मेरे संस्मरण-11
दिन में हम लोग इच्छोगिल नहर के पास तक ही कैम्प करके रहते लेकिन रात में बैकफुट पर होना पड़ता। भारतीय सेना दिन में हमला करती जबकि पाक सेना रात को। रात होते ही हम अंधे के जैसे हो जाते थे। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ऐसे में जानबूझकर वहीं डटे रहना वैसे भी उचित नहीं था। रात को युद्ध करने की जो तकनीक पाक सेना के पास थी, भारतीय सेना के पास नहीं थी। पाक सैनिकों के पास विशेष तरह के कैमरे एवं दूरबीन थे जो रात को भी स्पष्ट देख सकते थे, इसी कारण वे रात को हम पर बढ़त बनाने में सफल हो जाते थे, लेकिन रात की कमी की भरपाई हम लोग दिन में दुगुने उत्साह एवं जोश के साथ कर देते थे। तीन-चार दिन इस तरह की क्रम चलता रहा। इस कारण किसी भी पक्ष को कुछ विशेष सफलता हासिल नहीं हो रही थी। हालांकि सैनिक दोनों तरफ से हताहत हो रहे थे। इसी दौरान एक घटना हुई। इन्फेंट्री की गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने अफसरों का आदेश मानने से इनकार कर दिया। अफसर इन जवानों को बार-बार आगे भेजने का आदेश दे रहे थे कि जबकि जवानों का कहना था कि आगे माइंस (मैन फील्ड) बिछी हुई है। पहले रास्ता तो साफ करवाओ। जानबूझकर जान गंवाने से कोई मतलब नहीं है। जब पता है कि यहां खतरा है, तो फिर आगे कैसे जाएं। लेकिन जवानों की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया। जवानों ने यह भी कहा कि वे आदेश मानने को तैयार हैं, बशर्ते अफसर उनके साथ चले ताकि हकीकत उनके भी समझ में आ जाए। लेकिन उनके साथ में जाने को भी कोई तैयार नहीं था। ऐसे में उनका गुस्सा और अधिक बढ़ गया। नतीजतन, जवानों ने बंदूकें कंधे पर रखी और वापस मुड़ गए।गोरखा रेजीमेंट के जवानों के इस निर्णय से हड़कम्प मच गया। यकायक आए इस संकट से कैसे निबटा जाए, इस दिशा में चर्चा होने लगी। बड़े-बड़े सीनियर अधिकारी बैठे। चर्चा हमने भी सुनी कि पहले यह तय हुआ कि फर्ज से मुंह मोडऩे वाले को शूट कर दिया जाए। बाद में इस पहलू पर भी विचार किया गया कि ऐसा करने से सेना के जवानों में गलत संदेश जाएगा। सैनिक बगावत कर सकते हैं। आखिरकार सर्वमान्य रास्ता समझाइश का निकाला गया। वरिष्ठ अफसरों की मौजूदगी में जवानों को रोका गया। बड़े ही धैर्य के साथ उनकी बात को सुना गया। वरिष्ठों के समझ में आ गया था कि जवान गलत नहीं कह रहे हैं। आखिरकार पता होने के बावजूद जानबूझकर जान गंवाने से कुछ हासिल नहीं होगा। मौके की नजाकत समझते हुए वरिष्ठ अफसरों ने जवानों को मनोबल बढ़ाया। जवानों को कहा गया कि गोरखा बहुत बहादुर और वफादार होते हैं। यह कौम लड़ाका होती है। इनकी वीरता की चर्चे समूचे देश में हैं। गोरखा कभी युद्ध में पीठ दिखा ही नहीं सकते। इनकी बहादुरी को देखते हुए ही तो अंग्रेज इनको अपने साथ इंग्लैण्ड लेकर गए थे। इस प्रकार के वार्तालाप से गोरखा जवान बेहद प्रभावित हुए और फिर से मोर्च पर आ गए। उनकी माइंस की बात पर गंभीरता से विचार किया गया।
