टिप्पणी
इन दिनों बीकानेर के जागरूक एवं सेवाभावियों के जेहन में कुछ सहज एवं स्वाभाविक सवाल जरूर उठ रहे होंगे। मसलन, देश के लिए हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग करने वाले क्या किसी क्षेत्र विशेष के होते हैं? क्या उनको किसी धर्म या सम्प्रदाय से जोड़ा जा सकता है? या उनके सम्मान में किसी तरह का भेदभाव किया जा सकता है? यकीनन इन तीनों सवालों का एक ही जवाब, नहीं ही होगा लेकिन बीकानेर के संदर्भ में देखें तो इन सवालों के मायने बदल जाते हैं। स्वाधीनता दिवस पर जब प्रशासनिक अधिकारियों के दफ्तर जगमगा रहे थे तो दो शहीद स्मारक अंधेरे में डूबे थे। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है कि शहर के प्रमुख मार्गों पर स्थित इन शहीद स्मारकों पर किसी अधिकारी या अन्य की नजर नहीं पड़ी होगी। हद तो तब हो गई जब अधिकारी जिम्मेदारी एक दूसरे पर डाल कर खुद को पाक दामन साबित करने लगे। मामला बढ़ा तो न केवल कुछ उत्साही युवा आगे आए बल्कि पूर्व सैनिकों ने पहल करते हुए प्रशासन को आईना दिखाने का काम किया। आखिरकार प्रशासनिक अमला हरकत में जरूर आया लेकिन अभी भी एक शहीद स्मारक पर अंधेरा पसरा हुआ है। संभाग एवं जिले भर की प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करने वाले अधिकारी जब सप्ताह भर बीतने के बाद व्यवस्था में कोई सुधार नहीं करवा पाते हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं। प्रशासनिक उदासीनता का दंश झेल रहा यह मामला अधिकारियों की कार्यप्रणाली को कठघरे में खड़ा तो करता ही है, वतन पर प्राण न्यौछावर करने वालों के प्रति इस तरह के रूखे एवं सौतेले व्यवहार को उजागर भी करता है। शहीदों को नजरअंदाज करने वाले जिले के जिम्मेदार अधिकारी क्या उस मां का दर्द समझ पाएंगे, जिसने अपने लख्तेजिगर को सीमा पर देशसेवा के लिए हंसते-हसंते भेज दिया। क्या वे उस पिता की पीड़ा भांप पाएंगे, जिसने बुढ़ापे की लाठी से बड़ा काम देश सेवा को समझा। क्या वे उस वीरांगना की विरह वेदना जान पाएंगे, जिसने देश के खुशहाल भविष्य के लिए अपने वर्तमान से समझौता कर लिया। क्या वे उस बहन की मनोस्थिति समझेंगे, जिसने भाई से खुद की सुरक्षा के संकल्प लेने की बजाय देश की सुरक्षा को जरूरी समझा। क्या वे उन बच्चों की हसरतों को समझ पाएंगे, जिनके सिर से पिता का साया उठ गया। इतना ख्याल अगर इन अधिकारियों को होता तो शायद वे इस तरह की लापरवाही नहीं करते और ना ही जिम्मेदारी एक दूसरे पर मंढऩे का उपक्रम करते। देश सेवा को सर्वोपरि समझने वालों के प्रति ऐसा रवैया न केवल अफसोसजनक बल्कि शर्मनाक भी है।
बहरहाल, ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए नए सिरे से सोचने की जरूरत है। सरहदी जिला होने के नाते वैसे भी सेना व शहीदों के प्रति सम्मान तथा विश्वास बेहद जरूरी है। यह न केवल अधिकारियों बल्कि आम लोगों को भी समझना होगा कि अपने घर-परिवार से दूर सीमा पर तैनात जवान दिन रात चौकसी इसीलिए करते हैं ताकि हम चैन से सो सकें। ऐसे में उनके मान-सम्मान को बनाए रखना हमारा फर्ज है। उम्मीद की जानी चाहिए जो अव्यवस्थाएं शहीद स्मारकों के इर्द-गिर्द हैं वह तत्काल दूर होंगी तथा इस प्रकार की अक्षम्य लापरवाही भविष्य में फिर कभी नहीं होगी। शहीदों के योगदान को याद कर उससे प्रेरणा लेना ही तो उनको सच्ची श्रद्धांजलि है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 22 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित
