मेरी टिप्पणी
जरूरी नहीं है कि यह खबर सुनकर चिकित्सा विभाग चौंक ही पड़े या अपनी चूक को दुरुस्त करने के लिए चेत भी जाए, क्योंकि आंकड़ों का अंकगणित तो अक्सर उसकी कार्यकुशलता को सही ही ठहराता आया है। खबर यह है कि बीकानेर जिला कलक्टर डेंगू से पीडि़त हैं, हालांकि चिकित्सा विभाग के लिए यह साधारण व सामान्य सी बात हो सकती है। चिकित्सा जगत में यह सर्वविदित है कि मर्ज कैसा भी हो वह कभी पद व प्रतिष्ठा देखकर किसी को घेरता या ब शता नहीं है, वह किसी को भी हो सकता है। हां, आमजन में जिला कलक्टर का मर्ज न केवल चर्चा बल्कि चिंता का विषय जरूर बना हुआ है। वैसे आमजन की चिंता लाजिमी है। यह चिंता व्यवस्था पर सवाल उठाती है। यह चिंता दावा करने वालों को कठघरे में खड़ा करती है। यह चिंता बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए किए जाने वाले प्रयासों की पोल खोलती है। यह चिंता सरकारी इलाज की हकीकत को बयां करती है। यह चिंता सरकारी तंत्र के भरोसे को तोड़ती है। क्योंकि यह चिंता गलत नहीं है। इस चिंता के साथ-साथ आमजन के जेहन में सहज सा सवाल ाी है कि जब जिला कलक्टर ही मच्छरों से अछूती नहीं तो फिर आमजन की बिसात ही क्या है। उनके कार्यालय एवं आवास तो शहर के साफ सुथरे इलाकों में से हैं फिर बुनियादी सुविधाओं को तरसते एवं गंदगी से बजबजाते उन मोहल्लों का तो भगवान ही मालिक है। और हां, जब कलक्टर के मर्ज का रिकॉर्ड ही सरकारी पन्न्नों में दर्ज नहीं है तो इस विसंगति को समझा जा सकता है। कोई बड़ी बात नहीं है कि विभाग इस मर्ज को बाहर से संक्रमित बताकर अपना पल्ला भी झाड़ ले।
लब्बोलुआब यह है कि शहर के मौजूदा हालात चिंताजनक हैं। साफ-सफाई संतोषजनक नहीं है। गंदे पानी का जमाव कई जगह है। सीवरेज का गंदा पानी सडक़ों पर बहता है। आवारा पशुओं का मल-मूत्र सडक़ों पर पड़ा वातावरण को दूषित करता है। यह भी उन कारणों में शामिल हैं, जो मच्छरों को पनपाने या बीमारी फैलाने के वाहक बनते हैं, लेकिन इन कारणों पर प्रभावी अंकुश के लिए जि मेदारों की तरफ से कोई कारगर पहल नहीं की जाती। अक्सर यही होता आया है कि किसी क्षेत्र में बीमारी की सूचना आने के बाद ही सबंधित विभाग हरकत में आता है, वरना सब भगवान भरोसे ही चलता रहता है। विभाग को यह इंतजार करने की प्रवृति त्यागनी होगी। आग लगने पर कुआं खोदने की मानसिकता बदलनी होगी। बदलते मौसम के हिसाब से उपाय पहले ही कर लिए जाने चाहिए। अब जब समूचा शहर मच्छरों की जद में है तो फोगिंग सभी जगह पर क्यों नहीं करवाई जाती।
बहरहाल, चिकित्सा विभाग की भूमिका से तो ऐसे लगता है कि उसकी एकसूत्री दिलचस्पी आंकड़े कम दिखाने की लगती है। जितने कम आंकड़े होंगे उतनी ही उसकी कार्यकुशलता बेहतर मानी जाएगी। यही प्रमुख कारण है तभी तो वास्तविकता एवं विभाग के आंकड़ों में विरोधाभास है। आंकड़ों के इस खेल में हकीकत का पता कर पाना मुश्किल है। एेसे में मर्ज की गंभीरता भी खत्म हो जाती है और उसको हल्के में ले लिया जाता है। यह बात दीगर है कि विभाग के आंकड़े कम बताने से बीमारी के फैलने या न फैलने पर कोई असर नहीं पड़ता है। हकीकत यही है कि आज भी शहर में डेंगू के कई मरीज हैं, जो चिकित्सा विभाग की नजरों से ‘ओझल’ हैं। इसलिए विभाग को पहले ईमानदारी से सच स्वीकारना चाहिए, भले ही आकंड़ों का अंकगणित गड़बड़ा जाए। वैसे भी इलाज तो बाद की बात है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 11 नवम्बर 15 (दीपावली) के अंक में प्रकाशित