दिन में हम लोग इच्छोगिल नहर के पास तक ही कैम्प करके रहते लेकिन रात में बैकफुट पर होना पड़ता। भारतीय सेना दिन में हमला करती जबकि पाक सेना रात को। रात होते ही हम अंधे के जैसे हो जाते थे। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ऐसे में जानबूझकर वहीं डटे रहना वैसे भी उचित नहीं था। रात को युद्ध करने की जो तकनीक पाक सेना के पास थी, भारतीय सेना के पास नहीं थी। पाक सैनिकों के पास विशेष तरह के कैमरे एवं दूरबीन थे जो रात को भी स्पष्ट देख सकते थे, इसी कारण वे रात को हम पर बढ़त बनाने में सफल हो जाते थे, लेकिन रात की कमी की भरपाई हम लोग दिन में दुगुने उत्साह एवं जोश के साथ कर देते थे। तीन-चार दिन इस तरह की क्रम चलता रहा। इस कारण किसी भी पक्ष को कुछ विशेष सफलता हासिल नहीं हो रही थी। हालांकि सैनिक दोनों तरफ से हताहत हो रहे थे। इसी दौरान एक घटना हुई। इन्फेंट्री की गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने अफसरों का आदेश मानने से इनकार कर दिया। अफसर इन जवानों को बार-बार आगे भेजने का आदेश दे रहे थे कि जबकि जवानों का कहना था कि आगे माइंस (मैन फील्ड) बिछी हुई है। पहले रास्ता तो साफ करवाओ। जानबूझकर जान गंवाने से कोई मतलब नहीं है। जब पता है कि यहां खतरा है, तो फिर आगे कैसे जाएं। लेकिन जवानों की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया। जवानों ने यह भी कहा कि वे आदेश मानने को तैयार हैं, बशर्ते अफसर उनके साथ चले ताकि हकीकत उनके भी समझ में आ जाए। लेकिन उनके साथ में जाने को भी कोई तैयार नहीं था। ऐसे में उनका गुस्सा और अधिक बढ़ गया। नतीजतन, जवानों ने बंदूकें कंधे पर रखी और वापस मुड़ गए।गोरखा रेजीमेंट के जवानों के इस निर्णय से हड़कम्प मच गया। यकायक आए इस संकट से कैसे निबटा जाए, इस दिशा में चर्चा होने लगी। बड़े-बड़े सीनियर अधिकारी बैठे। चर्चा हमने भी सुनी कि पहले यह तय हुआ कि फर्ज से मुंह मोडऩे वाले को शूट कर दिया जाए। बाद में इस पहलू पर भी विचार किया गया कि ऐसा करने से सेना के जवानों में गलत संदेश जाएगा। सैनिक बगावत कर सकते हैं। आखिरकार सर्वमान्य रास्ता समझाइश का निकाला गया। वरिष्ठ अफसरों की मौजूदगी में जवानों को रोका गया। बड़े ही धैर्य के साथ उनकी बात को सुना गया। वरिष्ठों के समझ में आ गया था कि जवान गलत नहीं कह रहे हैं। आखिरकार पता होने के बावजूद जानबूझकर जान गंवाने से कुछ हासिल नहीं होगा। मौके की नजाकत समझते हुए वरिष्ठ अफसरों ने जवानों को मनोबल बढ़ाया। जवानों को कहा गया कि गोरखा बहुत बहादुर और वफादार होते हैं। यह कौम लड़ाका होती है। इनकी वीरता की चर्चे समूचे देश में हैं। गोरखा कभी युद्ध में पीठ दिखा ही नहीं सकते। इनकी बहादुरी को देखते हुए ही तो अंग्रेज इनको अपने साथ इंग्लैण्ड लेकर गए थे। इस प्रकार के वार्तालाप से गोरखा जवान बेहद प्रभावित हुए और फिर से मोर्च पर आ गए। उनकी माइंस की बात पर गंभीरता से विचार किया गया।
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