टिप्पणी..
यह पहल को पंख लगाने का दिन है। यह नई परम्परा की बुनियाद रखने का अवसर है। यह बीकानेर में विकास की नई इबारत लिखने का मुफीद मौका भी है। बस जरूरत है तो अवसर को भुनाने तथा थोड़ी सी इच्छाशक्ति दिखाने की। अगर यह सब हो गया तो यकीनन बीकानेर नगर निगम के लिए ऐतिहासिक दिन होगा। ऐसा करना अब बीकानेर के लिए बेहद जरूरी भी हो गया है। वैसे ऐसा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। क्योंकि हाल ही में कोटा नगर निगम ने इस प्रकार की पहल करके इसे साबित कर दिखाया है। कोटा निगम में पहली बार तीन दिन तक विशेष सत्र चला। इस अवधि में 14 घंटे निर्बाध चर्चा हुई तथा 120 से ज्यादा सवाल पूछे गए। इतना ही नहीं कई सवालों के जवाब आए तो कई समस्याएं तो मौके पर ही निबट गई।
इस तरह की बैठक बीकानेर में इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि यहां इंतजार की इंतहा हो गई है। धैर्य जवाब देने लगा है। शहर की हालत दिनोदिन बद से बदतर होती जा रही है। पिछली बैठकों का हश्र भी सभी देख चुके हैं। नए निगम के गठन के बाद तीन बैठकें हो चुकी हैं लेकिन हर बैठक में बात सफाई, आवारा पशुओं, बिजली एवं सीवरेज से आगे नहीं बढ़ पा रही है। हालत यह है कि न तो इन मुद्दों पर कोई कारगर फैसला हो पा रहा है और ना ही इनकी वजह से नए मसलों की बारी आ रही है। विपक्ष को तो हमेशा शिकायत रही है कि उनकी आवाज दबा दी जाती है। सदन की कार्यवाही में उनके सवाल तक शामिल नहीं होते हैं। हो-हल्ले एवं शोरगुल के बीच बैठक समाप्त कर दी जाती है। हो सकता है इस प्रकार के हो-हल्ले में किसी को फायदा दिखता हो लेकिन यह शहर हित में तो कतई नहीं हो सकता है।
हकीकत यह है कि पार्षदों को जनता अब टोकने लगी है, चाहे वो किसी भी दल के हों। कई जगह तो जनप्रतिनिधियों को जनता के बीच जाने में ही शर्मिंदगी महसूस होने लगी है। जब इस प्रकार के हालात पैदा हो जाए तो जनप्रतिनिधियों के लिए इससे बड़ी लाचारगी और बेचारगी क्या होगी? खैर, शहर हित में विकास कार्यों में सियासत तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए। पक्ष-विपक्ष की परिधि से ऊपर उठकर केवल और केवल शहर को आगे बढ़ाने की बात हो। विपक्षी दल के सदस्य अगर शहर हित में कोई बात रखते हैं तो विरोध या हो-हल्ला करने की बजाय उनकी बात को गंभीरता से सुना जाए। उनको भी अपनी बात रखने का पूरा मौका मिले। ऐसा नहीं हो कि एक जना सवाल पूछे और और दस जने उसको टोकने वाले खड़े हो जाए। सभी को ठीक से सुन लिया जाए तो यह भी एक तरह से शहर हित में ही है। समाधान योग्य सवालों को सदन की कार्यवाही में शामिल करना भी उतना ही जरूरी है।
अगर निगम की साधारण सभा की बैठकें पुराने एवं परम्परागत ढर्रे पर ही होती रही तो शहर के विकास की कल्पना करना तो दूर हम उसका खाका तक भी तैयार नहीं कर पाएंगे। और जब बात हो-हल्ले या तीन-चार मुद्दों से आगे ही नहीं बढ़े तो फिर बैठक बुलाने का औचित्य ही क्या है? जाहिर सी बात है जब मुद्दे ही नहीं आएंगे और किसी तरह की कोई चर्चा ही नहीं होगी तो फिर विकास की रूपरेखा तैयार करने की बात ही बेमानी है। बैठक की सार्थकता तभी है जब उनमें सारगर्भित चर्चा हो। शहर के विधायकों एवं सांसद से भी अपेक्षा की जाती है कि वे निगम बैठक में उपस्थित होकर शहर हित में अपना योगदान देवें।
बहरहाल, पक्ष-विपक्ष के पार्षदों ने शहर हित में दो-तीन दिन सदन चलाने और दो-दो सवाल पूछने पर सैद्धांतिक सहमति दी है। अब गेंद महापौर एवं निगम सीईओ के पाले में हैं। उम्मीद है कि वे शहर व जनहित को देखते हुए उचित फैसला लेने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेंगे। शहर की जनता लम्बे समय से उनको उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का यह सुनहरा मौका है। अगर महापौर व सीईओ शहर व जनहित को ध्यान में रखते हुए तथा पार्षदों की उम्मीदों के हिसाब से बैठक चला पाए तो यकीनन वो नई परम्परा का सूत्रपात करेंगे। उनको ऐसा करना भी चाहिए। इसका पहला असर तो निगम में लगने वाली फरियादियों की भीड़ और प्रदर्शनों के कम होने का ही दिखाई दे जाएगा।
महापौर व सीईओ ने ऐसा कर दिया तो थोड़े में ही संतोष करने वाले बीकानेरी लोग यकीनन उनके इस योगदान को ताउम्र याद रखेंगे। अब यह उन पर निर्भर करता है कि वो लकीर के फकीर बनना ही पसंद करेंगे या लीक से हटकर नई पहल की शुरुआत कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाएंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 जुलाई 15 के अंक में प्रकाशित .
