मेरे संस्मरण-6
सीनियर का आदेश आखिर कैसे टालता। बुझे मन से दौडऩे को तैयार हुआ। बामुश्किल तीस मीटर ही दौड़ा होऊंगा कि अचानक पैर कुछ डिगा और जांघ में तेज दर्द शुरू हो गया। मैं वहीं मैदान पर गिर गया। दर्द के मारे मैं कराहने लगा था। साथियों ने आकर संभाला। पैर भी मसला लेकिन कोई असर नहीं हुआ। थोड़ी ही देर बाद जांघ में सूजन आ गईं थी। मांसपेशी खिंचाव था या मांस फटा था मैं समझ नहीं पा रहा था। आखिरकार डाक्टर के पास गया। बंगाली डाक्टर था। मेरे मर्ज की गंभीरता समझे बिना ही उसने कहा कि नस चढ़ गई है गरम पानी से सिकाव व तेल की मालिश करो। मैंने लगातार तीन दिन तेल की मालिश की और पानी से सिकाव भी किया लेकिन कोई आराम नहीं मिला। इस अंतराल में मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। आखिरकार फिर डाक्टर के पास गया तो उसने मुझे सात दिन का इलाज बताया। कहा कि बिजली की हिट जांघ पर लगवाओ। सात दिन तक यह भी किया, दर्द कुछ कम हुआ लेकिन पूरी तरह से मुक्ति नहीं मिली। इधर इस वजह से मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। सावधान-विश्राम करने में भी जब पैर हिलाता तो बेहद दर्द होता था। कई दिनों तक दर्द सहता रहा। इस दौरान मेरा दौड़ का अभ्यास बिलकुल ठप सा हो गया था। दौड़ न पाने का मलाल तो बहुत था लेकिन क्या करता। मन में ख्याल आया कि क्यों न गांव चला जाए। वहां कुछ दिन फुर्सत में रहूंगा तो शायद कुछ राहत मिल जाए। यह सोच कर मैंने दो माह की छुट्टी ले ली। छुट्टी मंजूर हो गई और मैं गांव आ गया। गांव आया तो परिवार में शादी थी। उस वक्त गांव में बिजली नहीं आई थी। पानी कुंए से खींचकर निकालना पड़ता था। शादी के लिए पानी की व्यवस्था करनी थी। हम लोग कुंए से पानी निकालने चल पड़े। मैं रस्सी खींच रहा था कि अचानक जांघ से चटकने की सी आवाज आई। थोडा दर्द भी हुआ लेकिन उससे बाद स्थायी दर्द से मुक्ति मिल गई। यह अलग बात है कि जांघ में तीन जगह गड्ढ़े जैसे स्पॉट पड़ गए थे। दो माह की छुट्टी पूरी करने के उपरांत मैं झांसी पहुंचा। तब तक मैं मन ही मन तय कर चुका था कि अब आगे नहीं दौडऩा है। इसकी पीछे दो वजह थी। एक तो माहौल तथा दूसरा चोट से फिर से उभर जाने का डर था। इस प्रकार मुझे अपना प्रिय खेल से ना चाहते हुए थी छोडऩा पड़ा। कई शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन मैं फिर नहीं दौड़ा। झांसी में रहते हुए मेरे को काफी समय हो गया था। बिलकुल शांत इलाका। इस दौरान गांव भी जाता रहता। आखिर 1960 के बाद धर्मपत्नी को मैं अपने साथ झांसी ले आया। यह सब घरवालों के कहने पर ही किया था। आज की तरह उस दौर में पत्नी या पति ही नहीं चलती थी। मां व कंवरजी ने जो कह दिया वो लोहे की लकीर के समान होता है। उनकी रजामंदी होने पर ही मैं धर्मपत्नी को साथ लेकर आया। हम दोनों ने कुछ समय ही कुछ समय ही गुजारा था कि एक और चुनौती आ खड़ी हुई।