इन दिनों बीकानेर के जागरूक एवं सेवाभावियों के जेहन में कुछ सहज एवं स्वाभाविक सवाल जरूर उठ रहे होंगे। मसलन, देश के लिए हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग करने वाले क्या किसी क्षेत्र विशेष के होते हैं? क्या उनको किसी धर्म या सम्प्रदाय से जोड़ा जा सकता है? या उनके सम्मान में किसी तरह का भेदभाव किया जा सकता है? यकीनन इन तीनों सवालों का एक ही जवाब, नहीं ही होगा लेकिन बीकानेर के संदर्भ में देखें तो इन सवालों के मायने बदल जाते हैं। स्वाधीनता दिवस पर जब प्रशासनिक अधिकारियों के दफ्तर जगमगा रहे थे तो दो शहीद स्मारक अंधेरे में डूबे थे। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है कि शहर के प्रमुख मार्गों पर स्थित इन शहीद स्मारकों पर किसी अधिकारी या अन्य की नजर नहीं पड़ी होगी। हद तो तब हो गई जब अधिकारी जिम्मेदारी एक दूसरे पर डाल कर खुद को पाक दामन साबित करने लगे। मामला बढ़ा तो न केवल कुछ उत्साही युवा आगे आए बल्कि पूर्व सैनिकों ने पहल करते हुए प्रशासन को आईना दिखाने का काम किया। आखिरकार प्रशासनिक अमला हरकत में जरूर आया लेकिन अभी भी एक शहीद स्मारक पर अंधेरा पसरा हुआ है। संभाग एवं जिले भर की प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करने वाले अधिकारी जब सप्ताह भर बीतने के बाद व्यवस्था में कोई सुधार नहीं करवा पाते हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं। प्रशासनिक उदासीनता का दंश झेल रहा यह मामला अधिकारियों की कार्यप्रणाली को कठघरे में खड़ा तो करता ही है, वतन पर प्राण न्यौछावर करने वालों के प्रति इस तरह के रूखे एवं सौतेले व्यवहार को उजागर भी करता है। शहीदों को नजरअंदाज करने वाले जिले के जिम्मेदार अधिकारी क्या उस मां का दर्द समझ पाएंगे, जिसने अपने लख्तेजिगर को सीमा पर देशसेवा के लिए हंसते-हसंते भेज दिया। क्या वे उस पिता की पीड़ा भांप पाएंगे, जिसने बुढ़ापे की लाठी से बड़ा काम देश सेवा को समझा। क्या वे उस वीरांगना की विरह वेदना जान पाएंगे, जिसने देश के खुशहाल भविष्य के लिए अपने वर्तमान से समझौता कर लिया। क्या वे उस बहन की मनोस्थिति समझेंगे, जिसने भाई से खुद की सुरक्षा के संकल्प लेने की बजाय देश की सुरक्षा को जरूरी समझा। क्या वे उन बच्चों की हसरतों को समझ पाएंगे, जिनके सिर से पिता का साया उठ गया। इतना ख्याल अगर इन अधिकारियों को होता तो शायद वे इस तरह की लापरवाही नहीं करते और ना ही जिम्मेदारी एक दूसरे पर मंढऩे का उपक्रम करते। देश सेवा को सर्वोपरि समझने वालों के प्रति ऐसा रवैया न केवल अफसोसजनक बल्कि शर्मनाक भी है।
बहरहाल, ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए नए सिरे से सोचने की जरूरत है। सरहदी जिला होने के नाते वैसे भी सेना व शहीदों के प्रति सम्मान तथा विश्वास बेहद जरूरी है। यह न केवल अधिकारियों बल्कि आम लोगों को भी समझना होगा कि अपने घर-परिवार से दूर सीमा पर तैनात जवान दिन रात चौकसी इसीलिए करते हैं ताकि हम चैन से सो सकें। ऐसे में उनके मान-सम्मान को बनाए रखना हमारा फर्ज है। उम्मीद की जानी चाहिए जो अव्यवस्थाएं शहीद स्मारकों के इर्द-गिर्द हैं वह तत्काल दूर होंगी तथा इस प्रकार की अक्षम्य लापरवाही भविष्य में फिर कभी नहीं होगी। शहीदों के योगदान को याद कर उससे प्रेरणा लेना ही तो उनको सच्ची श्रद्धांजलि है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 22 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित
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