जरूरी नहीं है कि यह खबर सुनकर चिकित्सा विभाग चौंक ही पड़े या अपनी चूक को दुरुस्त करने के लिए चेत भी जाए, क्योंकि आंकड़ों का अंकगणित तो अक्सर उसकी कार्यकुशलता को सही ही ठहराता आया है। खबर यह है कि बीकानेर जिला कलक्टर डेंगू से पीडि़त हैं, हालांकि चिकित्सा विभाग के लिए यह साधारण व सामान्य सी बात हो सकती है। चिकित्सा जगत में यह सर्वविदित है कि मर्ज कैसा भी हो वह कभी पद व प्रतिष्ठा देखकर किसी को घेरता या ब शता नहीं है, वह किसी को भी हो सकता है। हां, आमजन में जिला कलक्टर का मर्ज न केवल चर्चा बल्कि चिंता का विषय जरूर बना हुआ है। वैसे आमजन की चिंता लाजिमी है। यह चिंता व्यवस्था पर सवाल उठाती है। यह चिंता दावा करने वालों को कठघरे में खड़ा करती है। यह चिंता बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए किए जाने वाले प्रयासों की पोल खोलती है। यह चिंता सरकारी इलाज की हकीकत को बयां करती है। यह चिंता सरकारी तंत्र के भरोसे को तोड़ती है। क्योंकि यह चिंता गलत नहीं है। इस चिंता के साथ-साथ आमजन के जेहन में सहज सा सवाल ाी है कि जब जिला कलक्टर ही मच्छरों से अछूती नहीं तो फिर आमजन की बिसात ही क्या है। उनके कार्यालय एवं आवास तो शहर के साफ सुथरे इलाकों में से हैं फिर बुनियादी सुविधाओं को तरसते एवं गंदगी से बजबजाते उन मोहल्लों का तो भगवान ही मालिक है। और हां, जब कलक्टर के मर्ज का रिकॉर्ड ही सरकारी पन्न्नों में दर्ज नहीं है तो इस विसंगति को समझा जा सकता है। कोई बड़ी बात नहीं है कि विभाग इस मर्ज को बाहर से संक्रमित बताकर अपना पल्ला भी झाड़ ले।
लब्बोलुआब यह है कि शहर के मौजूदा हालात चिंताजनक हैं। साफ-सफाई संतोषजनक नहीं है। गंदे पानी का जमाव कई जगह है। सीवरेज का गंदा पानी सडक़ों पर बहता है। आवारा पशुओं का मल-मूत्र सडक़ों पर पड़ा वातावरण को दूषित करता है। यह भी उन कारणों में शामिल हैं, जो मच्छरों को पनपाने या बीमारी फैलाने के वाहक बनते हैं, लेकिन इन कारणों पर प्रभावी अंकुश के लिए जि मेदारों की तरफ से कोई कारगर पहल नहीं की जाती। अक्सर यही होता आया है कि किसी क्षेत्र में बीमारी की सूचना आने के बाद ही सबंधित विभाग हरकत में आता है, वरना सब भगवान भरोसे ही चलता रहता है। विभाग को यह इंतजार करने की प्रवृति त्यागनी होगी। आग लगने पर कुआं खोदने की मानसिकता बदलनी होगी। बदलते मौसम के हिसाब से उपाय पहले ही कर लिए जाने चाहिए। अब जब समूचा शहर मच्छरों की जद में है तो फोगिंग सभी जगह पर क्यों नहीं करवाई जाती।
बहरहाल, चिकित्सा विभाग की भूमिका से तो ऐसे लगता है कि उसकी एकसूत्री दिलचस्पी आंकड़े कम दिखाने की लगती है। जितने कम आंकड़े होंगे उतनी ही उसकी कार्यकुशलता बेहतर मानी जाएगी। यही प्रमुख कारण है तभी तो वास्तविकता एवं विभाग के आंकड़ों में विरोधाभास है। आंकड़ों के इस खेल में हकीकत का पता कर पाना मुश्किल है। एेसे में मर्ज की गंभीरता भी खत्म हो जाती है और उसको हल्के में ले लिया जाता है। यह बात दीगर है कि विभाग के आंकड़े कम बताने से बीमारी के फैलने या न फैलने पर कोई असर नहीं पड़ता है। हकीकत यही है कि आज भी शहर में डेंगू के कई मरीज हैं, जो चिकित्सा विभाग की नजरों से ‘ओझल’ हैं। इसलिए विभाग को पहले ईमानदारी से सच स्वीकारना चाहिए, भले ही आकंड़ों का अंकगणित गड़बड़ा जाए। वैसे भी इलाज तो बाद की बात है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 11 नवम्बर 15 (दीपावली) के अंक में प्रकाशित
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