टिप्पणी
पीबीएम अस्पताल में सोमवार एक रोगी बच्चे के परिजनों एवं चिकित्सक में कहासुनी से शुरू हुआ विवाद धक्की-मुक्की एवं मारपीट में बदल गया। मामला तब और बढ़ गया जब दोनों ही पक्षों के समर्थक पहुंच गए और मोर्चा संभाल लिया। अस्पताल परिसर किसी अखाड़े में तब्दील नजर आया। इससे पहले रविवार को एक टैक्नीशियन द्वारा जांच रिपोर्ट जल्दी देने की एवज में पैसे मांगने का मामला भी सामने आया था।
वैसे, संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल पीबीएम किसी न किसी तरह चर्चा में रहता ही आया है। इन दो दिन के घटनाक्रमों के चलते करीब डेढ़ साल पहले पीबीएम के निरीक्षण के दौरान दिया गया स्वास्थ्य मंत्री का बयान फिर प्रासंगिक हो गया। उन्होंने तब कहा था, पीबीएम बीमार है और यहां सर्जरी की जरूरत है। इस साल जून में भी स्वास्थ्य मंत्री फिर पीबीएम आकर गए लेकिन हालात कमोबेश वैसे ही रहे। उनका बयान केवल बयान ही साबित हुआ। बीच-बीच में पीबीएम के बेपटरी ढांचे को ढर्रे पर लाने के लिए विभिन्न संगठनों ने प्रयास भी किए। दवाब में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ, लेकिन अव्यवस्थाओं ने फिर पैर पसार लिए।
यह सही है कि रिक्त पद एवं घोषणाओं पर काम राज्य सरकार के स्तर पर होना है लेकिन सवाल उठता है कि निहायत ही स्थानीय स्तर की व्यवस्थाओं में सुधार के लिए भी क्या राज्य सरकार से उ मीद की जानी चाहिए? इस तरह के हंगामे-मारपीट, चोरी के मामले, बेपटरी पार्किंग व्यवस्था, बदहाल सफाई, दवा केन्द्रों पर दवा की किल्लत व मरीजों की कतार, अवांछित लोगों का अस्पताल में प्रवेश, चिकित्सकों के समय पर न पहुंचने की शिकायतें रोजमर्रा का काम है।
वैसे, इतिहास गवाह है और कई उदाहरण भी हैं। पीबीएम में कमोबेश हर प्रकरण के बाद जांच कमेटी तो जरूर बैठ जाती है, लेकिन जांच में क्या आया यह कागजों में ही दफन हो जाता है। पता ही नहीं चलता कौन दोषी था और किसको क्लीन चिट मिली। प्रबंधन के लुंज-पुंज फैसलों के कारण ही तो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है। वैसे भी जंग खा चुकी व्यवस्थाओं में सुधार तथा लंबे समय से जड़े जमाए बैठी अव्यवस्थाओं का उन्मूलन करने का साहस स्थानीय प्रबंधन में तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
बहरहाल, सोमवार का घटनाक्रम किसी भी लिहाज उचित नहीं है। यह अशोभनीय हरकत है और निंदनीय भी। इस हंगामे से भर्ती मरीजों की हुई असुविधा की भरपाई संभव नहीं है, लेकिन सबक जरूर लिया जा सकता है।
प्रबंधन की भूमिका को देखते हुए तथा लगातार हो रहे इस प्रकार के मामलों से लगता नहीं है स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा फैसला होगा। सरकार को अब इस मामले की गंभीरता को समझना चाहिए। किसी घोषणा को क्रियान्वित करने में डेढ़ साल का समय बहुत होता है। वाकई अब पीबीएम को लेकर कठोर कदम उठाने तथा कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है। सरकार को तत्काल पीबीएम की सर्जरी करने की शुरुआत कर देनी चाहिए। ज्यादा इंतजार न तो सरकार के हित में है और न पीबीएम जाने वालों के और न ही पीबीएम में बैठकर इलाज करने वालों के।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 6 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित
पीबीएम अस्पताल में सोमवार एक रोगी बच्चे के परिजनों एवं चिकित्सक में कहासुनी से शुरू हुआ विवाद धक्की-मुक्की एवं मारपीट में बदल गया। मामला तब और बढ़ गया जब दोनों ही पक्षों के समर्थक पहुंच गए और मोर्चा संभाल लिया। अस्पताल परिसर किसी अखाड़े में तब्दील नजर आया। इससे पहले रविवार को एक टैक्नीशियन द्वारा जांच रिपोर्ट जल्दी देने की एवज में पैसे मांगने का मामला भी सामने आया था।
वैसे, संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल पीबीएम किसी न किसी तरह चर्चा में रहता ही आया है। इन दो दिन के घटनाक्रमों के चलते करीब डेढ़ साल पहले पीबीएम के निरीक्षण के दौरान दिया गया स्वास्थ्य मंत्री का बयान फिर प्रासंगिक हो गया। उन्होंने तब कहा था, पीबीएम बीमार है और यहां सर्जरी की जरूरत है। इस साल जून में भी स्वास्थ्य मंत्री फिर पीबीएम आकर गए लेकिन हालात कमोबेश वैसे ही रहे। उनका बयान केवल बयान ही साबित हुआ। बीच-बीच में पीबीएम के बेपटरी ढांचे को ढर्रे पर लाने के लिए विभिन्न संगठनों ने प्रयास भी किए। दवाब में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ, लेकिन अव्यवस्थाओं ने फिर पैर पसार लिए।
यह सही है कि रिक्त पद एवं घोषणाओं पर काम राज्य सरकार के स्तर पर होना है लेकिन सवाल उठता है कि निहायत ही स्थानीय स्तर की व्यवस्थाओं में सुधार के लिए भी क्या राज्य सरकार से उ मीद की जानी चाहिए? इस तरह के हंगामे-मारपीट, चोरी के मामले, बेपटरी पार्किंग व्यवस्था, बदहाल सफाई, दवा केन्द्रों पर दवा की किल्लत व मरीजों की कतार, अवांछित लोगों का अस्पताल में प्रवेश, चिकित्सकों के समय पर न पहुंचने की शिकायतें रोजमर्रा का काम है।
वैसे, इतिहास गवाह है और कई उदाहरण भी हैं। पीबीएम में कमोबेश हर प्रकरण के बाद जांच कमेटी तो जरूर बैठ जाती है, लेकिन जांच में क्या आया यह कागजों में ही दफन हो जाता है। पता ही नहीं चलता कौन दोषी था और किसको क्लीन चिट मिली। प्रबंधन के लुंज-पुंज फैसलों के कारण ही तो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है। वैसे भी जंग खा चुकी व्यवस्थाओं में सुधार तथा लंबे समय से जड़े जमाए बैठी अव्यवस्थाओं का उन्मूलन करने का साहस स्थानीय प्रबंधन में तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
बहरहाल, सोमवार का घटनाक्रम किसी भी लिहाज उचित नहीं है। यह अशोभनीय हरकत है और निंदनीय भी। इस हंगामे से भर्ती मरीजों की हुई असुविधा की भरपाई संभव नहीं है, लेकिन सबक जरूर लिया जा सकता है।
प्रबंधन की भूमिका को देखते हुए तथा लगातार हो रहे इस प्रकार के मामलों से लगता नहीं है स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा फैसला होगा। सरकार को अब इस मामले की गंभीरता को समझना चाहिए। किसी घोषणा को क्रियान्वित करने में डेढ़ साल का समय बहुत होता है। वाकई अब पीबीएम को लेकर कठोर कदम उठाने तथा कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है। सरकार को तत्काल पीबीएम की सर्जरी करने की शुरुआत कर देनी चाहिए। ज्यादा इंतजार न तो सरकार के हित में है और न पीबीएम जाने वालों के और न ही पीबीएम में बैठकर इलाज करने वालों के।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 6 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित
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