Friday, December 25, 2015

श्रेय की होड़ या...

 टिप्पणी 

कभी किसी हंगामे तो कभी किसी मरीज की मौत से सुर्खियों में रहने वाला संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल पीबीएम फिर चर्चा में है। शहर के सारे के सारे मुद्दे यकायक गौण हो गए हैं और सभी को केवल और केवल पीबीएम दिख रहा है। सोशल साइट्स पर भी पीबीएम छाया हुआ है। इस शोरशराबे में अस्पताल की बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए हलचल की रफ्तार भले ही धीमी हो, लेकिन चिकित्सकों के दिल की धड़कनें जरूर बढ़ी हुई हैं। सवाल उठते हैं कि आखिर पीबीएम के लिए परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जिम्मेदारों की ऐसी मनोदशा क्यों? यह हड़कंप क्यों? चिकित्सक भी इतने भयभीत क्यों? पीबीएम के ऐसे हालात के लिए जिम्मेदार कौन ? और इन सब सवालों के बीच बड़ा सवाल यह भी कि क्या पीबीएम खुद बीमार है? दरअसल, इन सभी सवालों के मूल में दो ही बातें या कारण प्रमुख हैं। इच्छाशक्ति का अभाव और राजनीतिक हस्तक्षेप। इच्छाशक्ति का अभाव तो बीकानेर से लेकर जयपुर तक नजर आता है। राजनीतिक हस्तक्षेप के हाल भी कमोबेश वैसे ही हैं। पीबीएम में सब कुछ सामान्य एवं संतोषजनक नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि सुधार की कोशिश कभी हुई ही नहीं। प्रयास भी हुए और व्यवस्थाओं में भी सुधार हुआ, लेकिन टिक नहीं पाया। पीबीएम प्रशासन ने भी तात्कालिक आक्रोश को शांत करने के लिए हमेशा चलताऊ व जुगाड़ वाले ही हल खोजे। कारगर एवं ठोस उपायों को हमेशा दरकिनार किया। यही कारण रहा कि पीबीएम को लेकर गाहे-बगाहे विरोध एवं आंदोलन के सुर मुखर होते रहे। अव्यवस्थाओं का विरोध इन दिनों भी हो रहा है, लेकिन तरीका कुछ नया होने से ध्यान खींच रहा है। हालांकि आंदोलन के अंजाम को लेकर फिजाओं में कई तरह की शंकाएं और चर्चाएं भी तैर रही हैं। फिर भी ध्यान खींचने का सबब राजनीतिक दलों के लिए न केवल परेशानी बल्कि चर्चा में बने रहने का मुद्दा भी बन गया है। अब येन-केन-प्रकारेण ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश शुरू हो गई है। बड़े ही हास्यास्पद हालत बन गए हैं। कोई पीबीएम को बीमार बता रहा है तो कोई पीबीएम को ठीक। किसी को पिछली सरकार के कार्यकाल में शुरू की गई योजनाएं याद आ रही हैं। परिस्थितियां अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाली हो गई है। फिर वही बात, क्या शहर हित में दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठा जा सकता? क्या वास्तव में सब के हित टकरा रहे हैं, जो उनको एक मंच पर लाने में बाधक बन रहे हैं। कितना अच्छा होता अगर बिना किसी राजनीति एवं हित के सभी पीबीएम को लेकर एकजुट होकर आवाज उठाते। इतनी मुखर आवाज कि जो सरकार को आमूलचूल परिवर्तन करने को मजबूर कर दे।
बहरहाल, अफसोस है कि सरकारें बदलती हैं लेकिन व्यवस्थाएं नहीं। ऐसे में परिवर्तन एवं सुधार की उम्मीद करना बेमानी है। जब तक बड़े निर्णय नहीं होंगे, वर्षों से जमी जड़ें नहीं उखड़ेंगी, कमीशनखोरी एवं घर पर दुकान सजाने की प्रवृत्ति पर प्रभावी अंकुश नहीं लगेगा, तब तक कैसे उम्मीद करें कि चिकित्सक-मरीज का विश्वास की डोर से बंधा रिश्ता कायम रह पाएगा। ऐसा भी नहीं है कि पीबीएम में सारे ही चिकित्सक एक जैसे हैं। कई ऐसे भी हैं जो आंधियों में भी चिराग जलाए बैठे हैं, लेकिन गेहूं के साथ घुन पिसने तथा एक मछली से सारा तालाब गंदा होने वाली लोकोक्तियों की वजह से नेपथ्य में हैं। इन आंदोलनों का पीबीएम की सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा यह तो वक्त बताएगा। फिलहाल चौपालों पर चर्चाओं के चटखारे का दौर चरम पर है। जनता से जुड़े मुद्दों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। मामले की तह में जाना चाहिए कि आखिर बीमारी की जड़ क्या है। एेसे मामलों में दिखावा या चेहरा चमकाने की जुगत तो बिलकुल नहीं हो। उम्मीद की जानी चाहिए सरकार पीबीएम को लेकर कोई बड़ा फैसला करेगी। हां, साफ-सफाई, पार्किंग जैसी निहायत बुनियादी सुविधाओं में सुधार तो स्थानीय प्रबंधन ही कर सकता है इसके लिए सरकार की जरूरत ही कहां है?
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 24 जुलाई 15 के अंक में प्रकाशित 

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