिजली निर्यात करने वाले कोरबा जिले के ही चालीस गांवों के लोग आज भी चिमनी एवं लालटेन के भरोसे हैं। पावर हब के नाम से विख्यात छत्तीसगढ़ एवं कोरबा जिले के लिए इससे शर्मनाक बात भला और क्या होगी। कोरबा में सरकारी दफ्तरों के लिए जमीन भले ही ना मिले लेकिन पावर प्लांट स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं है। आलम देखिए कि जिले का किसान पानी के लिए तरस रहा है जबकि पड़ोसी जिले रायगढ़ एवं जांजगीर चाम्पा में कोरबा के पानी से खेती लहलहा रही है। सरकार चाहे तो क्या नहीं हो सकता लेकिन यहां की खेती को भी सुनियोजित तरीके से उजाड़ा जा रहा है, ताकि औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए जमीन आसानी से सुलभ हो जाए।
कोरबा में स्थापित सरकारी एवं निजी उपक्रमों पर नजर डालें तो उनकी नियत में खोट साफ नजर आता है। यह एक तरह से यहां के लोगों के साथ सरासर नाइंसाफी ही तो है। एसईसीएल यहां से खूब कमा रहा है लेकिन बदले में क्या दिया? अपोलो अस्पताल बिलासपुर में तो मेडिकल कॉलेज मनेन्द्रगढ़ चला गया। यहां के लोग बस सपने ही देखते रह गए। यही हाल बालको के हैं। यहां के लोगों के स्वास्थ्य को दरकिनार एवं नजरदअंदाज करते हुए बालको की ओर से रायपुर में तीन सौ करोड़ रुपए का केन्सर अस्पताल खोला जा रहा है। एनटीपीसी की हालत भी कुछ ऐसी ही है। भले ही उसने आईटीआई एवं इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना में सहयोग किया हो लेकिन एनटीपीसी के सहयोग से ही ट्रिपल आईटी की स्थापना राजनांदगांव में की जा रही है। कोरबा की बहुत सी प्रतिभाएं उच्च अध्ययन के लिए पलायन करने का मजबूर है लेकिन इस बात पर गौर नहीं किया गया। छत्तीसगढ़ पावर जनरेशन कंपनी के अकेले कोरबा में चार प्लांट हैं लेकिन कंपनी अपना मुख्यालय तक यहां नहीं खोल पाई। कंपनी का मुख्यालय कोरबा में ही प्रस्तावित था, इसके लिए आंदोलन भी हुए लेकिन वह चुपचाप रायपुर में स्थापित कर दिया गया। कमोबेश यही हाल रेलवे का है। कोयले के लदान के लिए कोरबा से प्रतिदिन 34 से 38 के बीच मालगाडिय़ों का संचालन होता है लेकिन सवारी गाडिय़ों की संख्या इनके मुकाबले बेहद कम है। रेलवे स्टेशन को आदर्श स्टेशन बनाने का काम भी बेहद धीमा है। शहर को दो भागों में बांटने वाली लाइन पर बने फाटकों पर वाहन चालक घंटों परेशान होते हैं लेकिन रेलवे उनके लिए ओवरब्रिज तक नहीं बना पाया है। किसी प्लांट में कोयले के लदान का मामला होता तो रेलवे लाइन बिछाने में एक पल की भी देरी नहीं करता।
शहर के वर्तमान हालात के लिए औद्योगिक इकाइयों के साथ-साथ नगर निगम भी कम जिम्मेदार नहीं है। वह औद्योगिक इकाइयों से टैक्स तो वसूल रहा है लेकिन शहरवासियों के हित पर खर्च करने का अनुपात बेहद कम है। शहर की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि यह करीब 30 किलोमीटर में फैला है लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर कोई सुविधा नहीं है। ऑटोचालक मनमर्जी का किराया वसूलते हैं। पेयजल समस्या का कोई स्थायी हल नहीं है। डे्रनेज एवं सीवरेज सिस्टम की तो कल्पना ही नहीं की गई है। आधुनिक सब्जी मंडी का मामला अधरझूल में है। एल्यूमिनियम पार्क, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी व सरकारी दफ्तरों के लिए जमीन उपलब्ध कराने तक के मामले लम्बित चल रहे हैं। इतना ही नहीं प्रदूषण की मार से बीमार हो रहे कोरबा के लोगों के लिए सभी सुविधाओं से परिपूर्ण अस्पताल तक भी नहीं है। विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी भी लगातार बनी हुई है। जरूरतों को देखते हुए मेडिकल एवं माइनिंग कॉलेज की मांग यहां से लगातार उठती रही है। इतना ही नहीं बेरोजगारों की लम्बी चौड़ी फौज के लिए रोजगार के साधन खोजने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं।
बहरहाल, उत्पादन के नाम पर लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। राज्य, केन्द्र एवं औद्योगिक इकाइयों के लिए स्वास्थ्य का मामला पहली प्राथमिकता शामिल होना चाहिए। यहां के जनप्रतिनिधियों को भी इस मामले में पहल करनी चाहिए। वैसे देखा गया है कि जनप्रतिनिधि चुनाव के दौरान ही जनता के साथ होते हैं। वादे करते हैं आश्वासनों की रेवडिय़ां बांटते हैं लेकिन बाद में वे भी औद्योगिक इकाइयों के सुर में सुर मिलाते नजर आते हैं। लम्बे समय तक कोरबा की यह उपेक्षा उचित नहीं है। ऐसा न हो कि लोगों की शराफत की इंतहा हो जाए, उससे पहले सभी को कोरबा की हालात पर तरस खाना चाहिए। देरी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है।
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