टिप्पणी.
तो क्या यह मान लेना चाहिए कि सहनशीलता के अब कोई मायने नहीं रह गए हैं। तो क्या अब मूलभूत सुविधाओं के लिए भी प्रदर्शन ही करना पड़ेगा। रास्ता रोकना पड़ेगा, मटकियां फोडऩी पड़ेंगी। और शासन-प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करनी पड़ेगी। बीकानेर शहर के हालात से तो ऐसा ही लगता है। सप्ताह भर पूर्व आए अंधड़ से हुए नुकसान का खामियाजा शहरवासी अभी भी भोग रहे हैं। लेकिन अंधड़ से आहत लोगों का इंतजार अब आक्रोश में तब्दील होने लगा है। सात दिन से बिजली एवं पेयजल आपूर्ति दोनों ही पटरी से उतरी हुई हैं।
ग्रामीण इलाकों के हालात तो और भी बुरे हैं। वैसे, इसके लिए तर्क एवं दलीलें भी दी जा रही हैं। मसलन, अंधड़ खतरनाक था। उससे बहुत भारी नुकसान हुआ है। इतने भारी नुकसान से उबरने में समय तो लगता ही है। बिजली ही नहीं है तो पानी कहां से आएगा? आदि, आदि। मान भी लें कि तर्क एवं दलीलें सही हैं लेकिन कब तक? पिछले सात दिन से यही जवाब सुन-सुन कर लोगों के कान पक गए हैं। आखिर कोई तो समय सीमा होगी। 44 डिग्री तापमान की तपती दुपहरी में पानी के लिए मशक्कत करने में कितनी पीड़ा होती है? यह वातानुकूलित कक्षों में बैठने वाले अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि क्या जानें। अफसोसजनक तो यह भी है कि अंधड़ के सात दिन बाद प्रशासनिक अधिकारी एवं स्थानीय जनप्रतिनिधि हालात पर चर्चा कर रहे हैं। वैकल्पिक व्यवस्था के रास्ते बताए जा रहे हैं। सुझाव दिए जा रहे हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि मानो इस तरह के हालात पैदा होने का इंतजार किया जा रहा था। जो चर्चा या चिंता उसी दिन हो जानी चाहिए थी, वह सात दिन बाद क्यों? शासन-प्रशासन से नाउम्मीद लोग मुंहमांगी कीमतों पर जब टैंकर गिरवा रहे थे। अपनी सामथ्र्य के हिसाब से व्यवस्था कर रहे थे। तब अधिकारी व जनप्रतिनिधि कहां थे? कुछ जगह वैकल्पिक व्यवस्था भी की गई, लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे के समान भी नहीं थी। कुछ स्थानों पर तात्कालिक आक्रोश शांत कर वैकल्पिक व्यवस्था बंद कर दी गई है जबकि समस्या यथावत रही। वैसे भी नहरबंदी के चलते शहर में पानी की किल्लत थी। यह भी सही है कि अंधड़ के दूसरे दिन ही प्रभारी मंत्री बीकानेर आए। उन्होंने पीबीएम में घायलों से कुशलक्षेम पूछी। हादसे में मारी गई बालिका के परिजनों को सहायता राशि का चैक, जो कि नियमानुसार देय है सौंपा। शाम को अधिकारियों के साथ बैठक की और दिशा-निर्देश की औपचारिकता निभा कर अपने शहर रतनगढ़ के लिए रवाना हो गए।
कितना अच्छा होता अगर वे नुकसान का जायजा लेते। प्रभावित क्षेत्रों में जाकर लोगों से मिलते, बचाव व राहत कार्य किस अंदाज में हो रहे हैं अपनी आंखों से देखते, लेकिन यह हो न सका। शायद उनका रतनगढ़ पहुंचना इससे ज्यादा जरूरी था। माना मौसम पर जोर किसी का नहीं है लेकिन बाद में हालात से निबटना तो बस में हैं। पीडि़तों को समय पर राहत देना भी बस में है। उम्मीद की जानी चाहिए इस प्रकार के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति दोबारा ना हो। समयसीमा में काम हों तो न तो लोग रास्ता रोकेंगे और ना ही कानून हाथ में लेंगे। शासन-प्रशासन भले ही आक्रोशितों को प्राथमिकता दे, लेकिन उनके बारे में भी सोचें जो गांधीवादी बने चुपचाप व्यवस्था सुचारू होने का इंतजार कर रहे हैं। लोकहित तभी है जब सरकार के संवदेनशीलता के नारे की स्थानीय प्रशासन एवं जनप्रतिनिधि भी अक्षरश: पालना करे। जितना जल्दी हो सके राहत कार्यों में तेजी लाने की जरूरत है। अन्यथा गर्मी से परेशान लोगों का व्यवस्था के खिलाफ पारा कब चढ़ जाए कहना मुश्किल है।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 26 मई 15 के अंक में प्रकाशित ...
No comments:
Post a Comment