सीनियर का आदेश आखिर कैसे टालता। बुझे मन से दौडऩे को तैयार हुआ। बामुश्किल तीस मीटर ही दौड़ा होऊंगा कि अचानक पैर कुछ डिगा और जांघ में तेज दर्द शुरू हो गया। मैं वहीं मैदान पर गिर गया। दर्द के मारे मैं कराहने लगा था। साथियों ने आकर संभाला। पैर भी मसला लेकिन कोई असर नहीं हुआ। थोड़ी ही देर बाद जांघ में सूजन आ गईं थी। मांसपेशी खिंचाव था या मांस फटा था मैं समझ नहीं पा रहा था। आखिरकार डाक्टर के पास गया। बंगाली डाक्टर था। मेरे मर्ज की गंभीरता समझे बिना ही उसने कहा कि नस चढ़ गई है गरम पानी से सिकाव व तेल की मालिश करो। मैंने लगातार तीन दिन तेल की मालिश की और पानी से सिकाव भी किया लेकिन कोई आराम नहीं मिला। इस अंतराल में मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। आखिरकार फिर डाक्टर के पास गया तो उसने मुझे सात दिन का इलाज बताया। कहा कि बिजली की हिट जांघ पर लगवाओ। सात दिन तक यह भी किया, दर्द कुछ कम हुआ लेकिन पूरी तरह से मुक्ति नहीं मिली। इधर इस वजह से मैं परेड में भी नहीं जा पा रहा था। सावधान-विश्राम करने में भी जब पैर हिलाता तो बेहद दर्द होता था। कई दिनों तक दर्द सहता रहा। इस दौरान मेरा दौड़ का अभ्यास बिलकुल ठप सा हो गया था। दौड़ न पाने का मलाल तो बहुत था लेकिन क्या करता। मन में ख्याल आया कि क्यों न गांव चला जाए। वहां कुछ दिन फुर्सत में रहूंगा तो शायद कुछ राहत मिल जाए। यह सोच कर मैंने दो माह की छुट्टी ले ली। छुट्टी मंजूर हो गई और मैं गांव आ गया। गांव आया तो परिवार में शादी थी। उस वक्त गांव में बिजली नहीं आई थी। पानी कुंए से खींचकर निकालना पड़ता था। शादी के लिए पानी की व्यवस्था करनी थी। हम लोग कुंए से पानी निकालने चल पड़े। मैं रस्सी खींच रहा था कि अचानक जांघ से चटकने की सी आवाज आई। थोडा दर्द भी हुआ लेकिन उससे बाद स्थायी दर्द से मुक्ति मिल गई। यह अलग बात है कि जांघ में तीन जगह गड्ढ़े जैसे स्पॉट पड़ गए थे। दो माह की छुट्टी पूरी करने के उपरांत मैं झांसी पहुंचा। तब तक मैं मन ही मन तय कर चुका था कि अब आगे नहीं दौडऩा है। इसकी पीछे दो वजह थी। एक तो माहौल तथा दूसरा चोट से फिर से उभर जाने का डर था। इस प्रकार मुझे अपना प्रिय खेल से ना चाहते हुए थी छोडऩा पड़ा। कई शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन मैं फिर नहीं दौड़ा। झांसी में रहते हुए मेरे को काफी समय हो गया था। बिलकुल शांत इलाका। इस दौरान गांव भी जाता रहता। आखिर 1960 के बाद धर्मपत्नी को मैं अपने साथ झांसी ले आया। यह सब घरवालों के कहने पर ही किया था। आज की तरह उस दौर में पत्नी या पति ही नहीं चलती थी। मां व कंवरजी ने जो कह दिया वो लोहे की लकीर के समान होता है। उनकी रजामंदी होने पर ही मैं धर्मपत्नी को साथ लेकर आया। हम दोनों ने कुछ समय ही कुछ समय ही गुजारा था कि एक और चुनौती आ खड़ी हुई।
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