यह पहल को पंख लगाने का दिन है। यह नई परम्परा की बुनियाद रखने का अवसर है। यह बीकानेर में विकास की नई इबारत लिखने का मुफीद मौका भी है। बस जरूरत है तो अवसर को भुनाने तथा थोड़ी सी इच्छाशक्ति दिखाने की। अगर यह सब हो गया तो यकीनन बीकानेर नगर निगम के लिए ऐतिहासिक दिन होगा। ऐसा करना अब बीकानेर के लिए बेहद जरूरी भी हो गया है। वैसे ऐसा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। क्योंकि हाल ही में कोटा नगर निगम ने इस प्रकार की पहल करके इसे साबित कर दिखाया है। कोटा निगम में पहली बार तीन दिन तक विशेष सत्र चला। इस अवधि में 14 घंटे निर्बाध चर्चा हुई तथा 120 से ज्यादा सवाल पूछे गए। इतना ही नहीं कई सवालों के जवाब आए तो कई समस्याएं तो मौके पर ही निबट गई।
इस तरह की बैठक बीकानेर में इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि यहां इंतजार की इंतहा हो गई है। धैर्य जवाब देने लगा है। शहर की हालत दिनोदिन बद से बदतर होती जा रही है। पिछली बैठकों का हश्र भी सभी देख चुके हैं। नए निगम के गठन के बाद तीन बैठकें हो चुकी हैं लेकिन हर बैठक में बात सफाई, आवारा पशुओं, बिजली एवं सीवरेज से आगे नहीं बढ़ पा रही है। हालत यह है कि न तो इन मुद्दों पर कोई कारगर फैसला हो पा रहा है और ना ही इनकी वजह से नए मसलों की बारी आ रही है। विपक्ष को तो हमेशा शिकायत रही है कि उनकी आवाज दबा दी जाती है। सदन की कार्यवाही में उनके सवाल तक शामिल नहीं होते हैं। हो-हल्ले एवं शोरगुल के बीच बैठक समाप्त कर दी जाती है। हो सकता है इस प्रकार के हो-हल्ले में किसी को फायदा दिखता हो लेकिन यह शहर हित में तो कतई नहीं हो सकता है।
हकीकत यह है कि पार्षदों को जनता अब टोकने लगी है, चाहे वो किसी भी दल के हों। कई जगह तो जनप्रतिनिधियों को जनता के बीच जाने में ही शर्मिंदगी महसूस होने लगी है। जब इस प्रकार के हालात पैदा हो जाए तो जनप्रतिनिधियों के लिए इससे बड़ी लाचारगी और बेचारगी क्या होगी? खैर, शहर हित में विकास कार्यों में सियासत तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए। पक्ष-विपक्ष की परिधि से ऊपर उठकर केवल और केवल शहर को आगे बढ़ाने की बात हो। विपक्षी दल के सदस्य अगर शहर हित में कोई बात रखते हैं तो विरोध या हो-हल्ला करने की बजाय उनकी बात को गंभीरता से सुना जाए। उनको भी अपनी बात रखने का पूरा मौका मिले। ऐसा नहीं हो कि एक जना सवाल पूछे और और दस जने उसको टोकने वाले खड़े हो जाए। सभी को ठीक से सुन लिया जाए तो यह भी एक तरह से शहर हित में ही है। समाधान योग्य सवालों को सदन की कार्यवाही में शामिल करना भी उतना ही जरूरी है।
अगर निगम की साधारण सभा की बैठकें पुराने एवं परम्परागत ढर्रे पर ही होती रही तो शहर के विकास की कल्पना करना तो दूर हम उसका खाका तक भी तैयार नहीं कर पाएंगे। और जब बात हो-हल्ले या तीन-चार मुद्दों से आगे ही नहीं बढ़े तो फिर बैठक बुलाने का औचित्य ही क्या है? जाहिर सी बात है जब मुद्दे ही नहीं आएंगे और किसी तरह की कोई चर्चा ही नहीं होगी तो फिर विकास की रूपरेखा तैयार करने की बात ही बेमानी है। बैठक की सार्थकता तभी है जब उनमें सारगर्भित चर्चा हो। शहर के विधायकों एवं सांसद से भी अपेक्षा की जाती है कि वे निगम बैठक में उपस्थित होकर शहर हित में अपना योगदान देवें।
बहरहाल, पक्ष-विपक्ष के पार्षदों ने शहर हित में दो-तीन दिन सदन चलाने और दो-दो सवाल पूछने पर सैद्धांतिक सहमति दी है। अब गेंद महापौर एवं निगम सीईओ के पाले में हैं। उम्मीद है कि वे शहर व जनहित को देखते हुए उचित फैसला लेने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेंगे। शहर की जनता लम्बे समय से उनको उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का यह सुनहरा मौका है। अगर महापौर व सीईओ शहर व जनहित को ध्यान में रखते हुए तथा पार्षदों की उम्मीदों के हिसाब से बैठक चला पाए तो यकीनन वो नई परम्परा का सूत्रपात करेंगे। उनको ऐसा करना भी चाहिए। इसका पहला असर तो निगम में लगने वाली फरियादियों की भीड़ और प्रदर्शनों के कम होने का ही दिखाई दे जाएगा।
महापौर व सीईओ ने ऐसा कर दिया तो थोड़े में ही संतोष करने वाले बीकानेरी लोग यकीनन उनके इस योगदान को ताउम्र याद रखेंगे। अब यह उन पर निर्भर करता है कि वो लकीर के फकीर बनना ही पसंद करेंगे या लीक से हटकर नई पहल की शुरुआत कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाएंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 01 जुलाई 15 के अंक में प्रकाशित .
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