यह मन भी बड़ा विचित्र है साहब। बिलकुल किसी अबूझ पहेली की तरह। यह कभी चंचल बन जाता है तो कभी चितचोर। कभी लालची बन जाता है तो कभी कुछ ओर। यह पल-पल में रंग बदलता है। मन ही है जो सपने दिखाता है। बड़े बड़े सपने। न पूरे होने वाले सपने। हकीकत से कोसों दूर सुनहरी सपने। तभी तो आदमी मन के अनुसार न चलने की सीख को दरकिनार करता है। लोभ संवरण नहीं कर पाता। मनमाफिक काम करता है तो कभी अपनी मनमर्जी चलाता है। 'सुनो सबकी करो मन की', की तर्ज पर। बार-बार यह विरोधाभास ही मन को मथ रहा है कि क्या किया जाए। मन की सुनी जाए या फिर मन के मते न चलने की सीख को आत्मसात किया जाए। बड़ा कन्फ्यूजन है यह। यह मन रूपी संसार बड़ा अनूठा है। यह इतना गहरा सागर है कि गोते लगाते रहो। इसकी कोई थाह नहीं है। समझने वाला उल्टे उलझता ही चला जाता है। इस मन की कहानी बड़ी लंबी है। बिलकुल द्रोपदी के चीर की तरह। यह मन आजकल सियासी भी हो चला है।
No comments:
Post a Comment